अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 13
यो अ॑स्य॒ स्याद्व॑शाभो॒गो अ॒न्यामि॑च्छेत॒ तर्हि॒ सः। हिंस्ते॒ अद॑त्ता॒ पुरु॑षं याचि॒तां च॒ न दित्स॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठय: । अ॒स्य॒ । स्यात् । व॒शा॒ऽभो॒ग: । अ॒न्याम् । इ॒च्छे॒त॒ । तर्हि॑ । स: । हिंस्ते॑ । अद॑त्ता । पुरु॑षम् । या॒चि॒ताम् । च॒ । न । दित्स॑ति ॥४.१३॥
स्वर रहित मन्त्र
यो अस्य स्याद्वशाभोगो अन्यामिच्छेत तर्हि सः। हिंस्ते अदत्ता पुरुषं याचितां च न दित्सति ॥
स्वर रहित पद पाठय: । अस्य । स्यात् । वशाऽभोग: । अन्याम् । इच्छेत । तर्हि । स: । हिंस्ते । अदत्ता । पुरुषम् । याचिताम् । च । न । दित्सति ॥४.१३॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(यः) जो मनुष्य (अस्य) अपनी (वशाभोगः) वेदवाणी का सुख पानेवाला (स्यात्) होना चाहे, (तर्हि) तब (सः) वह (अन्याम्) जीवन देनेवाली [वेदवाणी] को (इच्छेत) चाहे। (अदत्ता) न दी हुई [वेदवाणी] (पुरुषम्) [उस] पुरुष को (च) अवश्य (हिंस्ते) मार डालती है, [जो] (याचिताम्) माँगी हुई [वेदवाणी] को (न) नहीं (दित्सति) देना चाहता है ॥१३॥
भावार्थ
वेदविज्ञान को प्रीति से खोजता हुआ और प्रकाश करता हुआ मनुष्य सुख भोगता है, और जो उसकी प्रवृत्ति को रोकता है, वह आत्मा को संकुचित करने से दुःख पाता है ॥१३॥
टिप्पणी
१३−(यः) पुरुषः (अस्य) स्वकीयस्य (स्यात्) भवेत् (वशाभोगः) वशायाः कमनीयाया वेदवाण्या भोगः सुखानुभवो यस्य सः (अन्याम्) माछाशसिभ्यो यः। उ० ४।१०९। अन जीवने−यः। जीवयित्रीम्। जीवनदात्रीम् (इच्छेत) प्रीणीयात् (तर्हि) तदा सः (हिंस्ते) नाशयति (अदत्ता) वेदवाणी (पुरुषम्) (याचिताम्) प्रार्थिताम् (च) अवश्यम् (न) निषेधे (दित्सति) दातुमिच्छति ॥
विषय
वशाभोग:
पदार्थ
१. (य:) = जो (अस्य) = इस (वशाभोग: स्यात्) = कमनीय वेदवाणी का पालन [ भुज् पालने] हो ऐसा चाहे, अर्थात् यदि यह अपने समीप वेदवाणी का रक्षण चाहे, (तर्हि) = तो (स:) = वह (अन्याम्) = जीवन का पालन करनेवाली दूसरी वृत्ति [जीविका] को (इच्छेत्) = चाहे । वेदवाणी को जीविका-प्राप्ति का साधन न बनाये। २. (यचितां च) = माँगी हुई वृत्ति को भी (न दित्सति) = यदि यह देना नहीं चाहता, तो अदत्ता न दी हुई यह वेदवाणी (पुरुषं हिंस्ते) = उस वेदज्ञ पुरुष को हिंसित कर देती है।
भावार्थ
वेदज्ञ पुरुष को चाहिए कि वेदज्ञान के इच्छुक के लिए वेदवाणी को दे ही। वह इसे आजीविका-प्राप्ति का साधन न बनाये। यदि वेदज्ञ वेदज्ञान को औरों के लिए नहीं देता तो वह बेदज्ञान उसका ही हिंसन कर देता है।
भाषार्थ
(अस्य) इस राजा का (यः वशा भोगः) वेदवाणी द्वारा सम्पन्न जो भोग (स्यात्) हो, (तर्हि) तो (सः) वह राजा (अन्याम्) अन्य रीति को (इच्छेत) अपनाने की इच्छा करे। (अदत्ता) न दी गई (पुरुषम्) राज पुरुष की (हिंस्ते) हिंसा कर देती है, जोकि (याचिताम्) याचना की गई को (न दित्सति) नहीं देना चाहता।
टिप्पणी
