अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 1
ददा॒मीत्ये॒व ब्रू॑या॒दनु॑ चैना॒मभु॑त्सत। व॒शां ब्र॒ह्मभ्यो॒ याच॑द्भ्य॒स्तत्प्र॒जाव॒दप॑त्यवत् ॥
स्वर सहित पद पाठददा॑मि । इति॑ । ए॒व । ब्रू॒या॒त्। अनु॑ । च॒ । ए॒ना॒म् । अभु॑त्सत । व॒शाम् । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । याच॑त्ऽभ्य: । तत् । प्र॒जाऽव॑त् । अप॑त्यऽवत् ॥४.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ददामीत्येव ब्रूयादनु चैनामभुत्सत। वशां ब्रह्मभ्यो याचद्भ्यस्तत्प्रजावदपत्यवत् ॥
स्वर रहित पद पाठददामि । इति । एव । ब्रूयात्। अनु । च । एनाम् । अभुत्सत । वशाम् । ब्रह्मऽभ्य: । याचत्ऽभ्य: । तत् । प्रजाऽवत् । अपत्यऽवत् ॥४.१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।
पदार्थ
“(वशाम्) वशा [कामनायोग्य वेदवाणी] (याचद्भ्यः) माँगनेवाले (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्माओं [वेदजिज्ञासुओं] को (ददामि) मैं देता हूँ, (च) निश्चय करके (एनाम्) इस [वेदवाणी] को (अनु) ध्यान देकर (अभुत्सत) उन [पूर्व ऋषियों] ने जाना है, (तत्) यह [विद्यादान] (प्रजावत्) श्रेष्ठ प्रजाओंवाला [और] (अपत्यवत्) उत्तम सन्तानोंवाला है”−(इति) बस (एव) ऐसा (ब्रूयात्) वह [आचार्य] कहे ॥१॥
भावार्थ
आचार्य अधिकारी ब्रह्मचारियों को निश्चय करावे कि पूर्व ऋषियों ने वेद को मनन करके माना है कि वेदविद्या के अभ्यास से संसार के सब मनुष्य और सन्तान उत्तम होते हैं, उसी का उपदेश तुम को मैं करता हूँ ॥१॥ इस वशासूक्त का मिलान−अथर्व० का० १० सू० १० [वशासूक्त] से करो ॥
टिप्पणी
१−(ददामि) प्रयच्छामि (इति) वाक्यसमाप्तौ (एव) एवम् (ब्रूयात्) उपदिशेत्−आचार्यः (अनु) अनुलक्ष्य (च) अवधारणे (एनाम्) वेदवाणीम् (अभुत्सत) बुध अवगमने−लुङ्। ज्ञातवन्तः−पूर्वे विद्वांसः (वशाम्) अ० १०।१०।२। वशिरण्योरुपसंख्यानम्। वा० पा० ३।३।५८। वश कान्तौ प्रभुत्वे च−अप्, टाप्। वशा स्वाधीना−महीधरभाष्ये−यजु० २।१६। वशा कमनीयानि−दयानन्दभाष्ये, ऋक्० २।२४।१३। कमनीयां प्रभ्वीं वा वेदवाणीम् (ब्रह्मभ्यः) ब्राह्मणेभ्यः। ब्रह्मजिज्ञासुभ्यः (याचद्भ्यः) प्रार्थयमानेभ्यः (तत्) विद्यादानम् (प्रजावत्) प्रशस्यप्रजायुक्तम् (अपत्यवत्) श्रेष्ठसन्तानोपेतं कर्म ॥
विषय
ब्रह्म-दान
पदार्थ
१. (याचद्भ्यः ब्रह्मभ्यः) = याचना करनेवाले ब्राह्मणों [ज्ञान के पिपासुओं] के लिए 'ददामि' (इति एव ब्रुयात्) = 'देता हूँ' ऐसा ही कहे, अर्थात् ज्ञान देने में कभी संकोच व निषेध न करे (च) = और (एनाम्) = इस (वशाम्) = वेदवाणी को (अनु अभुत्सत) = आचार्यों की अनुकूलता में उनके निर्देशानुसार आचरण करते हुए जाने। २. (तत्) = वह ज्ञान देने व प्राप्त करने का कार्य (प्रजावत्) = राष्ट्र में उत्तम प्रजाओंवाला व (अपत्यवत्) = परिवारों में उत्तम सन्तानोंवाला होता है। ज्ञान के प्रसार से प्रजा व सन्तान उत्तम बनते है।
भावार्थ
चाहनेवाले ज्ञान-पिपासुओं के लिए यह वेदज्ञान देना ही चाहिए। आचार्य के निर्देशानुसार कार्य करते हुए हम ज्ञान प्राप्त करते हैं। यह ज्ञान-प्रसार प्रजाओं व सन्तानों के जीवनों को उत्तम बनाता है।
भाषार्थ
(वशाम्) वशीकृत वाणी, (याचद्भ्यः) याचना करने वाले (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मरूप हुए व्यक्तियों को (ददामि) मैं देता हूं, (इति एव ब्रूयात्) यह ही कहे, यदि (एनाम्) इस वशा के स्वरूप को (अनु अभुत्सत) अनुकूल रूप में जान लिया है। (तत्) वह अर्थात् वशास्वातन्त्र्य (प्रजावत्) प्रशस्त प्रजा वाला है, (अपत्यवत्) प्रशस्त सन्तान वाला है।
टिप्पणी
