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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 26
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
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    अ॒ग्नीषो॑माभ्यां॒ कामा॑य मि॒त्राय॒ वरु॑णाय च। तेभ्यो॑ याचन्ति ब्राह्म॒णास्तेष्वा वृ॑श्च॒तेऽद॑दत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नीषोमा॑भ्याम् । कामा॑य । मि॒त्राय॑ । वरु॑णाय । च॒ । तेभ्य॑: । या॒च॒न्ति॒ । ब्रा॒ह्म॒णा: । तेषु॑ । आ । वृ॒श्च॒ते॒ । अद॑दत् ॥४.२६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नीषोमाभ्यां कामाय मित्राय वरुणाय च। तेभ्यो याचन्ति ब्राह्मणास्तेष्वा वृश्चतेऽददत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नीषोमाभ्याम् । कामाय । मित्राय । वरुणाय । च । तेभ्य: । याचन्ति । ब्राह्मणा: । तेषु । आ । वृश्चते । अददत् ॥४.२६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 26
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    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (कामाय) इष्ट पदार्थ पाने के लिये (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और जल, (मित्राय) प्राण (च) और (वरुणाय) अपान वायु, (तेभ्यः) इन सब की सिद्धि के लिये (ब्राह्मणाः) ब्राह्मण [ब्रह्मचारी लोग] (याचन्ति) [वेदवाणी को] माँगते हैं, (अददत्) न देता हुआ पुरुष (तेषु) उन [विद्वानों] में (आ) सब ओर से (वृश्चते) छिन्न हो जाता है ॥२६॥

    भावार्थ

    ब्रह्मचारी अग्निविद्या, जलविद्या, वायु के उतार-चढ़ाव की विद्या और अन्य विद्वानों की सिद्धि के लिये वेदविद्या में परिश्रम करते हैं। ऐसे शुभ कर्म में विघ्नकारी मनुष्य कष्ट मे पड़ते हैं ॥२६॥

    टिप्पणी

    २६−(अग्नीषोमाभ्याम्) अग्निजलविद्यासिद्धये (कामाय) इष्टपदार्थप्राप्तये (मित्राय) प्राणविद्याप्राप्तये (वरुणाय) अपानविद्याप्राप्तये (च) (तेभ्यः) पूर्वोक्तेभ्यः (याचन्ति) प्रार्थयन्ते (ब्राह्मणाः) वेदाध्येतारः (तेषु) ब्राह्मणेषु (आ) समन्ताम् (वृश्चते) छिद्यते (अददत्) अप्रयच्छन् ॥

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    विषय

    अग्रि, सोम, काम, मित्र, वरुण

    पदार्थ

    १. (ब्राह्मणा:) = ज्ञानरुचिवाले विद्वान् (अग्निषोमाभ्याम्) = शरीर में अग्नि व सोम तत्व की ठीक स्थिति के लिए, (कामाय) = इष्ट पदार्थों की प्राप्ति के लिए और (मित्राय वरुणाय च) = प्राणापान के ठीक से कार्य करने के लिए (तेभ्य:) = उन ज्ञानियों से (याचन्ति) = कमनीय देववाणी की याचना करते हैं। यह वेदवाणी उन्हें अग्नि व सोम आदि को प्राप्त करानेवाली बनेगी। २. एक गोपति (अददत्) = उन ब्राह्मणों के लिए इस वेदवाणी को न देता हुआ (तेषु आवश्ते) = उन 'अग्रि, सोम, काम व मित्र-वरुण' से छिन्न हो जाता है, इस वेदवाणी को छिपानेवाले के जीवन में अग्नि, सोम आदि की ठीक स्थिति नहीं होती।

    भावार्थ

    वेदवाणी को अपनाने का लाभ यह है कि हमारे जीवन में अग्नि, सोम आदि तत्त्वों की उचित स्थिति होती है। यह गोपति इस वेदवाणी को ब्राह्मणों के लिए न देता हुआ इन अग्नि, सोम आदि को छिन्न कर बैठता है।

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    भाषार्थ

    (अग्नीषोमाभ्याम्) राज्य में अग्नि और सोम की वृद्धि के लिये, (कामाय) काम्यपदार्थों के लिये, (मित्राय) मित्रों के लिये, (च वरुणाय) श्रेष्ठ व्यक्तियों के लिये, (तेभ्यः) उन सब के लिये, (ब्राह्मणाः) ब्रह्मज्ञ और वेदज्ञ विद्वान् (याचन्ति) वशा की याचना करते हैं, (अददत्) राजा न देता हुआ, (तेषु) उन में रहता हुआ भी (आ वृश्चते) पूर्णतया अपने आप को अलग कर लेता है।

    टिप्पणी

    [राज्य की वृद्धि के लिये अग्नि (Power) की तथा सोम (जल) की वृद्धि चाहिये। अग्नि द्वारा कलाकौशल की वृद्धि तथा जल द्वारा कृषि की वृद्धि होती है। इन द्वारा काम्य पदार्थों की उत्पत्ति होती है। वेद प्रचार द्वारा प्रजा में मैत्री-भावना का तथा श्रेष्ठता का प्रसार होता है। सोम= Water (जल) आप्टे। वरुणः=उत्तमम् (उणा० ३।५३, महर्षि दयानन्द)। अभिप्राय यह कि ब्राह्मण स्वार्थ के लिये वेदप्रचार नहीं चाहते, अपितु राष्ट्रोन्नति के लिये चाहते हैं]।

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    विषय

    ‘वशा’ शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और सोम (मित्राय वरुणाय च) मित्र और वरुण के (कामाय) प्रयोजन के लिये (तेभ्यः) उन स्वामियों से (ब्राह्मणाः याचन्ति) ब्राह्मण लोग वशा की याचना किया करते हैं। जो पुरुष उनको उस वशा का (अददत्) दान नहीं करता वह (तेषु) उन पर (आवृश्चते) आघात करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha

    Meaning

    Brahmanas, seekers of Divinity and knowledge, pray for Vasha for the advancement of Agni and Soma, progress and peace of humanity, for fulfilment of life’s mission, for people of love and friendship, and for people of judgement and discriminative intelligence. The person, individual or ruler, who hoards this divine gift and denies it to the seekers, isolates himself and alienates himself from society although otherwise he may be in the thick of social presence.

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    Translation

    For Agni and Soma, for Love, for Mitra and for Varuna for these the Brahmans ask her; under thier wrath falls he who gives not.

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    Translation

    The Brahmanas beg cow (from her master for Agni, Soma, Mitra, Varuna and Kama to offer the oblations for these Yajna devas with milk, ghee, Curd etc.) Therefore, the men not giving the cow commits sacrilege on these devas.

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    Translation

    For the knowledge of electricity and water, for the attainment of desirable objects and for the control of Prana and Apana, for these the Brahmcharis ask for Vedic knowledge. He who giveth it not to them, shows disrespect unto them.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २६−(अग्नीषोमाभ्याम्) अग्निजलविद्यासिद्धये (कामाय) इष्टपदार्थप्राप्तये (मित्राय) प्राणविद्याप्राप्तये (वरुणाय) अपानविद्याप्राप्तये (च) (तेभ्यः) पूर्वोक्तेभ्यः (याचन्ति) प्रार्थयन्ते (ब्राह्मणाः) वेदाध्येतारः (तेषु) ब्राह्मणेषु (आ) समन्ताम् (वृश्चते) छिद्यते (अददत्) अप्रयच्छन् ॥

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