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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 47
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
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    त्रीणि॒ वै व॑शाजा॒तानि॑ विलि॒प्ती सू॒तव॑शा व॒शा। ताः प्र य॑च्छेद्ब्र॒ह्मभ्यः॒ सोना॑व्र॒स्कः प्र॒जाप॑तौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्रीणि॑ । वै । व॒शा॒ऽजा॒तानि॑ । व‍ि॒ऽलि॒प्ती । सू॒तऽव॑शा। व॒शा । ता: । प्र । य॒च्छे॒त् । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । स: । अ॒ना॒व्र॒स्क: । प्र॒जाऽप॑तौ ॥४.४७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्रीणि वै वशाजातानि विलिप्ती सूतवशा वशा। ताः प्र यच्छेद्ब्रह्मभ्यः सोनाव्रस्कः प्रजापतौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्रीणि । वै । वशाऽजातानि । व‍िऽलिप्ती । सूतऽवशा। वशा । ता: । प्र । यच्छेत् । ब्रह्मऽभ्य: । स: । अनाव्रस्क: । प्रजाऽपतौ ॥४.४७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 47
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (त्रीणि) तीन [कर्म, उपासना, ज्ञान] (वै) ही (वशाजातानि) कामनायोग्य [वेदवाणी] के प्रसिद्ध कर्म हैं, (विलिप्ती) वह विशेष वृद्धिवाली (सूतवशा) उत्पन्न जगत् को वश में करनेवाली, (वशा) कामनायोग्य [वेदवाणी] है। (सः) वह [विद्वान्] (प्रजापतौ) प्रजापालक [परमेश्वर] में (अनाव्रस्कः) अच्छेद्य [अति दृढ़] होकर (ताः=ताम्) उसे (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मचारियों को (प्र यच्छेत्) दान करे ॥४७॥

    भावार्थ

    मनुष्य सर्वनियन्त्री वेदवाणी द्वारा कर्म, उपासना, ज्ञान प्राप्त करके आस्तिक बुद्धि से ब्रह्मचारियों को विद्या दान करे ॥४७॥

    टिप्पणी

    ४७−(त्रीणि) कर्मोपासनाज्ञानानि (वै) एव (वशाजातानि) वशायाः कमनीयाया वेदवाण्याः प्रसिद्धकर्माणि (विलिप्ती) म० ४१। विशेषवृद्धियुक्ता (सूतवशा) म० ४४। उत्पन्नस्य जगतो वशयित्री (वशा) कमनीया वेदवाणी (ताः) एकवचनस्य बहुवचनम्। ताम् (प्र) (यच्छेत्) दद्यात् (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मचारिभ्यः (अनाव्रस्कः) नञ्+आङ्+ओव्रश्चू छेदने−घञ्। चजोः कु घिण्ण्यतोः। पा० ७।३।५२। इति कुत्वम्। अच्छेद्यः। सुदृढः (प्रजापतौ) जीवानां पालके परमेश्वरे ॥

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    विषय

    [विलिसी सूतवशा वशा] अनाव्रस्कः

    पदार्थ

    १. (ब्रीणि) = तीन (वै) = निश्चय से (वशाजातानि) = इस कमनीया वेदवाणी के प्रादुर्भाव हैं। यह 'ऋग, यजुः, साम' रूप से प्रादुर्भूत होकर हमारे जीवनों में विज्ञान, कर्म व उपासना का विकास करती है। विज्ञान के द्वारा यह (विलिप्ती) = विशेषरूप से हमारी शक्तियों का उपचय करती है। विज्ञान द्वारा प्रकृति के ठीक प्रयोग से हमारी शक्तियों का विस्तार होता है। यजुः द्वारा विविध यज्ञों का उपदेश देती हुई यह हमें निरन्तर कर्मों में प्रेरित किये रखती है। मनुष्य अपनी इन्द्रियों को निरन्तर यज्ञों में प्रवृत्त रखता हुआ 'सूत' [नियन्ता] बनता है। इन इन्द्रियों को नियन्त्रित रख पाने से ही वस्तुत: यह वेदवाणी को प्राप्त कर पाता है। यह (सूतवशा) = नियन्ता के ही वश में होनेवाली है। अन्ततः साम द्वारा उपासना में प्रवृत्त करके यह हमें प्रभु के समीप पहुँचाती है। प्रभु के समीप पहुँचकर हम प्रभु-जैसे ही बनते हैं, अतएव यह वेदवाणी (वशा) = कमनीया चाहने योग्य है। २. मनुष्य को चाहिए कि (ता:) = उन वेदवाणियों को स्वयं प्राप्त करके (ब्रह्मभ्यः) = ब्रह्मचारियों के लिए (प्रयच्छेत्) = देनेवाला बने। स:-वह वेदवाणी का औरों के लिए देनेवाला व्यक्ति प्रजापती-उस प्रजापति प्रभु में (अनाव्रस्कः) = अच्छेद्य होता है। यह प्रभु से दण्डनीय नहीं होता।