[मन्त्र में ब्रह्मज्ञ तथा वेदज्ञ ब्राह्मणों को, वशीकृत वाणी के प्रयोग की स्वतन्त्रता देने का वर्णन है। उन ब्राह्मणों को जो कि ब्रह्मरूपता को प्राप्त हुए हैं। "यदग्ने स्यामहं त्वं त्वं वा या स्याः अहम्। स्युष्टे सत्या इहाशिषः।। (ऋ० ६। ३ अ० । ४० वर्ग । २३), अर्थात् हे सर्वाग्रणी ! जब मैं तुझ स्वरूप हो जाऊं, या तू मुझ स्वरूप हो जाय, तो इस जीवन में तेरे दिये आशीर्वाद सत्य हो जायें। योगी जब ब्रह्म को ध्येय कर, चित्तवृत्ति को ब्रह्म में लीन कर देता है, तब वह स्व-स्वरूप को भूल जाता, और ब्रह्म का ही केवल साक्षात् करता है, यह है योगी की ब्रह्मरूपता१। राजा का कर्त्तव्य है कि ऐसे योगिब्राह्मण को वाणी का स्वातन्त्र्य दे। इस की वाणी वशा है, स्वात्मवश है संयमित है। यह जो कुछ बोलेगा यथार्थ बोलेगा। इस के यथार्थ सदुपदेशों द्वारा प्रजाएं प्रशस्त बन जायेंगी, और सन्तानें भी प्रशस्त बन जायेंगीं। प्रजावत्, अपत्यवत् में "वत्" प्राशस्त्यार्थ में है। यथा “भूमनिन्दा प्रशंसासु नित्ययोगेऽतिशायने सम्बन्धेऽस्तिविवक्षायां भवन्ति मतुबादयः"]। [१. ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति" इस की व्याख्या भी इसी प्रकार जाननी चाहिए।]
विषय
‘वशा’ शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(वशाम्) ‘वशा’ को (याचद्-भ्यः) मांगने-हारे (ब्रह्मभ्यः) ब्राह्मणों, ब्रह्म के ज्ञान से सम्पन्न विद्वानों को (ददामि इति एव) देता हूं ऐसा ही (ब्रूयात्) कहे। और वे (अनु च) उसके बाद (एनाम्) इस वशा को (अभुत्सत) पहिचान लें, उसका ज्ञान कर लें। ‘वशा’ का स्वरूप देखो “वशासूक्त” अथर्व० का० १०। सू० १०। मं० १-३४॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vasha
Meaning
Vasha means Cow, land and speech with all extended implications of these three. “I give”: this every one should say always, and one should think and act in consonance with the same mood of generosity. One who gives a gift of the cow, land, and Vedic speech to the seekers and devotees of holy speech is blest with children, grand children and good people all round.
Subject
The-cow (vasa) as belonging exclusively to the Brahmans
Translation
I give (her) thus should he say, if they have noticed her- (I give) the cow to the priests that ask for her; that brings ` Progeny, descendants.
Translation
I give gift, should in indeed be the word of the householder. He should always have a good feeling for this cow. He should give the cow to those men who are the masters of spirituality and divinity and ask for this. This kind of gift bringth sons and progeny.
Translation
I give the beautiful Vedic speech to the learned Vedic scholars. Verily have the ancient sages known it through meditation. This gift of Vedic speech bringeth sons and progeny. So should the Acharya say to the pupils.
Footnote
वश-कमनीयानि-दयानन्दभाष्ये Rigveda, 2-24-13. कमनीयां प्रभ्वों वा वेदवाणोम् The Acharya (preceptor) should tell his pupils, that, the knowledge of the Vedas elevates mankind, hence I teach them to you. See Atharvaveda, Kanda 10, Sukta 10.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१−(ददामि) प्रयच्छामि (इति) वाक्यसमाप्तौ (एव) एवम् (ब्रूयात्) उपदिशेत्−आचार्यः (अनु) अनुलक्ष्य (च) अवधारणे (एनाम्) वेदवाणीम् (अभुत्सत) बुध अवगमने−लुङ्। ज्ञातवन्तः−पूर्वे विद्वांसः (वशाम्) अ० १०।१०।२। वशिरण्योरुपसंख्यानम्। वा० पा० ३।३।५८। वश कान्तौ प्रभुत्वे च−अप्, टाप्। वशा स्वाधीना−महीधरभाष्ये−यजु० २।१६। वशा कमनीयानि−दयानन्दभाष्ये, ऋक्० २।२४।१३। कमनीयां प्रभ्वीं वा वेदवाणीम् (ब्रह्मभ्यः) ब्राह्मणेभ्यः। ब्रह्मजिज्ञासुभ्यः (याचद्भ्यः) प्रार्थयमानेभ्यः (तत्) विद्यादानम् (प्रजावत्) प्रशस्यप्रजायुक्तम् (अपत्यवत्) श्रेष्ठसन्तानोपेतं कर्म ॥
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