Loading...
अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 4 के मन्त्र
मन्त्र चुनें
  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 53
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
    0

    यदि॑ हु॒तां यद्यहु॑ताम॒मा च॒ पच॑ते व॒शाम्। दे॒वान्त्सब्रा॑ह्मणानृ॒त्वा जि॒ह्मो लो॒कान्निरृ॑च्छति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑। हु॒ताम् । यदि॑। अहु॑ताम् । अ॒मा । च॒ । पच॑ते । व॒शाम् । दे॒वान् । सऽब्रा॑ह्मणान् । ऋ॒त्वा । जि॒ह्म:। लो॒कात् । नि: । ऋ॒च्छ॒ति॒ ॥४.५३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदि हुतां यद्यहुताममा च पचते वशाम्। देवान्त्सब्राह्मणानृत्वा जिह्मो लोकान्निरृच्छति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि। हुताम् । यदि। अहुताम् । अमा । च । पचते । वशाम् । देवान् । सऽब्राह्मणान् । ऋत्वा । जिह्म:। लोकात् । नि: । ऋच्छति ॥४.५३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 53
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (यदि) यदि (हुताम्) दान की हुई [आचार्य से सीखी हुई], (यदि) यदि (अहुताम्) न दान की हुई [बल से ली हुई] (वशाम्) कामनायोग्य [वेदवाणी] को (अमा) अपने घर में (च) ही (पचते) मनुष्य विख्यात करता है। (सब्राह्मणान्) ब्रह्मचारियों सहित (देवान्) विद्वानों को (ऋत्वा) दुखाकर (जिह्मः) वह कुटिल (लोकात्) समाज से (निःऋच्छति) निकल जाता है ॥५३॥

    भावार्थ

    जो पुरुष वेदविद्या को प्राप्त करके वा छल-कपट से लेकर उसके प्रचार से विद्वानों को रोके, उस दुःखदायी को विद्वान् लोग पद से गिरा देवें ॥५३॥ इति चतुर्थोऽनुवाकः ॥

    टिप्पणी

    ५३−(यदि) सम्भावनायाम् (हुताम्) दत्ताम्। आचार्येण दत्ताम् (यदि) (अहुताम्) अदत्ताम्। बलात्कारेण गृहीताम् (अमा) गृहे (च) (पचते) व्यक्तीकरोति (वशाम्) कमनीयां वेदवाणीम् (देवान्) विदुषः (सब्राह्मणान्) सहितान् (ऋत्वा) हिंसित्वा (जिह्मः) जहातेः सन्वदाकारलोपश्च। उ० १।१४१। ओहाक् त्यागे−मन्। कुटिलः। मन्दः (लोकात्) दर्शनीयात् समाजात् (निर्ऋच्छति) बहिर्गच्छति ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    समाज से बहिष्कार

    पदार्थ

    १. (यदि) = यदि (हुताम्) = आचार्य के द्वारा दी गई (च) = और (यदि) = यदि (अहुताम्) = औरों के लिए न प्राप्त करायी गई इस (वशाम्) = वेदवाणी को (अमा पचते) = अपने घर में ही परिपक्व करता है, अर्थात् इस वेदज्ञान को औरों के लिए नहीं देता, तो वह वेदज्ञान का अदाता (जिह्मः) = कुटिल व्यक्ति (सब्राह्मणान् देवान्) = ब्राह्मणोंसहित देवों को (ऋत्वा) = हिंसित करके (लोकात् निर्गच्छति) = समाज से निर्गत हो जाता है। समाज से यह बहिष्कृत कर दिया जाता है।

    भावार्थ

    आचार्य ने हमें वेदज्ञान दिया। हमें भी चाहिए कि हम इसे 'अहुता' न करके औरों के लिए देनेवाले बनें अन्यथा हम देववृत्ति के ज्ञानियों का हिंसन ही कर रहे होते हैं वेदज्ञान को इनके लिए प्राप्त कराना ही इनका रक्षण है। यदि यह रक्षण हम नहीं करेंगे तो समाज हमारा बहिष्कार कर देगा।