    भावार्थ

    वेदवाणी हमारे जीवनों में 'ज्ञान, कर्म व उपासना का विकास करती है। मनुष्य इन वेदवाणियों को प्राप्त करके इनका ज्ञान औरों के लिए देनेवाला बने तभी यह प्रभु से दण्डनीय नहीं होता।

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    भाषार्थ

    (वशा जातानि) वशा अर्थात् वाणियों के भेद (वै) निश्चय से (त्रीणि) त्रिविध है, विलिप्ती, सूतवशा, तथा वशा। (ताः) उन्हें राजन्य (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मवेत्ताओं के प्रति (प्रयच्छेत्) सौंप दे, (सः) इस से वह राजन्य (प्रजापतौ) प्रजाओं के पति परमेश्वर की दृष्टि में (अनाव्रस्कः) छिन्न-भिन्न नहीं होता।

    टिप्पणी

    [अनाव्रस्कः=अन्+आ+व्रश्चू छेदने। व्याख्या (मन्त्र ४४]।

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    विषय

    ‘वशा’ शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (त्रीणि) तीन (वै) ही (वशाजातानि) वशा के प्रकार या प्रभेद हैं (विलिप्ती) ‘विलिप्ती’ (सूतवशा) ‘सूतवशा’ और (वशा) ‘वशा’। (ताः) उन तीनों को (यः) जो (ब्रह्मभ्यः) ब्राह्मणों को (प्रयच्छेत्) प्रदान करता है (सः) वह (प्रजापतौ) प्रजापति के प्रति (अनाव्रस्कः) कोई अपराध नहीं करता।

    टिप्पणी

    (द्वि०) ‘विलुप्तीः’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha

    Meaning

    Three are the kinds and orders of Vasha, life- giving spirit of knowledge and freedom: Vilipti, consecrated sublime blest by Divinity for saints and sages, Sutavasha, controller of selfish passions and licentious living, and Vasha, discipline and law for healthy living in family and societyThese the ruler should provide to the scholars, sages and leaders of humanity dedicated to Divinity. Such a ruler, such a person, would not feel isolated and alienated in the world of Prajapati, lord creator, father, ruler and sustainer of life and humanity.

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    Translation

    Three verily are the kinds of cow; the vilipti, she that has given birth to (such) a cow, the (simple) cow; these one should present to the priests (then) he falls not under the wrath of Prajapati.

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    Translation

    These are three kinds of cows- Vilipti, one yielding more ghee, Sutavasha, one which produces vasha; Vasha, one which is controllable. He who gives these cows to Brahmanas become unsacrilegious before the Lord of creation.

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    Translation

    Three are well-known teaching of the Vedic knowledge which is highly developed, the controller of the created world, and a beautiful force. He who bestows it on the Brahmcharis does not offend God.

    Footnote

    Three teachings: Action (Karma) Contemplation (Upasana) Knowledge (Gyana).

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ४७−(त्रीणि) कर्मोपासनाज्ञानानि (वै) एव (वशाजातानि) वशायाः कमनीयाया वेदवाण्याः प्रसिद्धकर्माणि (विलिप्ती) म० ४१। विशेषवृद्धियुक्ता (सूतवशा) म० ४४। उत्पन्नस्य जगतो वशयित्री (वशा) कमनीया वेदवाणी (ताः) एकवचनस्य बहुवचनम्। ताम् (प्र) (यच्छेत्) दद्यात् (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मचारिभ्यः (अनाव्रस्कः) नञ्+आङ्+ओव्रश्चू छेदने−घञ्। चजोः कु घिण्ण्यतोः। पा० ७।३।५२। इति कुत्वम्। अच्छेद्यः। सुदृढः (प्रजापतौ) जीवानां पालके परमेश्वरे ॥

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