अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 22
यद॒न्ये श॒तं याचे॑युर्ब्राह्म॒णा गोप॑तिं व॒शाम्। अथै॑नां दे॒वा अ॑ब्रुवन्ने॒वं ह॑ वि॒दुषो॑ व॒शा ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒न्ये । श॒तम् । याचे॑यु: । ब्रा॒ह्म॒णा: । गोऽप॑तिम् । व॒शाम् । अथ॑ । ए॒ना॒म् । दे॒वा: । अ॒ब्रु॒व॒न् । ए॒वम् । ह॒ । वि॒दुष॑: । व॒शा॥४.२२॥
स्वर रहित मन्त्र
यदन्ये शतं याचेयुर्ब्राह्मणा गोपतिं वशाम्। अथैनां देवा अब्रुवन्नेवं ह विदुषो वशा ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अन्ये । शतम् । याचेयु: । ब्राह्मणा: । गोऽपतिम् । वशाम् । अथ । एनाम् । देवा: । अब्रुवन् । एवम् । ह । विदुष: । वशा॥४.२२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) यदि (ब्राह्मणाः=ब्राह्मणेभ्यः) ब्राह्मणों [ब्रह्मचारियों] से (अन्ये) दूसरे [निर्बलेन्द्रिय] (शतम्) सौ [पुरुष] (गोपतिम्) पृथिवी की पालनेवाली (वशाम्) वशा [कामनायोग्य वेदवाणी] को (याचेयुः) माँगें। (अथ) तो (देवाः) देवताओं [विद्वानों] ने (एनाम्) इस [वेदवाणी] को (अब्रुवन्) बताया है−“(एवम्) इस प्रकार [पूरे-पूरे] (विदुषः) विद्वान् की (ह) ही (वशा) वशा [कामनायोग्य वेदवाणी] है” ॥२२॥
भावार्थ
दुर्बलेन्द्रिय अश्रद्धालु मनुष्य सैकड़ों मिलकर वेदवाणी से उपकार नहीं कर सकते, परन्तु पूर्ण विद्वान् जितेन्द्रिय ब्रह्मचारी अकेला ही संसार भर को लाभ पहुँचाता है ॥२२॥
टिप्पणी
२२−(यत्) यदि (अन्ये) विरोधिनः। अब्राह्मणाः (शतम्) बहुसंख्याकाः (याचेयुः) प्रार्थयेरन् (ब्राह्मणाः) सुपां सुपो भवन्तीति वक्तव्यम्। वा० पा० ७।१।३९। इति पञ्चमीस्थाने प्रथमा। ब्राह्मणेभ्यः। ब्रह्मचारिभ्यः (गोपतिम्) पृथिवीपालिकाम् (वशाम्) कमनीयां वेदवाणीम् (अथ) तदा (एनाम्) वेदवाणीम् (देवाः) विद्वांसः (अब्रुवन्) अकथयन् (एवम्) अनेन प्रकारेण (ह) निश्चयेन (विदुषः) जानतः पुरुषस्य (वशा) ॥
विषय
'वशा' किसकी?
पदार्थ
१. (गोपतौ) = वेदवाणी के स्वामी को चाहिए कि बड़ी उत्तमता से औरों के लिए इस वेदवाणी को देनेवाला बने। सब लोग इससे वेदवाणी को प्राप्त करना चाहें। (यत्) = जब (अन्ये) = दूसरे (शतं ब्राह्मणा:) = सैकड़ों ब्रह्म [वेदज्ञान] की प्राप्ति के इच्छुक पुरुष (एनां गोपतिम्) = इस गोपति से (वशां याचेयु:) = कमनीय वेदवाणी की याचना करें, (अथ) = अब (देवा: अब्रुवन्) = सब देववृत्ति के पुरुष कहते हैं कि (एवं ह) = ऐसा करने पर ही (विदुषः वशा) = इस जानी की यह कमनीय वेदवाणी होती है।
भावार्थ
वेदवाणी का वास्तविक स्वामी बही बनता है जो मधुरता से इसके ज्ञान को औरों के लिए देनेवाला बनता है।
भाषार्थ
(यद्) यदि (अन्ये) अन्य (शतं ब्राह्मणाः) सौ ब्राह्मण (गोपतिम्) पृथिवीपति से (वशाम्, याचेयुः) वशा मांगें, (अथ) तो भी (एनाम्) इस वशा के सम्बन्ध में (देवा अब्रुबन्) देवों ने कहा है कि (वशा एवं विदुषः ह) कि वशा इस प्रकार के ज्ञानी की ही है।
टिप्पणी
[ब्राह्मण तीन प्रकार के होते हैं। (१) ब्रह्मज्ञ (२) वेदज्ञ (३) ब्रह्मज्ञ तथा वेदज्ञ। तीसरे प्रकार के ब्राह्मणों को वेद प्रचार के लिये वाणी स्वातन्त्र्य देना चाहिये, ऐसा अभिप्राय है]।
विषय
‘वशा’ शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(यद्) यदि (गो पतिम्) गोपति के पास (शतम्) सौ ब्राह्मण जाकर (वशाम्) वशा की (याचेयुः) याचना करते हैं (अथ) तब (एनाम्) इस वशा को लक्ष्य करके (देवाः) देवगण (अब्रुवन्) स्वयं बतलावें, निर्णय करें कि (एवं विदुषः ह) इस इस प्रकार के विद्वान् को ही (वशा) यह ‘वशा’ प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vasha
Meaning
If a hundred others, who are dedicated neither to Divinity nor to knowledge nor to speech and freedom, ask the Gopati, lord of knowledge, speech and the earth, for a gift of Vasha, freedom of speech, then, as divine sages have said, Vasha rightly is only for those who are dedicated to Divinity, knowledge and freedom with discipline for the service of all others, not for others.
Translation
If a hundred other Brahmans should ask the cow of its master, yet the gods said of her: the cow is his who knoweth thus.
Translation
If hundred others beg the cow from her master, she, the learned say, belongs only to him who is enlightened and intelligent.
Translation
If hundred weak, faithless persons beg of the Brahmcharis Vedic knowledge, the guardian of the universe, the sages say, it verily belongs to him who knows the truth.
Footnote
A hundred ordinary ignorant persons can’t propagate the Vedic teachings, so effectively as a learned man alone can do.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२२−(यत्) यदि (अन्ये) विरोधिनः। अब्राह्मणाः (शतम्) बहुसंख्याकाः (याचेयुः) प्रार्थयेरन् (ब्राह्मणाः) सुपां सुपो भवन्तीति वक्तव्यम्। वा० पा० ७।१।३९। इति पञ्चमीस्थाने प्रथमा। ब्राह्मणेभ्यः। ब्रह्मचारिभ्यः (गोपतिम्) पृथिवीपालिकाम् (वशाम्) कमनीयां वेदवाणीम् (अथ) तदा (एनाम्) वेदवाणीम् (देवाः) विद्वांसः (अब्रुवन्) अकथयन् (एवम्) अनेन प्रकारेण (ह) निश्चयेन (विदुषः) जानतः पुरुषस्य (वशा) ॥
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