अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 9/ मन्त्र 24
ऋषिः - काङ्कायनः
देवता - अर्बुदिः
छन्दः - त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी
सूक्तम् - शत्रुनिवारण सूक्त
1
वन॒स्पती॑न्वानस्प॒त्यानोष॑धीरु॒त वी॒रुधः॑। ग॑न्धर्वाप्स॒रसः॑ स॒र्पान्दे॒वान्पु॑ण्यज॒नान्पि॒तॄन्। सर्वां॒स्ताँ अ॑र्बुदे॒ त्वम॒मित्रे॑भ्यो दृ॒शे कु॑रूदा॒रांश्च॒ प्र द॑र्शय ॥
स्वर सहित पद पाठवन॒स्पती॑न् । वा॒न॒स्प॒त्यान् । ओष॑धी: । उ॒त । वी॒रुध॑: । ग॒न्ध॒र्व॒ऽअ॒प्स॒रस॑: । स॒र्पान् । दे॒वान् । पु॒ण्य॒ऽज॒नान् । पि॒तॄन् । सर्वा॑न् । तान् । अ॒र्बु॒दे॒ । त्वम् । अ॒मित्रे॑भ्य: । दृ॒शे । कु॒रु॒ ।उ॒त्ऽआ॒रान् । च॒ । प्र । द॒र्श॒य॒ ॥११.२४॥
स्वर रहित मन्त्र
वनस्पतीन्वानस्पत्यानोषधीरुत वीरुधः। गन्धर्वाप्सरसः सर्पान्देवान्पुण्यजनान्पितॄन्। सर्वांस्ताँ अर्बुदे त्वममित्रेभ्यो दृशे कुरूदारांश्च प्र दर्शय ॥
स्वर रहित पद पाठवनस्पतीन् । वानस्पत्यान् । ओषधी: । उत । वीरुध: । गन्धर्वऽअप्सरस: । सर्पान् । देवान् । पुण्यऽजनान् । पितॄन् । सर्वान् । तान् । अर्बुदे । त्वम् । अमित्रेभ्य: । दृशे । कुरु ।उत्ऽआरान् । च । प्र । दर्शय ॥११.२४॥
भाष्य भाग
हिन्दी (5)
विषय
राजा और प्रजा के कर्त्तव्य का उपदेश।
पदार्थ
(वनस्पतीन्) सेवनीय शास्त्रों के पालन करनेवाले पुरुषों (वानस्पत्यान्) सेवनीय शास्त्रों के पालन करनेवालों के सम्बन्धी पदार्थों (ओषधीः) अन्न आदि ओषधियों, (उत) और (वीरुधः) जड़ी-बूटियों को, (गन्धर्वाप्सरसः) गन्धर्वों [पृथिवी के धारण करनेवालों] और अप्सरों [आकाश में चलनेवालों] (सर्पान्) सर्पों [सर्पों के समान तीव्र दृष्टिवालों] (देवान्) विजय चाहनेवालों, (पुण्यजनान्) पुण्यात्मा (पितॄन्) पितरों [महाविद्वानों] (तान् सर्वान्) इन सब लोगों को (अर्बुदे) हे अर्बुदि [शूर सेनापति राजन्] (त्वम्) तू (अमित्रेभ्यः दृशे) अमित्रों के लिये देखने को (कुरु) कर (च) और [हमें अपने] (उदारान्) बड़े उपायों को (प्र दर्शय) दिखादे ॥२४॥
भावार्थ
राजा वेदवेत्ताओं, उत्तम अन्न आदि पदार्थों, विश्वकर्मा शिल्पियों और वैज्ञानिक आदि लोगों का संग्रह करके शत्रुओं को अपना वैभव दिखावे ॥२४॥इस मन्त्र का पहिला और दूसरा भाग अ० ८।८।१४। तथा १५ में और तीसरा भाग इस सूक्त के मन्त्र २२ में आया है ॥
टिप्पणी
२४−प्रथमद्वितीयभागौ व्याख्यातौ-अ० ८।८।१४, १५ तथा तृतीयो व्याख्यातोऽस्मिन् सूक्ते-म० २२ ॥
विषय
न अन्न की कमी, न योद्धाओं की
पदार्थ
१. (वनस्पतीन्) = बिना पुष्प के फलवाले वृक्षों को, (वानस्पत्यान्) = फूलों के बाद फल देनेवाले वृक्षों को [वानस्पत्यं फलैः पुष्पात् तैरपुष्पाद् वनस्पतिः] (ओषधी:) = व्रीहि-यव आदि (उत्त) = तथा (वीरुधः) = विरोहणशील लताओं को, हे (अर्बुदे) = सेनापते! (त्वम्) = तू (अमिन्त्रेभ्य:) = शत्रुओं के लिए (दृशे कुरु) = दिखला। शत्रु को यह स्पष्ट हो जाए कि हम इन्हें घेरकर भूखा नहीं मार सकते। २. (गन्धर्वाप्सरस:) = [गां धारयन्ति, अप्सु सरन्ति] पृथिवी का धारण करनेवाले व जल में विचरनेवाले सैनिकों को, (सर्पान्) = सर्पवत् कुटिल गतिवाले योद्धओं को, (देवान्) = विजिगीषुओं को (पुण्यजनान्) = पवित्रात्माओं को व (पितृन्) = रक्षक पितरों को [बुजुगों को] (सर्वान् तान्) = उन सबको (च) = और (उदारान्) = युद्ध के विशाल आयोजनों को शत्रुओं के लिए (प्रदर्शय) = दिखा, जिससे वे युद्ध की पूरी तैयारी व सभी के सहयोग को देखकर युद्ध का उत्साह छोड़ दें।
