अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 41
या व॒शा उ॒दक॑ल्पयन्दे॒वा य॒ज्ञादु॒देत्य॑। तासां॑ विलि॒प्त्यं भी॒मामु॒दाकु॑रुत नार॒दः ॥
स्वर सहित पद पाठया: । व॒शा: । उ॒त्ऽअक॑ल्पयन् । दे॒वा: । य॒ज्ञात् । उ॒त्ऽएत्य॑ । तासा॑म् । वि॒ऽलि॒प्त्यम् । भी॒माम् । उ॒त्ऽआकु॑रुत । ना॒र॒द: ॥४.४१॥
स्वर रहित मन्त्र
या वशा उदकल्पयन्देवा यज्ञादुदेत्य। तासां विलिप्त्यं भीमामुदाकुरुत नारदः ॥
स्वर रहित पद पाठया: । वशा: । उत्ऽअकल्पयन् । देवा: । यज्ञात् । उत्ऽएत्य । तासाम् । विऽलिप्त्यम् । भीमाम् । उत्ऽआकुरुत । नारद: ॥४.४१॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(याः) जिन (वशाः) कामनायोग्य [शक्तियों] को (देवाः) विजय चाहनेवाले [जिज्ञासुओं] ने (यज्ञात्) यज्ञ [परमेश्वर की पूजा, संगतिकरण और दानव्यवहार] से (उदेत्य) ऊँचे होकर (उदकल्पयन्) उत्तम माना है। (तासाम्) उन [शक्तियों] के बीच (विलिप्त्यम्) विशेष वृद्धिवाली और (भीमाम्) भयानक [वेदवाणी] को (नारदः) नीति देनेवाले [आचार्य] ने (उदाकुरुत) स्वीकार किया है ॥४१॥
भावार्थ
सदा से विद्वानों ने अनेक शक्तियों की कल्पना करके यही निश्चय किया है कि संसार में शिष्टों की वृद्धि करनेवाली और दुष्टों की ताड़नेवाली इस वेदवाणी के तुल्य अन्य कोई शक्ति नहीं है ॥४१॥
टिप्पणी
४१−(याः) (वशाः) कमनीयाः शक्तयः (उदकल्पयन्) उत्तमाः कल्पितवन्तः (देवाः) विजिगीषवः। जिज्ञासवः (यज्ञात्) ईश्वरपूजासंगतिकरणदानव्यवहारात् (उदेत्य) उदयं प्राप्य (तासाम्) वशानां मध्ये (विलिप्त्यम्) वि+लिप उपदेहे−क्तिन्, उपदेहो वृद्धिः। नित्यं छन्दसि। पा० ४।१।४६। इति ङीप्। अमि यणादेशश्छान्दसः। विशेषा वृद्धिर्यस्यास्ताम् (भीमाम्) भयङ्ककराम् (उदाकुरुत) स्वीकृतवान् (नारदः) म० १६। नीतिप्रदो विद्वान् ॥
विषय
'विलिप्ती व भीमा' वशा
पदार्थ
१.(देवा:) = देववृत्ति के लोगों ने (यज्ञात्) = यज्ञ के द्वारा श्रेष्ठतम कर्मों के द्वारा (उत् एत्य) = वासनामय जगत् से ऊपर उठकर (या: वशा: उदकल्पयन) = जिन वेदवाणियों को अपने जीवन में स्थापित किया [निर्मित किया], (तासाम्) = उनमें से (नारदः) = नरसम्बन्धी 'इन्द्रियों, मन व बुद्धि' को शुद्ध करनेवाले नारद ने (विलिप्त्यम्) = [विलिप्ती] शक्तियों का उपचय करनेवाली (भीमाम्) = शत्रुओं के लिए भयंकर वशा को (उदाकुरुत) = सबसे ऊपर किया-सबसे उच्च स्थान दिया। वह वेदवाणी जोकि शक्ति के उपचय व शत्रुभेदन का साधन बनती है' नारद के दृष्टिकोण में सर्वमहत्त्वपूर्ण हुई|
भावार्थ
जितना-जिना हम यज्ञों में प्रवृत्त होकर जीवन को पवित्र बना पाएँगे उतना-उतना ही अपने हृदयों को वेदवाणी के प्रकाश का आधार बनाएँगे। इन्द्रियों, मन व बुद्धि को शुद्ध बनानेवाले नारद के लिए 'विलिप्ती व भीमा' वेदवाणी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। ये हमारी शक्तियों का उपचय करती हैं और वासनारूप शत्रुओं को भेदन करनेवाली होती हैं।
भाषार्थ
(यज्ञात् उदेत्य) यज्ञ से उठकर (देवाः) विद्वानों ने (याः वशाः) जिन वशाओं को (उदकल्पयन्) [विषय विभाग की दृष्टि से] विभक्त किया, (तासाम्) उन में (भीमाम्) भयप्रद (विलिप्त्यम्=विलिप्ती) वशा को (नारदः) नर-नारी समाज के शोधक ने (उदाकुरुत१) उत्कृष्ट जाना या माना। या वशाः=बहुवचने२; अभी तक वशा का वर्णन एकवचन में हुआ है।
टिप्पणी
