अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 27
याव॑दस्या॒ गोप॑ति॒र्नोप॑शृणु॒यादृचः॑ स्व॒यम्। चरे॑दस्य॒ ताव॒द्गोषु॒ नास्य॑ श्रु॒त्वा गृ॒हे व॑सेत् ॥
स्वर सहित पद पाठयाव॑त् । अ॒स्या॒: । गोऽप॑ति: । न । उ॒प॒ऽशृ॒णु॒यात् । ऋच॑: । स्व॒यम् । चरे॑त् । अ॒स्य॒ । ताव॑त् । गोषु॑ । न । अ॒स्य॒ । श्रु॒त्वा । गृ॒हे । व॒से॒त् ॥४.२७॥
स्वर रहित मन्त्र
यावदस्या गोपतिर्नोपशृणुयादृचः स्वयम्। चरेदस्य तावद्गोषु नास्य श्रुत्वा गृहे वसेत् ॥
स्वर रहित पद पाठयावत् । अस्या: । गोऽपति: । न । उपऽशृणुयात् । ऋच: । स्वयम् । चरेत् । अस्य । तावत् । गोषु । न । अस्य । श्रुत्वा । गृहे । वसेत् ॥४.२७॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(गोपतिः) वेदवाणी का रक्षक [ब्रह्मचारी] (यावत्) जब तक (स्वयम्) सुन्दर रीति से (अस्याः) इस (ऋचः) स्तुतियोग्य [वेदवाणी] का (न) न (उपशृणुयात्) यथाविधि श्रवण कर लेवे, (तावत्) तब तक (अस्य) इस [परमेश्वर] की (गोषु) वाणियों में (चरेत्) चलता रहे, और (श्रुत्वा) श्रवण करके (अस्य) अपने (गृहे) घर में (न) अव (वसेत्) बसे ॥२७॥
भावार्थ
जब ब्रह्मचारी, पुत्र वा पुत्री, यथाविधि श्रवण, मनन और निदिध्यासन से वेदविद्या प्राप्त कर चुके, तब समावर्तन करके गृहाश्रम में प्रवेश करे ॥२७॥
टिप्पणी
२७−(यावत्) (अस्याः) पुरोवर्तिन्याः (गोपतिः) वेदवाणीरक्षको ब्रह्मचारी (न) निषेधे (उपशृणुयात्) गुरुकुले श्रवणं कुर्यात् (ऋचः) स्तुत्याया वेदवाण्याः (स्वयम्) सु+अय गतौ−अमु। सुष्ठु शास्त्ररीत्या यथा तथा (चरेत्) विचरेत्। अभ्यस्येत् (अस्य) व्यापकस्य परमेश्वरस्य (तावत्) (गोषु) वेदवाक्षु (न) संप्रति (अस्य) स्वकीयस्य (श्रुत्वा) श्रवणं कृत्वा (गृहे) गृहाश्रमे (वसेत्) निवसेत् ॥
विषय
'आचार्याय प्रियं धनमाहर, प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सी:'
पदार्थ
१. (यावत्) = जब तक (अस्या:) = इस वशा [वेदवाणी] के (गोपतिः) = ज्ञान की वाणियों का रक्षक आचार्य (स्वयम्) = अपने-आप (ऋच:) = ऋचाओं को (न उपशृणुयात्) = विद्यार्थी से सुन न ले (तावत्) = तब तक (अस्य गोषु चरेत) = इस आचार्य से दी जानेवाली ज्ञान की वाणियों में ही यह विद्यार्थी विचरण करे, अर्थात् जब तक आचार्य इस विद्यार्थी की परीक्षा न ले-ले तब तक यह विद्यार्थी ब्रह्मचर्यपूर्वक वेदाध्ययन में ही प्रवृत्त रहे । २. परन्तु परीक्षोत्तीर्ण होने पर, अर्थात् (श्रुत्वा) = आचार्य से इन ज्ञान की वाणियों को सम्यक् सुनकर (अस्य गृहे न वसेत्) = इस आचार्य के घर में ही न रहता रहे। आचार्य से स्वीकृति पाकर संसार में आये। गृहस्थ आदि आश्रमों का सम्यक् निर्वहण करता हुआ अन्तत: संन्यस्त होकर उस वेदवाणी का सन्देश सबको सुनानेवाला बने। आचार्यकुल में ही अपने को समाप्त कर लेना भी ठीक नहीं होता। आयार्चकुल में इस वेदवाणी का श्रवण होता है, 'मनन' तो गृहस्थ में ही होना है और फिर वानप्रस्थ में इसका निदिध्यासन होकर संन्यास में वह इसका साक्षात्कार करता है और औरों के लिए इस ज्ञान को देनेवाला बनता है।
भावार्थ
जब तक आचार्य से ली जानेवाली परीक्षा में यह विद्यार्थी उत्तीर्ण नहीं होता तब तक उसे आचार्यकुल में ही रहना है। उसके बाद वहीं न रहता रहे, अपितु गृहस्थ आदि आश्रमों में आगे बढ़े।
भाषार्थ
(गोपतिः) पृथिवी का पति राजा (याक्त) जब तक (अस्याः) इस वशा अर्थात् वेदवाणी की (ऋचः) ऋचाओं को (न उपशृणुयात् स्वयम्) अपने आप नहीं सुनता, (तावत्) तब तक (अस्य) इस गोपति के (गोषु) स्तोताओं में वशा अर्थात् वेदवाणी (चरेत्) विचरे, (श्रुत्वा) ऋचाओं को सुन कर (अस्य) इस गोपति के (गृहे) केवल गृह में ही (न वसेत्) न बसे, न विचरे।