भावार्थ
शत्रु को यह स्पष्ट हो जाए कि न तो यहाँ अन्न की कमी है, न ही योद्धओं की। इसप्रकार शत्रु युद्ध की पूरी तैयारी को देखकर भयभीत हो जाएँ और युद्ध से पराङ्मुख हो जाएँ।
भाषार्थ
(वनस्पतीन्) निज राष्ट्र की वनस्पतियों को, (वानस्पत्यान्) वनस्पतियों के फलों को, (ओषधीः) ओषधियों तथा व्रीहि-यव आदि को, (उत) और (वीरुधः) लताओं को, (गन्धर्वाप्सरसः) पृथिवी-पतियों और अन्तरिक्ष में सरण करने वाले सैनिकों को, (सर्पान्) सर्पसदृश विष प्रयोक्ताओं को, (देवात्) तथा शत्रुओं के विद्वानों को; (पुण्यजनान्) उन के पुण्यात्मा महात्माओं को, (पितॄन्) उन के मातापिताओं को, (तान् सर्वान्) उन सब को [उपस्थित करके] (अर्बुदे) हे अर्बुदि ! (त्वम्) तू (अमित्रेभ्यः दृशे) अमित्रों के लिये दृष्टिगोचर (कुरु) कर, (उदारान् च) और उस समय उदार भावों को भी (प्रदर्शय) प्रदर्शित कर।
टिप्पणी
[मन्त्र २३ में हजार-हजार सैनिकों को एक बार में मार देने का वर्णन हुआ है। यह दो प्रकार से सम्भव है। (१) तीन राष्ट्र मिलकर बढ़ी हुई शक्ति के द्वारा यह कार्य कर सकें; या (२) त्रिषन्धिवज्र इतना घातक-वज्र हो कि इस के प्रयोग द्वारा हजारों सैनिक एक बार में मारे जा सकें। मन्त्र २३ के अनुसार शत्रुओं के हजार-हजार सैनिकों के एक वार मारे जाने पर यह सम्भावना हो सकती है कि शत्रुपक्ष युद्ध से उपरत होने को तय्यार हो जाय। ऐसी अवस्था में अर्बुदि, शत्रुपक्ष के बुजुर्गो और शान्तिप्रिय सज्जनों को आमन्त्रित कर, उन्हें शत्रुपक्ष के सैनिकों के संमुख उपस्थित कर, उन द्वारा युद्धशान्ति के लिये शत्रु सेना को प्रेरित करे, और साथ ही उदार भावों को भी प्रकट करे। साथ ही यह कहे कि शान्ति की अवस्था में हमारा राष्ट्र वनस्पतियों आदि के कारण कितना हरा भरा है। युद्धशान्ति पर तुम्हारा राष्ट्र भी ऐसा ही हरा-भरा हो जायेगा। शत्रु पर विजय पा लेने के पश्चात्, शत्रुराष्ट्र में शासन के लिये त्रिषन्धि, निज उदार अधिकारियों के नाम आमन्त्रितों के समक्ष उपस्थित करता है।]
विषय
महासेना-संचालन और युद्ध।
भावार्थ
(वनस्पतीन् वानस्पत्यान्) बनस्पतियों, वृक्षों और वृक्ष के बने नाना प्रकार के हथियारों को, (ओषधीः उत वीरुधः) ओषधियों और लताओं को (गन्धर्वाप्सरसः) नव युवकों, स्त्रियों, (सर्पान् देवान् पुण्यजनान् पितॄन्) सांपों को या गुप्तचरों, देवों, शासक, राजाओं, (पुण्यजनान्) पुण्यात्मा पुरुष और पालक पितृ लोग (तान् सर्वान्) उन सब को हे (अर्बुदे) सेनापते (त्वम् अमित्रेभ्यः दृशे कुरु) तू अपने शत्रुओं को दिखलाने के लिये कर और (उदारां च प्रदर्शय) बड़े बड़े संहारकारी उपायों को भी दिखला।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कांकायन ऋषिः। मन्त्रोक्ता अर्बुदिर्देवता। १ सप्तपदा विराट् शक्वरी त्र्यवसाना, ३ परोष्णिक्, ४ त्र्यवसाना उष्णिग्बृहतीगर्भा परा त्रिष्टुप् षट्पदातिजगती, ९, ११, १४, २३, २६ पथ्यापंक्तिः, १५, २२, २४, २५ त्र्यवसाना सप्तपदा शक्वरी, १६ व्यवसाना पञ्चपदा विराडुपरिष्टाज्ज्योतिस्त्रिष्टुप्, १७ त्रिपदा गायत्री, २, ५–८, १०, १२, १३, १७-२१ अनुष्टुभः। षडविंशर्चं सूक्तम्॥
मन्त्रार्थ
