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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 11
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
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    य ए॑नां व॒निमा॒यन्ति॒ तेषां॑ दे॒वकृ॑ता व॒शा। ब्र॑ह्म॒ज्येयं॒ तद॑ब्रुव॒न्य ए॑नां निप्रिया॒यते॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ए॒ना॒म् । व॒निम् । आ॒ऽयन्ति॑ । तेषा॑म् । दे॒वऽकृ॑ता । व॒शा । ब्र॒ह्म॒ऽज्येय॑म् । तत् । अ॒ब्रु॒व॒न् । य: । ए॒ना॒म् । नि॒ऽप्रि॒य॒यते॑ ॥४.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य एनां वनिमायन्ति तेषां देवकृता वशा। ब्रह्मज्येयं तदब्रुवन्य एनां निप्रियायते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । एनाम् । वनिम् । आऽयन्ति । तेषाम् । देवऽकृता । वशा । ब्रह्मऽज्येयम् । तत् । अब्रुवन् । य: । एनाम् । निऽप्रिययते ॥४.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 11
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    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो पुरुष (वनिम्) सेवनीय (एनाम्) इस [वेदवाणी] को (आयन्ति) प्राप्त करते हैं, (वशा) वशा [कामनायोग्य वेदवाणी] (तेषाम्) उनकी (देवकृता) विजय इच्छा सिद्ध करनेवाली है। (तत्) यह [वचन] (ब्रह्मज्येयम्) ब्रह्माओं [वेदवेत्ताओं] के हानि करने योग्य [पुरुष] से (अब्रुवन्) उन [विद्वानों] ने कहा है, (यः) जो (एनाम्) इस [वेदवाणी] को (निप्रियायते) तुच्छपन से प्रिय सा मानता है ॥११॥

    भावार्थ

    जो ब्रह्मचारी श्रम करक वेदविद्या प्राप्त करते हैं, वे विजयी होते हैं, और दम्भी पाखण्डी पण्डित मन्यमानी मनुष्य को विद्वान् लोग त्याग देते हैं, ऐसा निश्चय करना चाहिये ॥११॥

    टिप्पणी

    ११−(ये) विद्वांसः (एनाम्) वेदवाणीम् (वनिम्) सेवनीयाम् (आयन्ति) समन्तात् प्राप्नुवन्ति (तेषाम्) विदुषाम् (देवकृता) देवो विजिगीषा कृता साधिता यया सा (वशा) म० १। कमनीया वेदवाणी (ब्रह्मज्येयम्) ब्रह्म+ज्या वयोहानौ−यत्, आकारस्व ईत्वम्। ब्रह्माणो वेदविदो ज्येया हानियोग्या यस्य तं विदुषां हानिकरम् (तत्) वचनम् (अब्रुवन्) अकथयन् विद्वांसः (यः) मूर्खः (एनाम्) वेदवाणीम् (निप्रियायते) कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा० ३।१।१०। इति प्रिय−क्यङ्। नि नीचभावेन प्रिय इवाचरति ॥

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    विषय

    ब्रह्मज्येयम्

    पदार्थ

    १.(ये) = जो (एनाम्) = इस (वनिम् आयन्ति) = संभजनीय वेदवाणी को सब प्रकार से प्राप्त करते हैं, यह (देवकृता वशा) = प्रभु से उत्पन्न की गई कमनीय वेदवाणी (तेषाम्) = उनकी ही है। वेदवाणी उन्हें ही प्राप्त होती है, जो इसे चाहते हैं, २. परन्तु (यः एनाम्) = जो इस वेदवाणी को (निप्रियायते) = नीचभाव से [नि] अपना ही प्रिय धन मानकर छिपा रखता है, उसके (तत्) = उस कार्य को (ब्रह्मज्येयं अब्रुवन्) = ज्ञान का हिंसन कहते हैं [ज्या बयहानौ] । ज्ञान को पात्रों में देना ही उचित है। यही इस ज्ञानधन के रक्षण का उपाय है।

