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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
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    यो अ॑स्याः॒ कर्णा॑वास्कु॒नोत्या स दे॒वेषु॑ वृश्चते। लक्ष्म॑ कुर्व॒ इति॒ मन्य॑ते॒ कनी॑यः कृणुते॒ स्वम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । अ॒स्या॒: । कर्णौ॑ । आ॒ऽस्कु॒नोति॑ । आ । स: । दे॒वेषु॑ । वृ॒श्च॒ते॒ । लक्ष्म॑ । कु॒र्वे॒ । इति॑ । मन्य॑ते । कनी॑य: । कृ॒णु॒ते॒ । स्वम् ॥४.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अस्याः कर्णावास्कुनोत्या स देवेषु वृश्चते। लक्ष्म कुर्व इति मन्यते कनीयः कृणुते स्वम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । अस्या: । कर्णौ । आऽस्कुनोति । आ । स: । देवेषु । वृश्चते । लक्ष्म । कुर्वे । इति । मन्यते । कनीय: । कृणुते । स्वम् ॥४.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यः) जो मनुष्य (अस्याः) इस [वेदवाणी] के (कर्णौ) दो विज्ञानों [अभ्युदय और निःश्रेयस अर्थात् तत्त्वज्ञान और मोक्षज्ञान] को (आस्कुनोति) ढक देता है, (सः) वह (देवेषु) स्तुतियोग्य गुणों में (आ) सब ओर से (वृश्चते) कतर जाता है। “(लक्ष्म) प्रधान कर्म (कुर्वे) मैं करता हूँ”−(इति) ऐसा [जो] (मन्यते) मानता है, वह [पुरुष] (स्वम्) अपना सर्वस्व (कनीयः) अधिक थोड़ा (कृणुते) करता है ॥६॥

    भावार्थ

    जो नास्तिक पाखण्डी मनुष्य वेदवाणी के तत्त्वज्ञान और मोक्षज्ञान को न मानकर आडम्बर रचता है, वह तुच्छ हो जाता है ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(यः) पुरुषः (अस्याः) वेदवाण्याः (कर्णौ) कॄवृजॄ०। उ० ३।१–०। कॄ विक्षेपे हिंसने विज्ञाने च−न प्रत्ययो मित्। अभ्युदयनिःश्रेयसबोधौ (आस्कुनोति) स्कुञ् आप्रवणे आच्छादने। समन्तादाच्छादयति (आ) समन्तात् (सः) (देवेषु) स्तुत्यगुणेषु (वृश्चते) छिद्यते (लक्ष्म) लक्ष दर्शनाङ्कनयोः−मनिन्। प्रधानत्वम् (कुर्वे) करोमि (इति) (मन्यते) जानाति (कनीयः) अल्प−ईयसुन्। अल्पतरम् (कृणुते) करोति (स्वम्) सर्वस्वम् ॥

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    विषय

    वेदज्ञता के आडम्बर का अभाव

    पदार्थ

    १. (यः) = जो (अस्या:) = इस वेदवाणी के (कर्णौ आस्कुनोति) = [निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते] निर्वचनरूप कानों को आवृत किये रखता है, अर्थात् वेदशब्दों का निवर्चन नहीं करता, (सः) = वह (देवेषु) = विद्वानों में (आवृश्चते) = छिन्न हो जाता है। इस व्यक्ति का परिगणन विद्वानों में नहीं रहता, चूँकि निर्वचन के अभाव में यह वेदों का असंगत अर्थ करता है। २. जो व्यक्ति (लक्ष्म कर्वे इति मन्यते) = ऐसा समझता है कि मैं इस वेदवाणी को अपना 'चिह्न' [पदवी] बनाता है, अर्थात् जो वेदवाणी को पढ़ने के स्थान पर उसका आडम्बर अधिक करता है, वह (स्वं कनीयः कृणुते) = अपने बास्तविक ऐश्वर्य को न्यून करता है। दिखावे से उसकी वेदज्ञता कलंकित हो जाती है।

    भावार्थ

    हमें निर्वचन द्वारा वेदशब्दों के मर्म को समझने का प्रयत्न करना चाहिए। वेदजता के आडम्बर की अपेक्षा वेद को समझने का अधिक प्रयत्न करना चाहिए तभी हम देव बनेंगे।