(वनस्पतीन्) युद्धोपयोगी विषमय फली वृक्षों- (वानस्पत्यान्) वैसे ही फूल फल वाले वृक्षों- (ओषधीः) ऐसे ही फलपाकान्त बीज वालों के बीजों- (उत) और (वीरुधः) फैलने वाली बेलों को (गन्धर्वाप्सरसः) अत्रप्रयुक्त विष गन्ध वाले हवाओं और अस्त्रप्रयुक्त विविध नाशकारी सूर्यरश्मियों को "प्रजापतिरुपद्रवं गन्धर्वाप्सरोभ्यः प्रायच्छत्" (जैमि० उप० १।१२।१) "अथो गन्धेन च रूपेण च गन्धर्वाप्सरसश्चरन्ति" (श० ९।१।४।१) "वातो गन्धर्वः” (शत० ९।४।१।४०) "तस्य सूर्यस्य मरीचयोऽप्सरसः" (श० ६४१४) (पुण्यजनान्) सदुपदेश आत्मा की अमरता के उपदेश से प्रेरक जनों (पितृन्) शक्तिमान् शस्त्र सन्नद्ध वीर पालक सैनिकजनों "पितरो शक्तिवन्तो इषु बला वीरा" [ऋ० ६।७।५।९] (तान् सर्वान्) उन सबको (अमित्रेभ्यः-दृशे कुरु) शत्रुओं को दिखाने को कर उनके सम्मुख तैयार कर (उदारान् च-र्बुदे प्रदर्शय) और ऊपर उड़ने वाले स्फोटक पदार्थों को भी हे विद्युदस्त्रप्रयोक्ता तू प्रदर्शित कर ॥२४॥
विशेष
ऋषिः - काङ्कायनः (अधिक प्रगतिशील वैज्ञानिक) "ककि गत्यर्थ" [स्वादि०] कङ्क-ज्ञान में प्रगतिशील उससे भी अधिक आगे बढा हुआ काङ्कायनः। देवता-अर्बुदि: "अबु दो मेघ:" [निरु० ३|१०] मेघों में होने वाला अर्बुदि-विद्युत् विद्युत का प्रहारक बल तथा उसका प्रयोक्ता वैद्युतास्त्रप्रयोक्ता सेनाध्यक्ष “तदधीते तद्वेद” छान्दस इञ् प्रत्यय, आदिवृद्धि का अभाव भी छान्दस । तथा 'न्यर्बु''दि' भी आगे मन्त्रों में आता है वह भी मेघों में होने वाला स्तनयित्नु-गर्जन: शब्द-कडक तथा उसका प्रयोक्ता स्फोटकास्त्रप्रयोक्ता अर्बुदि के नीचे सेनानायक न्यर्बुदि है
इंग्लिश (4)
Subject
War, Victory and Peace
Meaning
O Arbudi, herbs and trees, products of herbs and trees, medicinal plants and creepers, keepers and guardians of earth and the environment, powers of the skies and flowing waters, Sarpas, surreptitious ones, devas, people of divine nature, noble people of charitable mind, parental powers of the nation, all these, O Commander, you show for the former enemies. Show your explosive powers too and extend your generosity and reasonableness too.
Translation
The forest-trees, them of the forest-trees, herbs and plants, gandharvas and apsarases, serpents, gods, pure-folk (punyajana), Fathers -- all those, O Arbudi, do thou make our enemies to see, and do thou show forth specters.
Translation
O Arbudi You make the enemies see all these tall trees, the things made of trees, herbs and the creeping plants, the clouds, lightings, snakes, statesman, men of good acts and men of practice. You also let them see mighty weapons.
Translation
Tall trees, and weapons made out of them, the herbs and creeping plants of Earth, rulers of the earth, and those who fly in the air, persons violent like serpents, victory-loving, noble, learned persons: all these do thou, O valiant general, make visible to our enemies to frighten them, and show them thy deadly military devices!
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२४−प्रथमद्वितीयभागौ व्याख्यातौ-अ० ८।८।१४, १५ तथा तृतीयो व्याख्यातोऽस्मिन् सूक्ते-म० २२ ॥
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