    भावार्थ

    ज्ञान के प्रबल इच्छुकों को ही यह वेदज्ञान प्राप्त होता है। पात्रों में इस ज्ञान का अदान, इस ज्ञान का हिंसन है।

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    भाषार्थ

    (ये) जो ब्रह्मज्ञ तथा वेदज्ञ व्यक्ति (एनाम् वनिम्) इस वेदवाणी के प्रचार की स्वतन्त्रता की याचना के लिये (आयन्ति) राजा के प्रति आते हैं, (तेषाम्) उन के लिये, (वशा) वेदवाणी (देवकृता) परमेश्वर देव ने आविर्भूत की है। (तद् अब्रुबन्) देव कोटि के व्यक्तियों ने यह कहा है कि (इयम्) यह वेदवाणी (ब्रह्मज्या) ब्रह्मवेत्ताओं तथा वेद वेत्ताओं के जीवन को हानि पहुंचाती है (यः) जो राजा कि (एनाम्) इस वेदवाणी को (निप्रियायते) नितरां निज प्रिया की तरह अपने स्वामित्व में रखता है।

    टिप्पणी

    [वनिम्=वनु याचने। वेदवाणी के प्रचार या न प्रचार का अधिकार, यदि राजा, अपने हाथ में रखता है तो इस से वेदज्ञों का जीवन कष्टमय हो जाता है। परमेश्वर ने तो ऐसे विद्वानों को प्रचारार्थ, वेद का अधिकार दिया हुआ है]।

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    विषय

    ‘वशा’ शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (ये) जो ब्राह्मण लोग (एनां वनिम्) इसको मांगने के लिये (आयन्ति) गऊ के स्वामी के पास आते हैं (दशा) वह वशा (तेषाम्) उनके लिये ही (देवकृता) ईश्वर ने बनाई है। (यः) जो गऊ का स्वामी (एनां) उसको (निप्रियायते) अपना ही प्रिय धन बना कर रख लेता है (तत्) उसके ऐसे कर्म को विद्वान् लोग (ब्रह्मज्येयम् अब्रुवन्) ब्राह्मणों के प्रति अत्याचार ही बतलाते हैं।

    टिप्पणी

    (च०) ‘नु प्रियायते’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha

    Meaning

    This holy speech is the gift of divinity for those who come to seek for the gift of it with freedom to propagate it for all. But if the ruler locks it up as his own cherished prerogative and denies to others the rightful access to it, this lock up and denial, they say, is an insult to Brahmanas and a sin against God.

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    Translation

    They who come to the winning of her, theirs is the godmade cow; they calle it brahman-scathing, if anyone keeps her to himself.

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    Translation

    Those Brahmanas who comes ask for this cow, really made by the natural power for their sake. He who retains this cow as his own and does not give as gift, on trages them (the Devas).

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    Translation

    The God-created Vedic knowledge belongs to those who come to ask for it. The learned call it an outrage on Vedic scholars when one retains Vedic knowledge as his own precious heritage.

    Footnote

    Vedas are meant for all. They are not the property of the selected. Everybody has the right to study them and acquire their knowledge.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ११−(ये) विद्वांसः (एनाम्) वेदवाणीम् (वनिम्) सेवनीयाम् (आयन्ति) समन्तात् प्राप्नुवन्ति (तेषाम्) विदुषाम् (देवकृता) देवो विजिगीषा कृता साधिता यया सा (वशा) म० १। कमनीया वेदवाणी (ब्रह्मज्येयम्) ब्रह्म+ज्या वयोहानौ−यत्, आकारस्व ईत्वम्। ब्रह्माणो वेदविदो ज्येया हानियोग्या यस्य तं विदुषां हानिकरम् (तत्) वचनम् (अब्रुवन्) अकथयन् विद्वांसः (यः) मूर्खः (एनाम्) वेदवाणीम् (निप्रियायते) कर्तुः क्यङ् सलोपश्च। पा० ३।१।१०। इति प्रिय−क्यङ्। नि नीचभावेन प्रिय इवाचरति ॥

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