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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 8
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
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    यद॑स्या॒ गोप॑तौ स॒त्या लोम॒ ध्वाङ्क्षो॒ अजी॑हिडत्। ततः॑ कुमा॒रा म्रि॑यन्ते॒ यक्ष्मो॑ विन्दत्यनाम॒नात् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒स्या॒: । गोऽप॑तौ । स॒त्या: । लोम॑ । ध्वाङ्क्ष॑: । अजी॑हिडत् । तत॑: । कु॒मा॒रा: । म्रि॒य॒न्ते॒ । यक्ष्म॑: । वि॒न्द॒ति॒ । अ॒ना॒म॒नात् ॥४.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदस्या गोपतौ सत्या लोम ध्वाङ्क्षो अजीहिडत्। ततः कुमारा म्रियन्ते यक्ष्मो विन्दत्यनामनात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अस्या: । गोऽपतौ । सत्या: । लोम । ध्वाङ्क्ष: । अजीहिडत् । तत: । कुमारा: । म्रियन्ते । यक्ष्म: । विन्दति । अनामनात् ॥४.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यत्) यदि (गोपतौ) वेदवाणी के रक्षक [ब्रह्मचारी] में (सत्याः) वर्तमान (अस्याः) इस (वेदवाणी) के (लोम) गमन को (ध्वाङ्क्षः) काँव-काँव करनेवाले [कौवे समान दुष्ट मनुष्य] ने (अजीहिडत्) तुच्छ माना है। (ततः) उस कारण से (कुमाराः) कुमार [शत्रुमारक बालक] (म्रियन्ते) मर जाते हैं, और (अनामनात्) यथावत् न विचारने से [उस कुमार्गी को] (यक्ष्मः) राजरोग (विन्दति) पकड़ लेता है ॥८॥

    भावार्थ

    जब कुकर्मी मनुष्य सर्वरक्षक वेद आज्ञा से उलटा चलता है, वह आप और उसके बच्चे आदि महा विपत्ति में पड़ते हैं ॥८॥

    टिप्पणी

    ८−(यत्) यदि (अस्याः) वेदवाण्याः (गोपतौ) म० ४। गोर्वेदवाण्या रक्षके ब्रह्मचारिणि (सत्याः) वर्तमानायाः (लोम) नामन्सीसन्व्योमन्रोमन्लोमन्०। उ० ४।१५१। रु गतौ−मनिन् रस्य लः, यद्वा लूञ् छेदने−मनिन्। गमनम्। दुःखच्छेदनम्। (ध्वाङ्क्षः) ध्वाक्षि घोरशब्दे−अच्। घोरध्वनिः पुरुषः, यद्वा काकतुल्यहिंसकः (अजीहिडत्) हेडृ अनादरे वेष्टने च। तिरस्कृतवान् (ततः) तस्मात् (कुमाराः) कुमार क्रीडायाम्−अच्, यद्वा कुत्सितो मारो यस्मात्, कौ पृथिव्यां मारयति दुष्टान्। कीडाशीलाः। पृथिव्यां शत्रुनाशकाः (म्रियन्ते) (यक्ष्मः) राजरोगः (विन्दति) गृह्णाति (अनामनात्) म० ५। सर्वथा मननराहित्यात् ॥

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    विषय

    वेदत्याग से रोग व मृत्यु

    पदार्थ

    १. (गोपतौ) = ज्ञान की बाणियों के रक्षक विद्वान् पुरुष में (सत्याः अस्याः) = विद्यमान इस वेदवाणी के (लोम) = [लूल छेदने] वासना विच्छेदनरूप कर्म को (यत्) = जब (ध्वाक्ष:) = [ध्वाक्षि घोरवाशिते] व्यर्थ के कर्कश शब्द बोलनेवाला-कां कां बोलनेवाला व्यक्ति (अजीहिडत्) = घृणा से देखता है, अर्थात् वेदवाणी वासना का विच्छेद करती है' इस बात का उपहास करता है, (तत:) = तब (कुमारा:) = उस घर में आनेवाली सन्ताने (म्रियन्ते) = छोटी उम्न में ही मर जाती हैं। २. (अनामनात) = इस वेदवाणी का अभ्यास व मनन न करने से (यक्ष्मः विन्दति) = घरवालों को रोग प्रास होता है। जब घर में वेदवाणी का स्थान भोग-विलास ले-लेता है, तब उस घर में रोगों का आना स्वाभाविक ही है।

