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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 10
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
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    जाय॑माना॒भि जा॑यते दे॒वान्त्सब्रा॑ह्मणान्व॒शा। तस्मा॑द्ब्र॒ह्मभ्यो॒ देयै॒षा तदा॑हुः॒ स्वस्य॒ गोप॑नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जाय॑माना: । अ॒भि । जा॒य॒ते॒ । दे॒वान् । सऽब्रा॑ह्मणान् । व॒शा । तस्मा॑त् । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । देया॑ । ए॒षा । तत् । आ॒हु॒: । स्वस्य॑ । गोप॑नम् ॥४.१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जायमानाभि जायते देवान्त्सब्राह्मणान्वशा। तस्माद्ब्रह्मभ्यो देयैषा तदाहुः स्वस्य गोपनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जायमाना: । अभि । जायते । देवान् । सऽब्राह्मणान् । वशा । तस्मात् । ब्रह्मऽभ्य: । देया । एषा । तत् । आहु: । स्वस्य । गोपनम् ॥४.१०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 10
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    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (जायमाना) प्रकट होती हुई (वशा) वशा [कामनायोग्य वेदवाणी] (सब्राह्मणान्) ब्राह्मणों [वेदजिज्ञासुओं] सहित (देवान् प्रति) विजय चाहनेवालों को (जायते) प्रकट होती है। (तस्मात्) इस लिये (एषा) यह [वेदवाणी] (ब्रह्मभ्यः) वेदजिज्ञासुओं को (देया) देनी चाहिये, (तत्) उस [कर्म] को (स्वस्य) सर्वस्व का (गोपनम्) रक्षण (आहुः) वे [विद्वान्] कहते हैं ॥१०॥

    भावार्थ

    परोपकारी ब्रह्मजिज्ञासु शूर पराक्रमी वेदवाणी को प्राप्त करके संसार का सुधार करते हैं। वैदिक उपदेश से सब के सर्वस्व की रक्षा होती है ॥१०॥

    टिप्पणी

    १०−(जायमाना) प्रादुर्भवन्ती (अभि) प्रति (जायते) प्रादुर्भवति (देवान्) विजिगीषून् (सब्राह्मणान्) ब्रह्मजिज्ञासुभिः सहितान् (वशा) म० १। कमनीया वेदवाणी (तस्मात्) (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मजिज्ञासुभ्यः (देया) दातव्या (एषा) वेदवाणी (तत्) (आहुः) कथयन्ति (स्वस्य) सर्वस्वस्य (गोपनम्) रक्षणम् ॥

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    विषय

    ब्राह्मण+देव

    पदार्थ

    १. (जायमाना) = सृष्टि के प्रारम्भ में प्रभु से प्रादुर्भूत होती हुई (वशा) = यह वेदवाणी (सब्राह्मणान देवान्) = ब्राह्मणोंसहित देवों के प्रति (अभिजायते) = प्रादुर्भूत होती है, अर्थात् वेदज्ञान का पात्र ज्ञान की रुचिवाला [ब्राह्मण] देववृत्तिवाला पुरुष [देव] ही होता । २. (तस्मात्) = इसलिए एषा यह वेदवाणी (ब्रह्मभ्यः देया) = ज्ञान की रुचिवाले पुरुषों के लिए दी जानी चाहिए । (तत्) = उस वशा के दानरूप कर्म को (स्वस्य गोपनम् आहुः) = अपने ज्ञानेश्वर्य का रक्षण ही कहते हैं, अर्थात् ज्ञान देनेवाला व्यक्ति अपने ज्ञानैश्वर्य को बढ़ा ही रहा होता है।

    भावार्थ

    हमें ज्ञानरुचि व देववृत्तिवाला बनकर वेदज्ञान का पात्र बनना चाहिए। वेदज्ञान को प्राप्त करके हम औरों के लिए इसे देनेवाले बनें। इसप्रकार ही हम अपने ज्ञानेश्वर्य का रक्षण करते हैं।