[भोगों की अन्य रीति=अपनी मिल्ल लगाना लेना, टैक्स नए लगा देना, व्यापार आदि। वेदवाणी के प्रचार पर प्रतिबन्ध१ लगा कर राजा निजभोगों के सम्पादन की इच्छा न करे, क्योंकि वेद प्रचार न होने से प्रजाएं और सन्तान प्रशस्त नहीं हो सकतीं। विशेष:–(१) मन्त्रों में "ब्रह्मभ्यः, आर्षेयेभ्यः, ब्राह्मणानां, देवानाम्" में बहुवचन, और "गाम्” में एक वचन होने से, एक गौ के लिये बहुतों की मांग प्रतीत होती है। यदि "गौ" का अर्थ "गोप्राणी" किया जाये तो राजा किस को गौ दे, यह राजा के निश्चय के लिये प्रश्न पैदा हो जायेगा। यदि गौ का अर्थ वेदवाणी और उस के प्रचार के लिये ब्राह्मणों को वाणी प्रयोग का स्वातन्त्रय दिया जाये तो कोई कठिनाई पैदा नहीं हो सकती। (२) ब्राह्मणाम्, देवानाम्" में भेद यह है कि जो तो वेद प्रचार करना चाहते हैं उन्हें तो मन्त्रों में ब्राह्मण शब्दों द्वारा निर्दिष्ट किया है, और जो वेदवाणी के भक्त तो हैं, परन्तु उस के प्रचार में रुचि नहीं रखते उन्हें इन मन्त्रों में देव शब्दों द्वारा निर्दिष्ट किया है]। [१. प्रतिबन्ध=निरोधव (मन्त्र १५)। राजा वेदवाणी के प्रचार पर प्रतिबन्ध इसलिये लगाता है कि इस के प्रचार द्वारा उस के निजभोग कहीं समाप्त न हो जायें, क्योंकि वेदवाणी तो "तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः, मा गृधः" का उपदेश देती है (यजु० ४०।१)।]
विषय
‘वशा’ शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(यः) जो (अस्य) इस गौ के स्वामी का (वशाभोगः) उस ‘वशा’ द्वारा कोई भोग या निज स्वार्थ प्रयोजन सिद्ध होता है तो उसके लिये (सः) वह (अन्याम् इच्छेत्) और दूसरी गौ को प्राप्त करे क्योंकि ‘वशा’ (अदत्ता) यदि दान न की जाय तो (पुरुषं) उस पुरुष को या गऊ के मालिक को (हिंस्ते) मार देती है (च) और उसको भी मार देती है जो (याचितां) मांगी गई ‘वशा’ को भी (न दित्सति) नहीं देना चाहता है।
टिप्पणी
(प्र० द्वि० तृ०) यस्या न्यस्याद् वशा भोगोऽन्यामिच्छेतु बर्हिषः’। ‘हिंसानिधन्स्वगोपतिम्’ इति पैप्प० सं० (तृ०) ‘पूरुषम्’ इति ह्विटनिकामितः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vasha
Meaning
If a person wants to enjoy the pleasure of the Vasha cow, holy speech of divinity, he should have the pleasure some other way than locking it up for himself and arresting its free movement for others, because when someone is unwilling to give it for others when it is asked for, then, refused and hoarded, it destroys the custodian himself.
Translation
Whatever may be his use for the cow, he should then seek another; she ungiven, harms a man, if he is not willing to give her when asked for.
Translation
The master of the cow, for whatever profit he has to draw from her should seek another cow. The cow not given when asked for harms the man who does not give her.
Translation
He who wants to derive full advantage from this Vedic knowledge should aspire after this life-infusing knowledge. This knowledge, not given, harms a man, who does not impart it to others when they ask for it.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
१३−(यः) पुरुषः (अस्य) स्वकीयस्य (स्यात्) भवेत् (वशाभोगः) वशायाः कमनीयाया वेदवाण्या भोगः सुखानुभवो यस्य सः (अन्याम्) माछाशसिभ्यो यः। उ० ४।१०९। अन जीवने−यः। जीवयित्रीम्। जीवनदात्रीम् (इच्छेत) प्रीणीयात् (तर्हि) तदा सः (हिंस्ते) नाशयति (अदत्ता) वेदवाणी (पुरुषम्) (याचिताम्) प्रार्थिताम् (च) अवश्यम् (न) निषेधे (दित्सति) दातुमिच्छति ॥
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