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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 16
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
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    चरे॑दे॒वा त्रै॑हाय॒णादवि॑ज्ञातगदा स॒ती। व॒शां च॑ वि॒द्यान्ना॑रद ब्राह्म॒णास्तर्ह्ये॒ष्याः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चरे॑त् । ए॒व । आ । त्रै॒हा॒य॒नात् । अवि॑ज्ञातऽगदा । स॒ती । व॒शाम् । च॒ । वि॒द्यात् । ना॒र॒द॒ । ब्रा॒ह्म॒णा: । तर्हि॑ । ए॒ष्या᳡: ॥४.१६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चरेदेवा त्रैहायणादविज्ञातगदा सती। वशां च विद्यान्नारद ब्राह्मणास्तर्ह्येष्याः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    चरेत् । एव । आ । त्रैहायनात् । अविज्ञातऽगदा । सती । वशाम् । च । विद्यात् । नारद । ब्राह्मणा: । तर्हि । एष्या: ॥४.१६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 16
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (अविज्ञातगदा) नहीं जाना गया है दोष जिसमें, ऐसी [निर्दोष], (सती) सद्गुणोंवाली [वेदवाणी] (आ त्रैहायणात्) तीन उद्योगों [परमेश्वर के कर्म, उपासना, ज्ञान] तक (एव) अवश्य (चरेत्) विचरती रहे। (नारद) हे नारद ! [नीति, यथार्थ ज्ञान, देनेवाले विद्वान्] (वशाम्) वशा [कामनायोग्य वेदवाणी] को (च) निश्चय करके (विद्यात्) [मनुष्य] जाने, (तर्हि) तब (ब्राह्मणाः) ब्राह्मण [पूरे वेदज्ञाता लोग] (एष्याः) ढूँढ़ने योग्य हैं ॥१६॥

    भावार्थ

    वेदवाणी सर्वथा निर्दोष और श्रेष्ठगुणवाली है, मनुष्य पूर्ण विद्वानों द्वारा उसको प्राप्त करके ईश्वर के कर्म, उपासना और ज्ञान से अपनी उन्नति करे ॥१६॥

    टिप्पणी

    १६−(चरेत्) विचरेत् (एव) निश्चयेन (आ) मर्यादायाम् (आ त्रैहायणात्) अ० १०।५।२२। हश्च व्रीहिकालयोः। पा० ३।१।१८४। ओहाक् त्यागे, ओहाङ् गतौ च−ण्युट्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। युक्, बाहुलकात्। तस्य समूहः। पा० ४।२।३७। अण्। त्रयाणां हायनानां गतीनां परमेश्वरस्य कर्मोपासनाज्ञानरूपाणामुद्योगानां समूहप्राप्तिपर्यन्तम् (अविज्ञातगदा) गद रोगे−अच्। अविज्ञातो गदो रोगो दोषो यस्यां सा। अविदितदोषा (सती) सद्गुणवती (वशाम्) वेदवाणीम् (च) अवश्यम् (विद्यात्) जानीयात् (नारद) अ० ५।१९।९। नॄ नये−घञ्, नारं नयं नीतिं ददादीति, दा−क। हे नयप्रद विद्वन् (ब्राह्मणाः) पूर्णवेदज्ञानिनः (तर्हि) तदा (एष्याः) अन्वेषणीयाः ॥

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    विषय

    आ त्रैहायणात्

    पदार्थ

    १. (अविज्ञातगदा सती) = नहीं जाना गया है स्पष्ट उच्चारण [गद] जिसका, ऐसी होती हुई भी यह वेदवाणी (आ त्रैहायणात्) = तीन वर्ष की आयु से प्रारम्भ करके (चरेत् एव) = हमारे जीवन में विचरण करे ही। तीन वर्ष की आयु से ही हम इसे पढ़ना प्रारम्भ कर दें। १. हे (नारद) = नर सम्बन्धी 'शरीर, मन, इन्द्रियों व बुद्धि' को शुद्ध करनेवाले जीव ! [नरसम्बन्धिनं नारं दायति द्वैप शोधने] (वशां च विद्यात्) = जब इस वेदवाणी को कुछ जान जाए-तगत मन्त्रों को याद कर ले-(तर्हि) = तो (ब्राह्मणा: एष्या:) = अब ब्रह्मवेत्ता विद्वान् अन्वेषण के योग्य हैं, अर्थात् ज्ञानी ब्राह्मणों के समीप उपस्थित होकर उनसे वेदार्थ को जानना चाहिए।