    भावार्थ

    'वेदवाणी के रक्षक विद्वान् के जीवन में यह वेदवाणी वासनाओं का विच्छेद करती है. जब इस बात का उपहास करके वेद का त्याग होता है तब असमय की मृत्यु व रोगों का आक्रमण होता है।

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    भाषार्थ

    (गोपतौ) पृथिवीपति के होते (अस्याः सत्याः) ब्रह्मज्ञ की इस सती अर्थात् पवित्र वाणी के (लोम) एक भी बाल को, (यद्) जो (ध्वाङ्क्षः) लोभी कर्मचारी (अजीहिडत्) खींच कर अनादृत करता है, (ततः) तदनन्तर (कुमाराः) कुमार (म्रियन्ते) मर जाते हैं, (अनामनात‌्) और राजा के नम्र या नत न होने पर (यक्ष्मः) ब्रह्मज्ञ का सेनाध्यक्ष मानो यक्ष्मरोग का रूप धारण कर के (विन्दति) राजकीय परिवार को प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    [इस मन्त्र में भी युद्ध हो जाने पर युद्ध का बुरा परिणाम दर्शाया हैं। कुमाराः- यौवन प्राप्त सैनिक। किशोराः=जो कि यौवन प्राप्त नहीं हुए। ध्वाङ्क्षः=ध्वाङ्क्षेण क्षेपे (अष्टा० २।१।४२), यथा “तीर्थध्वाङ्क्षः"। ध्वांक्षः=कौआ। क्षेप=तिरस्कार अनादर, नीचता। गोपतौ= पृथिवीपति की उपस्थिति में। गौः= पृथिवी (निघं० १।१)। लोम अजीहिडत्=वक्तृता के किसी छोटे अंश को ले कर "उस की बाल की खाल उतार कर" ब्रह्मज्ञ का अनादर करता है। हेड् अनादरे]।

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    विषय

    ‘वशा’ शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    और (यद्) यदि (अस्याः) इसके (गोपतौ) गोपालक स्वामी के अधीन (सत्याः) रहते हुए (ध्वाङ्क्षः) कौवा (लोम) उसके लोमों को (अजीहिडत्) नोच लेता है (ततः) तो भी इस गोपति के (कुमाराः) कुमार बालक (म्रियन्ते) मर जाते हैं और उसको स्वयं (अनामनात्) बिना जाने ही, अकस्मात् (यक्ष्मः विन्दति) राजयक्ष्मा रोग पकड़ लेता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha

    Meaning

    And while Gopati, the ruler, is there and the sagely scholar of the Vedic Voice is there, and yet some clever thief picks away a shred of its body, identity and meaning, the rising generation dies and cancer infects the commonwealth from remiss.

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    Translation

    If of her, while being with her master, a cow hath vexed the hair, then his boys die, the yaksma visits him unexpectedly.

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    Translation

    If, in spite of her master accompanying her, a carrion crow harms with scratch the hair of cow the youthful children become dead and consumption.

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    Translation

    If a depraved person crying like a crow, shows disrespect to the efficacy of Vedic knowledge possessed by a Brahmchari, its guardian, his young boys die thereof. Consumption overtakes them for not fully meditating over it.

    Footnote

    It: Vedic knowledge. When a depraved person disobeys the teachings of the Vedas, he and his family members suffer heavily.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(यत्) यदि (अस्याः) वेदवाण्याः (गोपतौ) म० ४। गोर्वेदवाण्या रक्षके ब्रह्मचारिणि (सत्याः) वर्तमानायाः (लोम) नामन्सीसन्व्योमन्रोमन्लोमन्०। उ० ४।१५१। रु गतौ−मनिन् रस्य लः, यद्वा लूञ् छेदने−मनिन्। गमनम्। दुःखच्छेदनम्। (ध्वाङ्क्षः) ध्वाक्षि घोरशब्दे−अच्। घोरध्वनिः पुरुषः, यद्वा काकतुल्यहिंसकः (अजीहिडत्) हेडृ अनादरे वेष्टने च। तिरस्कृतवान् (ततः) तस्मात् (कुमाराः) कुमार क्रीडायाम्−अच्, यद्वा कुत्सितो मारो यस्मात्, कौ पृथिव्यां मारयति दुष्टान्। कीडाशीलाः। पृथिव्यां शत्रुनाशकाः (म्रियन्ते) (यक्ष्मः) राजरोगः (विन्दति) गृह्णाति (अनामनात्) म० ५। सर्वथा मननराहित्यात् ॥

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