अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 36
सर्वा॒न्कामा॑न्यम॒राज्ये॑ व॒शा प्र॑द॒दुषे॑ दुहे। अथा॑हु॒र्नार॑कं लो॒कं नि॑रुन्धा॒नस्य॑ याचि॒ताम् ॥
स्वर सहित पद पाठसर्वा॑न् । कामा॑न्। य॒म॒ऽराज्ये॑ । व॒शा । प्र॒ऽद॒दुषे॑ । दु॒हे॒ ।अथ॑ । आ॒हु॒: । नर॑कम् । लो॒कम् । नि॒ऽरु॒न्धा॒नस्य॑ । या॒चि॒ताम् ॥४.३६॥
स्वर रहित मन्त्र
सर्वान्कामान्यमराज्ये वशा प्रददुषे दुहे। अथाहुर्नारकं लोकं निरुन्धानस्य याचिताम् ॥
स्वर रहित पद पाठसर्वान् । कामान्। यमऽराज्ये । वशा । प्रऽददुषे । दुहे ।अथ । आहु: । नरकम् । लोकम् । निऽरुन्धानस्य । याचिताम् ॥४.३६॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(वशा) वशा [कामनायोग्य वेदवाणी] (यमराज्ये) न्यायकारी [परमेश्वर] के राज्य में (प्रददुषे) अपने बड़े दानी के लिये (सर्वान्) सब (कामान्) श्रेष्ठ कामनाएँ (दुहे) पूरी करती है। (अथ) और (याचिताम्) उस माँगी हुई को (निरुन्धानस्य) रोकनेवाले का (लोकम्) लोक [घर] (नरकम्) नरक [महाकष्टस्थान] (आहुः) वे [विद्वान्] बताते हैं ॥३६॥
भावार्थ
जो मनुष्य परमात्मा की व्यवस्था समझ कर वेदवाणी का प्रकाश करते हैं, वे अपने सब अभीष्ट सुख पाते हैं, और उसके रोकनेवाले मूर्ख अज्ञान बढ़ने से क्लेश में पड़ते हैं ॥३६॥
टिप्पणी
३६−(यमराज्ये) न्यायकारिणः परमेश्वरस्य राज्यनियमे (अथ) पुनः (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (नरकम्) नृणाति क्लेशं प्रापयतीति नरकः। कृञादिभ्यः संज्ञायां वुन्। उ० ५।३५। नॄ नये−वुन्। सांहितिको दीर्घः। महाक्लेशस्थानम् (लोकम्) गृहम् (निरुन्धानस्य) प्रतिरोधकस्य (याचिताम्) प्रार्थितां ताम्। अन्यत् पूर्ववत्−अ० ३५ ॥
विषय
नारकं लोकं
पदार्थ
१. यह (वशा) = कमनीया वेदवाणी (यमराज्ये) = इस नियन्ता प्रभु के राज्य में (प्रददुषे) = वेदवाणी को औरों को देनेवाले के लिए (सर्वान् कामान् दुहे) = सब इष्ट [काम्य] पदार्थों का दोहन [प्रपूरण] करती है। २. (अथ) = इसके विपरीत अब (याचिताम्) = माँगी हुई भी वेदवाणी को (निसन्धानस्य) = रोकनेवाले के (नारकं लोकं आहुः) = नरकलोक को कहते हैं, अर्थात् इस वशा के निरोधक को नरक की प्राप्ति होती है-इसकी दुर्गति होती है।
भावार्थ
नियन्ता प्रभु के राज्य में जो वेदवाणी को औरों के लिए प्रास कराता है, उसकी सब इष्ट कामनाएं पूर्ण होती हैं और मांगने पर भी न देनेवाले को नरक की प्राप्ति होती है।
भाषार्थ
(यमराज्ये) यम नियमों का पालन कराने वाले नियन्ता राजा के राज्य में वशा अर्थात् वेदवाणी (प्रददुषे) वेदवाणी के प्रचार की स्वतन्त्रता प्रदान करने वाले के लिये (सर्वान् कामान्) सब कामनाओं का (दुहे) दोहन करती है। (अथ) और (याचिताम्) मांगी हुई को (निरुन्धानस्य) रोक देने वाले के लिये (नारकम्, लोकम्) नरक समान लोक (आहुः) कहते हैं।
विषय
‘वशा’ शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(यम-राज्ये) यम नियन्ता राजा के राज्य में (वशा) ‘वशा’ (प्रदुदुषे) अपने को उत्तम पात्र में प्रदान करने हारे के लिये (सर्वान् कामान्) समस्त मनोऽभिलषित फलों को (दुहे) उत्पन्न करती है। (अथा) और (याचिताम्) याचना करने पर भी भोगी गई उस वशा को (निरुन्धानस्य) याचक के प्रति दान न देकर, रोक रखने वाले के लिये (नारकं लोकम्) विद्वान् पुरुष ‘नारक’ = निकृष्ट—नीच पुरुषों से पूर्ण लोक ही उसके योग्य (आहुः) बतलाते हैं।
टिप्पणी
(तृ०) ‘तथाडु’ इति पैप्प० सं०। १. ‘नरकम्’। इति पदपाठः।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vasha
Meaning
Mother Vasha fulfils all desires of the generous man of open mind with love of freedom in the dominion of the ruler and dispenser of law, justice and freedom. And the wise say that the world is an insufferable hell under the rule of a person who blocks the spread of knowledge and denies the basic needs of life and freedom of speech to those who rightfully seek and ask for it.
Translation
All his desires, in Yama’s realm, does- the cow yield to him who has presented her; likewise they call hell the world of him who keeps her back when asked for.
Translation
In the kingdom of All-controlling God, the vasha fulfills all the wishes of this giver. But rests assigned for him the hall (state of unhappiness) who retains with him the cow asked for, say the men of wisdom.
Translation
According to the law of God, the laudable Vedic knowledge fulfils all the wishes of its giver. The learned call the house him a place of misery, who does not impart it, even when it is asked for.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३६−(यमराज्ये) न्यायकारिणः परमेश्वरस्य राज्यनियमे (अथ) पुनः (आहुः) कथयन्ति विद्वांसः (नरकम्) नृणाति क्लेशं प्रापयतीति नरकः। कृञादिभ्यः संज्ञायां वुन्। उ० ५।३५। नॄ नये−वुन्। सांहितिको दीर्घः। महाक्लेशस्थानम् (लोकम्) गृहम् (निरुन्धानस्य) प्रतिरोधकस्य (याचिताम्) प्रार्थितां ताम्। अन्यत् पूर्ववत्−अ० ३५ ॥
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