    भावार्थ

    तीन वर्ष की आयु से ही हम वेदों का स्मरण प्रारम्भ कर दें और अब स्मरणानन्तर ज्ञानी ब्राह्मणों के समीप पहुँचकर इसे समझने का प्रयत्न करें। इस प्राकर ही हमारा जीवन शुद्ध बनेगा।

     

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    भाषार्थ

    वशा (आ त्रैहायणात्) तीन वर्षों की अवधि तक (अविज्ञातगदा सती) अज्ञात रूप में (चरेत् एव) विचरती ही रहे (नारद) हे नरसमाज के शोधक! (च) और (वशाम्) वशीकृत वाणी के स्वरूप को (विद्यात्) राजा जब जान ले (तर्हि) तो (ब्राह्मणाः) ब्रह्मज्ञ यथा वेदज्ञ व्यक्ति (एष्याः) ढूंढने चाहियें, ताकि उन्हें वाणी का स्वातन्त्र्य दिया जा सके।

    टिप्पणी

    [तीन वर्षों तक ब्राह्मण शान्ति के उपायों का अवलम्बन कर जनता में व्याख्यान न दें, अपितु व्यक्तिरूप में परस्पर मिल कर वेदवाणी का प्रचार करते रहें। राजा को जब यह ज्ञात हो जायगा कि ब्राह्मण लोग अपनी वक्तृताओं द्वारा प्रजा को भड़का कर वाणी स्वातन्त्र्य नहीं चाहते, तो नरों की विचारशुद्धि और आचारशुद्धि चाहने वाला अधिकारी, नारद स्वयं ऐसे शान्तिप्रिय ब्राह्मणों की खोज करेगा ताकि प्रजा में वे वेदवाणी का प्रचार करें। नारद=नार (नृणां समूहः)+द (दैप् शोधने)। सम्भवतः नारद धर्माधिकारी है]।

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    विषय

    ‘वशा’ शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (आ त्रैहायनात्) तीन वर्ष तक तो वह ‘वशा’ (अविज्ञातगदा सती) अपने बांझ-पन के रोग के बिना जनाये (चरेत् एव) स्वामी के पास विचरती ही है। हे नारद, विद्वन् ! (वशाम् च) जब वह वशा को (विद्यात्) जान ले (तर्हि) तब गौ के स्वामी को चाहिये कि वह (ब्राह्मणाः पुण्याः) दान देने के लिये ब्राह्मणों को खोज ले।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha

    Meaning

    Just as a calf roams around unknown and urecognised for three years and then it is known and recognised and then a Brahmana is sought to take it as a gift, similarly, if knowledge and its medium speech were neglected and left to roam around unknown, unrecognised and unplanned, then, O Narada, guardian of human society for culture and education, sagely scholars must be sought and entrusted with the culture and education of the human community so that free development of the society is properly recognised, valued and pursued.

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    Translation

    She may go about until the space of three years, being of unrécognized speech; should be know the cow, O Narada, then the Brahmans are to be sought.

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    Translation

    The cow without name till three years go with her mother at her masters, house. When the master knows about her he should seek Brahman for giving her to him, O learned man.

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    Translation

    May this flawless Vedic Knowledge, full of noble sentiments preach the three doctrines of Action, Contemplation and Knowledge. O learned person, when one has thoroughly understood it, he should seek for Brahmanas, to whom it may be imparted.

    Footnote

    brahmanas: Seekers after Vedic knowledge,

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    १६−(चरेत्) विचरेत् (एव) निश्चयेन (आ) मर्यादायाम् (आ त्रैहायणात्) अ० १०।५।२२। हश्च व्रीहिकालयोः। पा० ३।१।१८४। ओहाक् त्यागे, ओहाङ् गतौ च−ण्युट्। आतो युक् चिण्कृतोः। पा० ७।३।३३। युक्, बाहुलकात्। तस्य समूहः। पा० ४।२।३७। अण्। त्रयाणां हायनानां गतीनां परमेश्वरस्य कर्मोपासनाज्ञानरूपाणामुद्योगानां समूहप्राप्तिपर्यन्तम् (अविज्ञातगदा) गद रोगे−अच्। अविज्ञातो गदो रोगो दोषो यस्यां सा। अविदितदोषा (सती) सद्गुणवती (वशाम्) वेदवाणीम् (च) अवश्यम् (विद्यात्) जानीयात् (नारद) अ० ५।१९।९। नॄ नये−घञ्, नारं नयं नीतिं ददादीति, दा−क। हे नयप्रद विद्वन् (ब्राह्मणाः) पूर्णवेदज्ञानिनः (तर्हि) तदा (एष्याः) अन्वेषणीयाः ॥

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