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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 19
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
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    दु॑रद॒भ्नैन॒मा श॑ये याचि॒तां च॒ न दित्स॑ति। नास्मै॒ कामाः॒ समृ॑ध्यन्ते॒ यामद॑त्त्वा॒ चिकी॑र्षति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दु॒र॒द॒भ्ना । ए॒न॒म् । आ । श॒ये॒ । या॒चि॒ताम् । च॒ । न । दित्स॑ति । न । अ॒स्मै॒ । कामा॑: । सम । ऋ॒ध्य॒न्ते॒ । याम् । अद॑त्वा । चिकी॑र्षति ॥४.१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दुरदभ्नैनमा शये याचितां च न दित्सति। नास्मै कामाः समृध्यन्ते यामदत्त्वा चिकीर्षति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दुरदभ्ना । एनम् । आ । शये । याचिताम् । च । न । दित्सति । न । अस्मै । कामा: । सम । ऋध्यन्ते । याम् । अदत्वा । चिकीर्षति ॥४.१९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (दुरदभ्ना) कभी न दबनेवाली [वह वेदवाणी (एनम्) इस [मनुष्य] पर (आ शये) आ पड़ती है, (च) यदि वह (याचिताम्) माँगी हुई [वेदवाणी] को (न) नहीं (दित्सति) देना चाहता है। (अस्मै) इस [मनुष्य] के लिये (कामाः) वे कामनाएँ (न) नहीं (सम् ऋध्यन्ते) सिद्ध होती हैं, [जिन कामनाओं को] (याम् अदत्त्वा) जिस [वेदवाणी] के न देने पर (चिकीर्षति) पूरा करना चाहता है ॥१९॥

    भावार्थ

    वेदवाणी के प्रसिद्ध करने में जो लोग बाधा डालते हैं, उनकी कामनाएँ कभी पूरी नहीं होती हैं ॥१९॥

    टिप्पणी

    १९−(दुरदभ्ना) म० ४। कदापि नहि दम्भनीया पराजेयाः (एनम्) मनुष्यम् (आ शये) आशेते। प्राप्नोति (याचिताम्) प्रार्थिताम् (च) यदि (न) निषेधे (दित्सति) दातुमिच्छति (न) (अस्मै) (कामाः) अभिलाषा (समृध्यन्ते) संसिध्यन्ति (याम्) वेदवाणीम् (अदत्त्वा) (चिकीर्षति) कर्तुमिच्छति ॥

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    विषय

    दुरदभ्ना

    पदार्थ

    १. (दुरदभ्ना) = कभी न दबनेवाली यह वशा [वेदवाणी] (एनम्) = इस व्यक्ति में (आशये) = निवास करती है (च) = और फिर भी (याचितां न दित्सति) = माँगी हुई को यह देना नहीं चाहता, अर्थात् यदि कोई उस वेदज्ञान को प्राप्त करने के लिए उसके समीप आता है और यह उसे देता नहीं तो (अस्मै) = इसके लिए (कामाः न समृध्यन्ते) = इष्ट वस्तुएँ समृद्ध नहीं होती-इसकी कामनाएँ पूर्ण नहीं होती। २. (याम्) = जिस भी कामना को यह (अदत्त्वा) = वेदवाणी को न देकर (चिकीर्षति) = करना चाहता है, उसमें यह असफल ही हो जाता है। वेदवाणी का ज्ञान न देकर यदि यह किन्हीं अन्य व्यापार आदि में प्रवृत्त होता है, तो उसमें असफल ही हो जाता है।

    भावार्थ

    हमें वेदज्ञान प्राप्त हो तो हम उसके प्रसार के लिए सदा यत्नशील हों। इसका प्रसार न करके अन्य व्यापारों में प्रवृत्त होंगे तो हमारे वे व्यापार समृद्ध न होंगे।

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    भाषार्थ

    (दुरदभ्ना) दर्वाजों को तोड़ देने वाली वशा (एनम्) इस के समीप (आशये) सोई सी रहती है, जो कि (याचिताम्) मांगी गई को (न दित्सति) नहीं देना चाहता। (अस्मै) इस के लिए (कामाः) कामनाएं (न समृध्यन्ते) संमृद्ध नहीं होतीं, (याम्) जिस वशा को (अदत्त्वा) न देकर (चिकीर्षति) यह करना चाहता है।

    टिप्पणी

    [दुरदभ्ना=दुर (दर्वाजा)+दभ् (तोड़ना) तथा (मन्त्र ४)। मन्त्र में राजा का वर्णन "दित्सति" द्वारा हुआ है। वेदवाणी के प्रचार की स्वतन्त्रता न देने पर, स्वतन्त्रताभिलाषी व्यक्ति, राजा के निवास स्थान के दरवाजे तोड़ कर राजा पर आक्रमण कर देते हैं। दुरः= द्वार (अथर्व० २०।२१।२)। दुर=Door]।

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    विषय

    ‘वशा’ शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    वह ‘वशा’ (एनं) उस स्वामी के पास (दुरदभ्ना) कठिनता से वश में आने वाली होकर (आ शये) रहती है जो (याचिनां च) इसको मांगे जाने पर भी (न दित्सति) नहीं देना चाहता। (अस्मै) उसकी (कामाः) कामनाएं और मनोरथ (न समृद्ध्यन्ते) सम्पन्न, सफल नहीं होते (याम्) जिस वशा को (अदत्वा) दान न करके (चिकीर्षति) उसको अपने यहां पाले रखना चाहता है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘दुरितवीनपाशये’ [?] (तृ० च०) ‘कामः समृद्ध्यते यम’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha

    Meaning

    Vasha, universal light and vitality of life, is indomitable and indefatigable, but it lies dormant with that individual, community or ruler who is unwilling to give and propagate it freely. Whoever does not give it and yet wants to achieve the fruits of it, his desires and ambitions never fructify for him.

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    Translation

    Door-damaging lies she on him, if he is not willing to give her when asked for; he does not succeed in the desires which, without having given her, he would fain accomplish.

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    Translation

    If the master of the cow does not give her to Brahmana who begs for her, the cow remains with him uncontrolled. All the wishes and hopes which he cherishes by with holding this cow are in vain.

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    Translation

    Unavoidable adversity overtakes him, who does not like to part with Vedic knowledge even when it is asked for. His wishes and hopes are never fulfilled, which he would like to gain, withholding the Vedic knowledge.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १९−(दुरदभ्ना) म० ४। कदापि नहि दम्भनीया पराजेयाः (एनम्) मनुष्यम् (आ शये) आशेते। प्राप्नोति (याचिताम्) प्रार्थिताम् (च) यदि (न) निषेधे (दित्सति) दातुमिच्छति (न) (अस्मै) (कामाः) अभिलाषा (समृध्यन्ते) संसिध्यन्ति (याम्) वेदवाणीम् (अदत्त्वा) (चिकीर्षति) कर्तुमिच्छति ॥

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