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    भाषार्थ

    (यः) जो [गोपति् अर्थात् पृथिवीपति] (अस्याः) ब्रह्मज्ञ की इस वाणी के सम्बन्ध के (कर्णौ) कानों को (आस्कुनोति) अपने और झुकाने का यत्न करता है, (सः) वह (देवेषु) देवसंघ में (वृश्चते) अपने-आप को पृथक् कर लेता है। और जो (इति मन्यते) यह मानता है कि (लक्ष्म कुर्वे) मैं इन का केवल दर्शन करता हूं वह देवसंघ में (स्वम्) अपने आप को (कनीयः) छोटा (कुरुते) कर लेता है।

    टिप्पणी

    [कर्णौ=वाणी सम्बन्धी दो कान हैं, दो प्रकार के श्रोतृवर्ग। प्रजाऔं में कई तो राजपक्ष के लोग होते हैं और कई प्रजा के नेतृपक्ष के। राजा दोनों पक्षों के नेताओं की वक्तृताओं को सुनता है, मानो ये दोनों पक्षों के लोग दो कान रूप हैं। कान सुनते हैं। सुनने के कारण इन्हें कान कहा है। जैसे "षट्कर्णो भिद्यते मन्त्रः” (पञ्चतन्त्र १।९९), में मन्त्र का विशेषण है "षट्कर्णः" इसी प्रकार "अस्याः कर्णौ" में वाणी के दो कर्ण कहे हैं]।

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    विषय

    ‘वशा’ शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (यः) जो (अस्याः) इस वशा के (कर्णों) दोनों कानों को (आस्कुनोति) पीड़ित करता है (सः) वह (देवेषु) देवों, विद्वानों के ऊपर (आवृश्चते) प्रहार करता है। और जो वशा के कानों पर गर्म सलाख या चाकू कैंची से उसका कान काट कर या दागकर (मन्यते) केवल यह समझता है (इति) कि (लक्ष्म कुर्वे) मैं केवल उस गाय को पहचानने के लिये चिह्नमात्र करता हूं तो वह भी (स्वम्) अपने धनको (कनीयः कृणुते) स्वल्प कर लेता है, कम कर लेता है।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘योऽस्या कर्णावास्कनोति’ (तृ०) ‘लक्ष्मीः कुर्वीत’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha

    Meaning

    He who tries to bend its ears, i.e., twists the sense of the Voice, to suit himself, isolates himself from the wise and the learned. And he that believes that he has had a glimpse of it and there is no need for more reduces his identity to something too small.

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    Translation

    Whoever punches the two ears of her, he falls under the wrath of the gods; if he thinks "I am making a mark", he makes his Possessions less.

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    Translation

    He who troubles the ears of this cow makes us assault on the learned pearned persons (and Yajna-devas). He thinks he is making thus a mark but he diminishes his wealth by this act.

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    Translation

    Whover hides the two sorts of knowledge of the Vedic speech, is separated from laudable qualities. If he deems, he is thereby doing a praiseworthy act, he lowers his dignity.

    Footnote

    Two sorts: अय्युदय and नि: श्रेयम् I.e temporal and spiritual Atheists and heretics who have no belief in the elevating worldly and spiritual knowledge of the Vedas, belittle and lower themselves.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(यः) पुरुषः (अस्याः) वेदवाण्याः (कर्णौ) कॄवृजॄ०। उ० ३।१–०। कॄ विक्षेपे हिंसने विज्ञाने च−न प्रत्ययो मित्। अभ्युदयनिःश्रेयसबोधौ (आस्कुनोति) स्कुञ् आप्रवणे आच्छादने। समन्तादाच्छादयति (आ) समन्तात् (सः) (देवेषु) स्तुत्यगुणेषु (वृश्चते) छिद्यते (लक्ष्म) लक्ष दर्शनाङ्कनयोः−मनिन्। प्रधानत्वम् (कुर्वे) करोमि (इति) (मन्यते) जानाति (कनीयः) अल्प−ईयसुन्। अल्पतरम् (कृणुते) करोति (स्वम्) सर्वस्वम् ॥

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