[मन्त्र में यज्ञ का अभिप्राय है "ज्ञानगोष्ठी"३। "उत त्वं सख्ये स्थिरपीतमाहुः" (ऋ० १०।७१।५) की व्याख्या में निरुक्तकार ने "वाक्सख्ये" तथा "ढेवसख्ये", वाग्ज्ञेयेषु वलवत़्स्वपि" आदि शब्दों द्वारा ज्ञानगोष्ठी का निर्देश किया है (निरुक्त १।६।२०)। यह ज्ञानगोष्ठी यज्ञ स्वरूपा है। इस गोष्ठी में देवों ने वशाः अर्थात् वेदवाणियों के तीन विभाग किये, और नारद ने "विलिप्त्यम्" विभाग को उत्कृष्ट माना। विलिप्त्यम्= विलिप्ती+अम् । "इको यणचि" (अष्टा० ६।१।७७) के अनुसार “यण" हुआ है। यह छान्दस प्रयोग है = विलिप्तीम्। ऐसे प्रयोग वेदों में प्रायः मिलते हैं, तथा कुमार्यम्=कुमारीम् (अथर्व० १४।१।६३)। नारद है जनशोधक। अतः उसने विलिप्ती मन्त्रों को उत्कृष्ट माना। विलिप्ती का अर्थ है वह वेदवाणी, जो कि राग-द्वेष आदि के लेपों से रहित होने का वर्णन करती हैं। यह विलिप्तीभावना समाज का संशोधन करती है। मन्त्र में कोई ऐतिहासिक घटना कथित नहीं हुई। अपितु रोचक ढंग से एक तथ्य का वर्णन हुआ है। विलिप्ती प्रदर्शित जीवन-मार्ग अतिकठिन है इसलिये इस विलिप्ती को "भीमा"४ कहा है]। [१. उदाकुरुत=उत्कृष्ट आकर अर्थात् खनिरुप माना। २. वशा का बहुवचन "वेदवाणी" रूप में उपपन्न होता है, गोपशु के रूप में नहीं। मन्त्र (४१-४७) तक में वशा के बहुत्व का प्रतिपादन हुआ है। ३. ऐसी ज्ञान गोष्ठियों को परिषद् कहा है। यथा "पदप्रकृतीनि सर्वचरणानां पार्षदानि" (निरुक्त १।६।१७)। ४. विलिप्ती-मार्ग को इसलिये "दुर्गपथः" भी कहा है। यथा "दुर्ग पथस्तत् कवयो वदन्ति” (कठ० ९।३।१४)। यह मार्ग योगियों तथा संन्यासियों का है, सामान्य प्रजा का नहीं।]
विषय
‘वशा’ शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(देवाः) देवों ने (यज्ञाद्) यज्ञ से (उद् एत्य) ऊपर आकर (याः वशाः) जिन ‘वशाओं’ को (उत्-अकल्पयन्) उन्नत स्वीकार किया (तासाम्) उनमें से भी (भीमाम्) भीमा, भयानक, भयप्रद उग्र (विलिप्यं) ‘विलिप्ति’ को (नारदः) नारद, विद्वान् पुरुष (उत् आकुरुत) और भी उत्कृष्ट मानता है।
टिप्पणी
(तृ०) ‘विलिप्तिम्’ इति पैप्प० सं०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vasha
Meaning
That Vasha, mother spirit of divine food, freedom and enlightenment which the divinities received, raised and further developed from cosmic yajna and intellectual gatherings, that very abundant Vasha, that consecrated spirit of life and freedom, now obscured, O Narada, pioneer of knowledge and enlightenment, recover, raise and establish in human society.
Translation
What cows the gods shaped out, rising up from the sacrifice, of them Narada selected for himself the fearful vilipti.
Translation
Narad, the man of great intelligence accepts that fierce Vilipti (who yields more butter) among the cows whom the cosmic forces emerging out from the Yajna, creation process think and accept.
Translation
Of all the beautiful forces, which the investigators after truth have accepted as excellent, elevating themselves through the contemplation of God, comradeship and chanty, the sagacious learned person deems the Vedic knowledge to be most developed and majestic.
Footnote
Narada is not the name of any person. It means a wise learned man.(नारद:) नोतिप्रदो विद्वान्।
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
४१−(याः) (वशाः) कमनीयाः शक्तयः (उदकल्पयन्) उत्तमाः कल्पितवन्तः (देवाः) विजिगीषवः। जिज्ञासवः (यज्ञात्) ईश्वरपूजासंगतिकरणदानव्यवहारात् (उदेत्य) उदयं प्राप्य (तासाम्) वशानां मध्ये (विलिप्त्यम्) वि+लिप उपदेहे−क्तिन्, उपदेहो वृद्धिः। नित्यं छन्दसि। पा० ४।१।४६। इति ङीप्। अमि यणादेशश्छान्दसः। विशेषा वृद्धिर्यस्यास्ताम् (भीमाम्) भयङ्ककराम् (उदाकुरुत) स्वीकृतवान् (नारदः) म० १६। नीतिप्रदो विद्वान् ॥
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