अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 18
यो अ॑स्या॒ ऊधो॒ न वे॒दाथो॑ अस्या॒ स्तना॑नु॒त। उ॒भये॑नै॒वास्मै॑ दुहे॒ दातुं॒ चेदश॑कद्व॒शाम् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्या॒: । ऊध॑: । न । वेद॑ । अथो॒ इति॑ । अ॒स्या॒: । स्तना॑न् । उ॒त । उ॒भये॑न । ए॒व । अ॒स्मै॒ । दु॒हे॒ । दातु॑म् । च॒ । इत् । अश॑कत् । व॒शाम् ॥४.१८॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अस्या ऊधो न वेदाथो अस्या स्तनानुत। उभयेनैवास्मै दुहे दातुं चेदशकद्वशाम् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्या: । ऊध: । न । वेद । अथो इति । अस्या: । स्तनान् । उत । उभयेन । एव । अस्मै । दुहे । दातुम् । च । इत् । अशकत् । वशाम् ॥४.१८॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो [विद्वान्] (अस्याः) इस [वेदवाणी] के (ऊधः) सींचने को, (अथो उत) और भी (अस्याः) इसके (स्तनान्) गर्जन शब्दों [बड़े उपदेशों] को (न) अव [विद्या प्राप्त करके] (वेद) जानता है। वह [वेदवाणी] (उभयेन) दोनों [इस लोक और परलोक के सुख] से (एव) ही (अस्मै) इस [ब्रह्मज्ञानी] को (दुहे) भर देती है, (च, इत्=चेत्) जो (वशाम्) वशा [कामनायोग्य वेदवाणी] (दातुम् अशकत्) दे सका है ॥१८॥
भावार्थ
जब मनुष्य वेदों के पवित्र लाभों और उपदेशों को समझ लेता है और संसार में प्रकाश करता है, वह इस जन्म और दूसरे जन्म का आनन्द पाता है ॥१८॥
टिप्पणी
१८−(यः) विद्वान् (अस्याः) वेदवाण्याः (ऊधः) उन्दी क्लेदने−असुन्, पृषोदरादिरूपम्। सेचनम्। वर्धनम् (न) संप्रति−निरु० ७।३१। (वेद) जानाति (अथो) अपि च (अस्याः) (स्तनान्) स्तन मेघशब्दे−अच्। मेघशब्दान्। उच्चोपदेशान् (उत) एव (उभयेन) ऐहिकपारमार्थिकसुखद्वयेन (एव) अवधारणे (अस्मै) विदुषे (दुहे) दुग्धे। प्रपूरयति वशा (दातुम्) (चेत्) यदि (अशकत्) शक्तोऽभूत् (वशाम्) कमनीयां वेदवाणीम् ॥
विषय
ऊधः स्तनान्
पदार्थ
१. (यः) = जो (अस्या:) = इस वेदधेनु को (ऊधः न) = [Has, like] दुग्धाशय के समान समझता है। (उत अथो) = और अब (अस्या:) = इस वेदधेनु के (स्तनान) = स्तनों को वेद-जानता है। उन स्तनों से ज्ञानदुग्ध का दोहन करता है तो यह वेदधेनु (अस्मै) = इस दोग्धा के लिए (उभयेन एव) = इहलोक व परलोक दोनों के हेतु से (दुहे) = ज्ञानदुग्ध का प्रपूरण करती है। यह दोग्धा वेदधेनु से ज्ञानदुग्ध प्राप्त करके दोनों लोकों का कल्याण सिद्ध करता है। यह उसे अभ्युदय व नि:श्रेयस दोनों को प्राप्त करानेवाली होती है, परन्तु यह सब होता तभी है (चेत्) = यदि यह (वशाम्) = इस कमनीय वेदवाणी को (दातुं अशकत्) = औरों के लिए देने में समर्थ होता है।
भावार्थ
हम वेदधेनु के दुग्धाशय व स्तनों को प्राप्त करके ज्ञानदुग्ध का दोहन करें। इस ज्ञान को औरों के लिए देनेवाले बनें। यह ज्ञान हमें अभ्युदय व निःश्रेयस देनेवाला होगा।
भाषार्थ
(यः) जो (अस्याः) इस वशा अर्थात वेद माता के, तथा वेद प्रचारक की वाणी के (ऊधः) दुग्धाशय को (न, वेद) नहीं जानता, (अथ उ उत) और (अस्याः) इस के (स्तनान्) स्तनों को (न, वेद) नहीं जानता वह (चेत्) यदि (वशाम् दातुम्) वशा प्रदान करने को (अशकत्) शक्ति सम्पन्न या सामर्थ्य वाला हो जाय, तो वशा (उभयेन एव) दोनों अर्थात् दुग्धाशय तथा स्तनों द्वारा ही (अस्मै) इस के लिये (दुहे) दूध देने लगे।
टिप्पणी