    इसप्रकार वेदज्ञान को न देने के दुष्परिणाम को समझकर इस ब्रह्मगवी [वेदधेनु बशा] को औरों के लिए देनेवाला यह 'अथर्वाचार्य' बनता है-स्थिरवृत्तिवाला आचार्य। यही अगले पर्याय सूक्तों का ऋषि है। इनका देवता [विषय] ब्रह्मगवी-वेदधनु है -

    इस भाष्य को एडिट करें

    भाषार्थ

    (यदि) यदि वेदवाणी की स्वतन्त्रता (हुताम्) देने का वचन तो दिया, (यदि) परन्तु (अहुताम्) वस्तुतः न दी गई (वशाम्) वेदवाणी को (अमा) घर में (पचते) मानो सन्तप्त करता है, तो वह (जिह्मः) कुटिल पृथिवीपति (सब्राह्मणान् देवान्) ब्रह्मवेत्ताओं समेत देवों को (ऋत्वा) कष्ट पहुंचा कर, (लोकात्) राष्ट्रभूमि से (निः ऋच्छति) निकाला जा कर कष्ट भोगता है। [ऋत्वा; ऋ= To injure, hurt (आप्टे)। निर्+ ऋच्छ (गतौ), निर्गत हो जाता है]।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    ‘वशा’ शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (यदि हुताम्) यदि दान दी हो, (यदि अहुताम्) दान न दी हो तो भी यदि गोपति (वशाम अमा च पचते) ‘वशा’ को अपने ही घर में पकाता है, वह (सब्राह्मणान्) ब्राह्मण सहित (देवान्) देवों के अति (ऋत्वा) अपराध करके (जिह्मः) कुटिलाचारी होकर (लोकात्) इस लोक से (निर्ऋच्छति) कष्ट पाकर निकलता है। पूर्वोक्त सूक्त का शब्दार्थ वाक्यरचनानुसार कर दिया है। इस सूक्त की संगति अथर्ववेद के १० काण्ड के १० सूक्त के साथ लगाने से इस सूक्त का भावार्थ स्पष्ट हो जाता है। वहां भी तीन वशाओं का वर्णन है। “वशा द्यौर्वशा पृथिवी वशा विष्णुः प्रजापतिः”। इसी प्रकार यहां भी विलिप्ति, सूतवशा और दशा इन तीन वशाओं का वर्णन है। इस सूत्र में क्रम से नारद = विद्वान्, जीव। बृहस्पति = परमात्मा। विशेष विचार भूमिका भाग में करेंगे।

    टिप्पणी

    (तृ०) ‘स ब्राह्मणान्नृत्वा’ इति बहुत्र।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha

    Meaning

    Whether the Vasha, gift of living knowledge and freedom of speech, is promised or not promised, received as given or taken by force, when the ruler denies and in his own chamber encloses and stifles this life-giving Vasha, cooking his own plans and plots, the crooked man offends the divinities along with the Brahmanas and violates and forfeits the worlds of his own existence.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    If as offered and if as unoffered one cooks the cow in private, coming into collision with the gods accompanied by the Brahmans, he goes supine out of the world.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    He who lets the vasha, given or not given crying and frown ing in his house becoming dishonest sacrilegious to Devas and Brahmanas falls down from this State or life.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    If in his house alone one preserves the Vedic knowledge received from an Acharya or acquired otherwise, and imparts it not to others the dishonest person, doing wrong to the learned and the Brahmcharis, departs from the world in a miserable plight.

    Footnote

    Acharya: Preceptor, Guru.

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ५३−(यदि) सम्भावनायाम् (हुताम्) दत्ताम्। आचार्येण दत्ताम् (यदि) (अहुताम्) अदत्ताम्। बलात्कारेण गृहीताम् (अमा) गृहे (च) (पचते) व्यक्तीकरोति (वशाम्) कमनीयां वेदवाणीम् (देवान्) विदुषः (सब्राह्मणान्) सहितान् (ऋत्वा) हिंसित्वा (जिह्मः) जहातेः सन्वदाकारलोपश्च। उ० १।१४१। ओहाक् त्यागे−मन्। कुटिलः। मन्दः (लोकात्) दर्शनीयात् समाजात् (निर्ऋच्छति) बहिर्गच्छति ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top