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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 28
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
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    यो अ॑स्या॒ ऋच॑ उप॒श्रुत्याथ॒ गोष्वची॑चरत्। आयु॑श्च॒ तस्य॒ भूतिं॑ च दे॒वा वृ॑श्चन्ति हीडि॒ताः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒स्या॒: । ऋच॑: । उ॒प॒ऽश्रुत्य॑ । अथ॑ । गोषु॑ । अची॑चरत् । आयु॑: । च॒ । तस्य॑ । भूति॑म् । च॒ । दे॒वा: । वृ॒श्च॒न्ति॒ । ही॒डि॒ता: ॥४.२८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अस्या ऋच उपश्रुत्याथ गोष्वचीचरत्। आयुश्च तस्य भूतिं च देवा वृश्चन्ति हीडिताः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अस्या: । ऋच: । उपऽश्रुत्य । अथ । गोषु । अचीचरत् । आयु: । च । तस्य । भूतिम् । च । देवा: । वृश्चन्ति । हीडिता: ॥४.२८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 28
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अथ) यदि (यः) जिस [मनुष्य] ने (अस्याः) इस (ऋचः) स्तुतियोग्य वेदवाणी का (उपश्रुत्य) यथाविधि श्रवण करके (गोषु) इन्द्रियों में [इन्द्रियों के कुविषयों में अपने को] (अचीचरत्) चलाया है। (देवाः) देवता [विद्वान् लोग] (हीडिताः) क्रुद्ध होकर (तस्य) उस [पुरुष] का (आयुः) जीवन (च) और (भूतिम्) ऐश्वर्य (च) भी (वृश्चन्ति) काट देते हैं ॥२८॥

    भावार्थ

    जो विद्वान् वेदवाणी को जानकर कुविषयों में फँसता है, वह विद्वानों का क्रोधपात्र होकर संसार में उन्नति नहीं करता ॥२८॥

    टिप्पणी

    २८−(यः) पुरुषः (अस्याः) (ऋचः) स्तुत्याया वेदवाण्याः (उपश्रुत्य) यथाविधि श्रवणं कृत्वा (अथ) यदि (गोषु) इन्द्रियेषु। इन्द्रियाणां कुविषयेषु (अचीचरत्) चर गतिभक्षणयोः−णिच्, लुङ्। आत्मानं चालितवान् (आयुः) जीवनम् (च) (तस्य) पुरुषस्य (भूतिम्) ऐश्वर्यम् (च) अपि (देवाः) विद्वांसः (वृश्चन्ति) छिन्दन्ति (हीडिताः) हेडृ अनादरे क्रोधे च−क्त, ईकारश्छान्दसः। हेडते क्रुध्यतिकर्मा−निघ० २।१२। क्रुद्धाः सन्तः ॥

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    विषय

    आयुः च, भूतिं च

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (अस्या:) = इस वशा [वेदवाणी] की (ऋचः) = ऋचाओं को (उपश्रुत्य) = आचार्य के समीप सुनकर (अथ) = भी (गोषु अचीचरत्) = इन्द्रियों के विषय में कुटिल गतिवाला होता है-वेद पढ़कर भी विषयासक्त हो जाता है, तो (देवा:) = पृथिवी, जल, तेज, वायु व आकाश आदि देव (हीडिता:) = क्रुद्ध हुए-हुए (तस्य) = उस विषयासक्त पुरुष के (आयुः च भूतिम् च) = आयु और ऐश्वर्य को (वृश्चन्ति) = छिन्न कर डालते हैं। २. वेद पढ़कर भी विषयासक्ति मनुष्य को 'रावण' बना देती है। यह रावण ऐश्वर्य व आयु से भ्रष्ट हो जाता है।

    भावार्थ

    वेदाध्ययन के बाद भी यदि एक व्यक्ति विषय-प्रवण हो जाता है, तो वह अपने आयुष्य व ऐश्वर्य को नष्ट कर बैठता है।

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    भाषार्थ

    (यः) जो राजा (अस्याः) इस वशा अर्थात् वेदवाणी की (ऋचः) ऋचाओं को (उपश्रुत्य) सुन कर, (अव) फिर भी (गोषु) इन्द्रियों [के भोगों] में (अचीचरत्) विचरता रहता है, (तस्य) उस की (आयुः च, भूतिं च) आयु को और विभूति को– (हीड़िताः देवाः) अनादृत हुए देवजन (वृश्चन्ति) काट देते हैं।

    टिप्पणी

    [मन्त्र २७ में "अस्याः गोपतिः ऋचः" में "अस्याः" का अन्वय "गोपति" के साथ नहीं, अपितु "ऋचः" के साथ है, जैसा कि मन्त्र २८ में स्पष्ट है। गोषु=इन्द्रियेषु। यथा "गोः पशुः, इन्द्रियं, सुखं, किरणों, वज्रं, चन्द्रमा, भूमि, वाणी, जलं वा", "गमेर्डों" (उणा० २।६८, महर्षि देयानन्द)। देखो "वशाभोग” (१३)]।

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    विषय

    ‘वशा’ शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (यः) जो (अस्याः) उस वशा की (ऋचः) ऋचाएं, वेदमन्त्र या स्तुतियां (उपश्रुत्य) सुन कर (अथ) उसके बाद भी उस वशा को (गोषु) गौओं में ही (अचीरत्) चराया करता है (तस्य) उसकी (आयुः भूतिम् च) श्रायु और धन सम्पति को (हीडिताः) क्रोधित हुए (देवाः) देवगण विद्वान् पुरुष (वृश्चन्ति) नाश कर डालते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha

    Meaning

    Having heard and realised the Vasha, Vedic Voice, whoever the person that continues to roam around in the pleasure of the senses, the divinities feel offended and they uproot his life and his life’s wealth of prosperity.

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    Translation

    If any one, having overheard the verses of her, has men made her go about among his kine, both the life-time and the growth of him do the gods made wrathful, cut off.

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    Translation

    These mysterious natural and supranatural forces enraged (diverted from their natural ways) cut down the life and prosperity of that man who being the master of this cow, having here the verses of R.K allows the cow to move among his cows.

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    Translation

    He who hath studied the Vedas and still is a slave of passions, gets his life and his prosperity rent away by the learned in anger.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २८−(यः) पुरुषः (अस्याः) (ऋचः) स्तुत्याया वेदवाण्याः (उपश्रुत्य) यथाविधि श्रवणं कृत्वा (अथ) यदि (गोषु) इन्द्रियेषु। इन्द्रियाणां कुविषयेषु (अचीचरत्) चर गतिभक्षणयोः−णिच्, लुङ्। आत्मानं चालितवान् (आयुः) जीवनम् (च) (तस्य) पुरुषस्य (भूतिम्) ऐश्वर्यम् (च) अपि (देवाः) विद्वांसः (वृश्चन्ति) छिन्दन्ति (हीडिताः) हेडृ अनादरे क्रोधे च−क्त, ईकारश्छान्दसः। हेडते क्रुध्यतिकर्मा−निघ० २।१२। क्रुद्धाः सन्तः ॥

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