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    भाषार्थ

    (वशा) वेदवाणी (जायमाना) प्रकट होती हुई, (सब्राह्मणान्) ब्रह्मज्ञ तथा वेदज्ञ अर्थात् ब्राह्मणों समेत (देवान्) दिव्य व्यक्तियों को (अभि) अभिमुख कर के (जायते) प्रकट होती है। (तस्मात्) इस लिये (एषा) यह वशा (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मज्ञों तथा वेदज्ञों के स्वामित्व के लिये (देया) दे देनी चाहिये, (तद्) इस दान को (स्वस्य गोपनम् आहुः) राजा की निज सुरक्षा रूप कहते हैं।

    टिप्पणी

    [राष्ट्रिय प्रजाऔं और सन्तानों को प्रशस्त बनाने के लिये, ब्रह्मवेत्ताओं तथा वेदवेत्ताओं को वाणी की स्वतन्त्रता प्रदान करने के प्रकरण में "वशा" द्वारा वेदवाणी का वर्णन हुआ है। ऐसे तथा इस प्रकार के अन्य दिव्यगुणी विद्वानों को वेदवाणी के प्रचार का अधिकार, राजा द्वारा, प्राप्त होना चाहिये, इस से राजा की भी आत्मरक्षा हो सकेगी। ऐसे विद्वान् अपनी वाणी द्वारा, वेदवाणी के अनुकूल ही, प्रजा को सदुपदेश देंगें, जिस से राष्ट्रोन्नति हो कर राजा की स्थिरता बनी रहेगी]।

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    विषय

    ‘वशा’ शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (वशा) ‘वशा’ (जायमाना) उत्पन्न होती हुई ही (सब्राह्मणान्) ब्राह्मणों सहित (देवान्) देवों को लक्ष्य करके (अभि जायते) उत्पन्न होती है (तस्मात्) इसलिये (एषा) वह (ब्रह्मभ्यः देया) ब्रह्म के ज्ञानी ब्राह्मणों को दान कर देनी चाहिये (तत्) उसके दान कर देने को ही (स्वस्य गोपनम्*) अपने धन की रक्षा करना (आहुः) कहते हैं।

    टिप्पणी

    * ‘गो-पनम्’ पदच्छेदः क्वचित्।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha

    Meaning

    Nevertheless, Vasha, the Vedic Voice of Truth and free speech of the Brahmana committed to truth and eternal values, reasserting, arises, inspiring the brilliant, the generous, and the learned faithful for recovery, rebirth and reconstruction. For this reason this Voice is to be entrusted to the seekers of Brahma, the ultimate Reality, the Word and the Meaning. And for that reason, this Voice, this trust and this inevitable assertion, they say, is the real protection and security of our wealth and identity.

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    Translation

    When being born, the cow is born for the gods together with the Brahmans; therefore; she is to be given to the priests; that people call the guarding of one’s possessions.

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    Translation

    The Vasha (cow) in its very inception is meant (by its milk, ghee and milky preparations) for Yajna Devas, learned men inclusive of the priests and masters of the Vedas. Therefore it is to be given to them (priest etc). This they call their preserved wealth

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    Translation

    For the valorous and learned scholars is the Vedic Knowledge produced when first it is revealed. Hence to the learned must it be given. Wise men call it as an act of preservation of mankind.

    Footnote

    The learned preach the doctrines of the Vedas and preserve mankind from moral degradation.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १०−(जायमाना) प्रादुर्भवन्ती (अभि) प्रति (जायते) प्रादुर्भवति (देवान्) विजिगीषून् (सब्राह्मणान्) ब्रह्मजिज्ञासुभिः सहितान् (वशा) म० १। कमनीया वेदवाणी (तस्मात्) (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मजिज्ञासुभ्यः (देया) दातव्या (एषा) वेदवाणी (तत्) (आहुः) कथयन्ति (स्वस्य) सर्वस्वस्य (गोपनम्) रक्षणम् ॥

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