[अभिप्राय यह है कि राजा अथवा राज्याधिकारी यह कहता है कि इस वशा-माता का न तो दुग्धाशय है और न स्तन हैं, अतः वशा निरुपयोगी हैं, राष्ट्र के लिये। परन्तु मन्त्र के उत्तरार्ध में यह कहा है कि वह यदि वशा के प्रचार की स्वतन्त्रता देने का सामर्थ्य रखे तो उसे ज्ञात हो जायेगा कि वशा के दुग्धाशय और स्तन हैं, और वह दूध देती है, प्रचार के लिये राष्ट्रोपयोगी है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित मन्त्रार्ध विशेष प्रकाश डालता है यथा- "अधेन्वा चरति माययैष वाचं शुश्रुवाँ अफलामपुष्पाम्" (ऋ० १०।७१।५)। इस पर यास्कमुनि लिखते हैं कि "अधेन्वा ह्येष चरति मायया वाक् प्रतिरूपया, नास्मै कामान् दुग्धे वाग्दोह्यान् देवमनुष्यस्थानेषु यो वाचं श्रुतवान् भवत्यफलामपुष्यामित्यफलास्मा अपुष्पा वाक् भवतीति वा किञ्चि त्पुष्पफलेति वा। अथ वाचः पुष्पफलमाह। याज्ञदैवते पुष्पफले, देवताध्यात्मे वा। (निरुक्त १।६।२०)। अर्थात् जिस ने वेदवाणी को केवल सुना ही है वह मायारूप अर्थात् कृत्रिम गौ के साथ विचरता है, जो कि अधेनु है, दूध नहीं दे रही, तथा ऐसे वृक्ष की सेवा करता है, जो कि फल और पुष्प नहीं दे रहा" (ऋ० १०।७१।५)। तथा “देवस्थान अर्थात् यज्ञों में, तथा मनुष्यस्थान अर्थात् पाठशाला आदि में जिसने केवल वेदवाणी सुनी ही है, परन्तु उस के फलों और पुष्पों को प्राप्त नहीं किया, अथवा स्वल्पमात्रा में फल-पुष्प प्राप्त किये हैं, वह न दूध देने वाली गौ के साथ विचरता है जो कि मायारूप है, वेदवाणी की प्रतिकृति मात्र है, वह इस श्रोता के लिये वाणी द्वारा दोहे जाने वाले काम्य पदार्थों को नहीं दोहती। वेदवाणी का अर्थ है पुष्प और फल, अर्थात् यज्ञ और देवता तथा परमेश्वर और जीवात्मा का ज्ञान। तथा "वृक्षो वेदः तस्य फलं प्रणवः" (आप० धर्मसूत्र?), अर्थात वृक्ष है वेद और उस का फल है प्रणव, अर्थात् परमेश्वर। इस प्रकार समुच्चित वेदवाणी है गौ, चार वेद है चार स्तन, और वेदों द्वारा प्राप्त ज्ञान है दुध। और प्रकार वशा अर्थात् वेदवाणी दुग्धाशय तथा स्तनों से रहित नहीं। अतः फल प्रदा है]।
विषय
‘वशा’ शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो गौ का स्वामी (अस्याः) उसके (ऊधः) ऊधस, थान को (अथो उत) और (अस्याः स्तनान्) इसके स्तनों को भी (न वेद) नहीं जानता (चेत्) यदि वह (दातुम्) दान करने में (अशकद्) समर्थ है तो वह (उभयेन एव) थान और स्तन दोनों से (अस्मै) अपने स्वामी को (दुहे) दुग्ध प्रदान करती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vasha
Meaning
If one, who does not know the treasure-hold of Vasha’s life giving wealth and the channels and media of the inflow of its vitality, were, fortunately, able to know both these gifts and he were able to give to the sagely teachers and scholars the freedom for the release of the flow of knowledge and speech to the community, Vasha would overflow his life with both light and vitality, in freedom, through the treasure and the media.
Translation
Whoever knows not the udder of her, and likewise the teats : of her; to him she yields milk with both, if he has been able to give the cow.
Translation
For the man who has not even the knowledge cows' udder and teats she yields milk with these two if he proposes to give the cow as a gift.
Translation
The man who after study knows the beauties and lofty teachings of this Vedic knowledge, gets from it, happiness in this life and the next, if he is prepared to bestow it on others.
Footnote
It: Vedic knowledge.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१८−(यः) विद्वान् (अस्याः) वेदवाण्याः (ऊधः) उन्दी क्लेदने−असुन्, पृषोदरादिरूपम्। सेचनम्। वर्धनम् (न) संप्रति−निरु० ७।३१। (वेद) जानाति (अथो) अपि च (अस्याः) (स्तनान्) स्तन मेघशब्दे−अच्। मेघशब्दान्। उच्चोपदेशान् (उत) एव (उभयेन) ऐहिकपारमार्थिकसुखद्वयेन (एव) अवधारणे (अस्मै) विदुषे (दुहे) दुग्धे। प्रपूरयति वशा (दातुम्) (चेत्) यदि (अशकत्) शक्तोऽभूत् (वशाम्) कमनीयां वेदवाणीम् ॥
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