टिप्पणी
[वशा का अर्थ यदि गौ (पशु) हो तो वह ऋचाएं कैसे बोलेगी। वेदवाणी तो ऋचाएं बोलती ही है। अतः इस वशा प्रकरण में वशा का अर्थ वेदवाणी ही जानना चाहिये। वेदवाणी मानो वेदज्ञ ब्राह्मण के मुख द्वारा ऋचाओं का उच्चारण करती है। गोपति का अर्थ है पृथिवीपति, न कि ग्वाला। इसीलिये मन्त्र ३२ में 'राजन्य', और मन्त्र ३३ में 'राजन्यस्य' पद पठित हैं। मन्त्र में यह भी निर्देश मिलता है कि गोपति के अन्य कार्यों में व्याप्त होने के कारण वह वेदवाणी के सदुपदेशों से वञ्चित रहता है। इसलिये वेदवाणी राजा के स्तोतृ आदि याज्ञिकों तक सीमित रहती है, परन्तु गोपति जब स्वयं वेदवाणी की ऋचाओं श्रवण करता है तब वह वेदवाणी के सदुपदेशों के प्रचार की इच्छा करता है, और वेदवाणी पहिले जो उस के गृह्यकृत्यों के लिये याज्ञिकों द्वारा प्रयुक्त होती थी वह अब राष्ट्रकृत्यों के लिये भी उपयुक्त होती है। गोषु, गौः स्तोतृनाम (निघं० ३।१६)]|
विषय
‘वशा’ शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(यावत्) जब तक (अस्याः) इस ‘वशा’ का (गोपतिः) स्वामी (स्वयम्) स्वयं अपने आप (ऋचः) ऋचाओं मन्त्रों, स्तुतियों को (न) नहीं (उपशृणुयात्) सुन लेता है (तावत्) तब तक वह वशा (अस्य गोषु) उसकी गौओं में ही (चरत्) चरा करे (श्रुत्वा) ऋचाएं सुन लेने पर वह वशा (अस्य गृहे) इस गो पति के घर में (न वसेत्) न रहे।
टिप्पणी
(च०) ‘वशेत्’ इति बहुत्र पाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vasha
Meaning
If a ruler has not himself attentively heard the Rks, let him actively move among the scholars of Vedic verses, and when he has fully heard and realised the Vedic voice, let him not be confined to his personal home, nor should the Vedic Voice be locked up in the royal palace.
Translation
So long as the master of her should not himself overhear the verses, so long may she go about among his kine; she may not abide in his house after he has heard.
Translation
The cow hold move among the cows of her master until he does not hear the verses himself. When he hears the verses the cow sould not in his hours.
Translation
As long as a Brahmchari, the guardian of Vedic speech does not nicely master the laudable Vedic knowledge, till then let him exert in the Gurukula, to understand the words of God, and then return home to enter domestic life, when he has mastered the Vedic knowledge.
Footnote
A Brahmchari should remain in the Gurukula and study the Vedas, and enter domestic life after finishing his Vedic studies and performing Samavartan ceremony. न: मंत्रति। When he has finished his studies.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२७−(यावत्) (अस्याः) पुरोवर्तिन्याः (गोपतिः) वेदवाणीरक्षको ब्रह्मचारी (न) निषेधे (उपशृणुयात्) गुरुकुले श्रवणं कुर्यात् (ऋचः) स्तुत्याया वेदवाण्याः (स्वयम्) सु+अय गतौ−अमु। सुष्ठु शास्त्ररीत्या यथा तथा (चरेत्) विचरेत्। अभ्यस्येत् (अस्य) व्यापकस्य परमेश्वरस्य (तावत्) (गोषु) वेदवाक्षु (न) संप्रति (अस्य) स्वकीयस्य (श्रुत्वा) श्रवणं कृत्वा (गृहे) गृहाश्रमे (वसेत्) निवसेत् ॥
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