अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 30
आ॒विरा॒त्मानं॑ कृणुते य॒दा स्थाम॒ जिघां॑सति। अथो॑ ह ब्र॒ह्मभ्यो॑ व॒शा या॒च्ञाय॑ कृणुते॒ मनः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठआ॒वि: । आ॒त्मान॑म्। कृ॒णु॒ते॒ । य॒दा । स्थाम॑ । जिघां॑सति । अथो॒ इति॑ । ह॒ । ब्र॒ह्मऽभ्य॑: । व॒शा । या॒ञ्चाय॑ । कृ॒णु॒ते॒ । मन॑: ॥४.३०॥
स्वर रहित मन्त्र
आविरात्मानं कृणुते यदा स्थाम जिघांसति। अथो ह ब्रह्मभ्यो वशा याच्ञाय कृणुते मनः ॥
स्वर रहित पद पाठआवि: । आत्मानम्। कृणुते । यदा । स्थाम । जिघांसति । अथो इति । ह । ब्रह्मऽभ्य: । वशा । याञ्चाय । कृणुते । मन: ॥४.३०॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।
पदार्थ
वह [वेदवाणी] (आत्मानम्) अपने स्वरूप [तत्त्वज्ञान] को (आविः कृणुते) प्रकट करती है, (यदा) जब वह [ब्रह्मचारी] (स्थाम) ठिकाने पर (जिघांसति) जाना चाहता है। (अथो ह) तब ही (वशा) वशा [कामनायोग्य वेदवाणी] (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मचारियों के पाने को (याच्ञाय) माँगने के लिये (मनः) मनन (कृणुते) करती है ॥३०॥
भावार्थ
जैसे-जैसे ब्रह्मचारी प्रयत्न करता है वेदवाणी भी उसको वैसे-वैसे ही अधिक-अधिक मिलती चली जाती है ॥३०॥
टिप्पणी
३०−(आत्मानम्) तत्त्वबोधम् (आविष्कृणुते) प्रकटयति (अथो ह) तदैव (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मचारिभ्यः (वशा) कमनीया वेदवाणी (याच्ञाय) याचृ याच्ञायाम्−नङ्। याचनाय (कृणुते) करोति (मनः) मननम्। अन्यत् पूर्ववत्−म० २९ ॥
विषय
ज्ञान की अधिकाधिक पिपासा
पदार्थ
१. (यदा) = जब एक ब्राह्मण [ब्रह्म-वेद-को जानने का इच्छुक पुरुष] (स्थाम जिघांसति) = शक्ति व स्थिरता को प्राप्त करने की कामना करता है, तब यह वशा [वेदवाणी] उसके लिए (आत्मानं आविः कृणुते) = अपने को प्रकट करती है। उससे तत्त्वज्ञान को प्राप्त करके ही वासनात्मक जगत् से ऊपर उठकर शक्ति व स्थिरता का सम्पादन करता है। २. (अथो ह) = और अब ही (वशा) = यह वेदवाणी (ब्रह्मभ्यः याच्छ्याय) = ज्ञानों की याचना के लिए (मनः कृणुते) = मन को करती है, अर्थात् यह वशा अपने अध्येता के मन को इस रूप में प्रेरित करती है कि वह अधिकाधिक ज्ञान का पिपासु होता जाता है।
भावार्थ
वेदवाणी का प्रकाश उसी के लिए होता है जो शक्ति व स्थिरता के सम्पादन के लिए यत्न करता है। वेदवाणी इसके मन को अधिकाधिक ज्ञान की ओर आकृष्ट करती है।
भाषार्थ
(आविः आत्मानम्) अपने स्वरूप को प्रकट कर देती है (यदा) जब कि वशा अर्थात् वेदवाणी (स्थाम) निज स्थान अर्थात् ब्रह्मवेत्ता तथा वेदवेत्ता को (जिघांसति) जाना चाहती है। (अथ उ ह) तव निश्चय से (वशा) वेदवाणी (ब्रह्मभ्यः) वेदवेत्ताओं द्वारा (याञ्च्याय) निज याचना के लिये (मनः कृणुते) इच्छा करती है, अर्थात् ब्राह्मण मेरी माँग करें मुझे चाहें, ऐसी इच्छा करती है। [जिघांसति=जिगमिषति; हन् गतौ] आविरात्मानम्="उतो त्वस्मै तन्वं विसस्रे जायेव पत्य उशती सुवासाः" (ऋ० १०।७१।४)।
विषय
‘वशा’ शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(यदा) जब (स्थाम) अपने रहने के स्थान को (जघांसति) सींगों और लातों से तोड़ती फोड़ती है और (आत्मनम्) अपने स्वरूप को (आविः कृणुते) प्रकट कर देती है (अथो ह) तभी निश्चय से वह (ब्रह्मभ्यः याञ्च्याय) ब्राह्मणों द्वारा की गई याचना के लिये (मनः कृणुते) अपना चित्त करती है, विचारती है।
टिप्पणी
(तृ०) ‘उतोह’ इति पैप्प० स०।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vasha
Meaning
Vasha, universal knowledge and the spirit of Being, is a seeker of living media, manifests itself in many forms as it lives with its homely devotees, while, indeed, it inspires the sagely minds for her own self¬ manifestation and expression for the sake of the seekers of divinity.
Translation
She manifests herself when she Alies, to go to her station; then the cow makes up her mind for the asking of the priests.
Translation
The cow, when desires to go to her dwelling place manifest her nature. Them she makes her longing clear to receive demand for her from the Brahmanas.
Translation
Vedic knowledge manifests its shape and form, when a Brahmchari wants to reach his goal. Then verily the Vedic knowledge to the Brahmcharis and their request.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
३०−(आत्मानम्) तत्त्वबोधम् (आविष्कृणुते) प्रकटयति (अथो ह) तदैव (ब्रह्मभ्यः) ब्रह्मचारिभ्यः (वशा) कमनीया वेदवाणी (याच्ञाय) याचृ याच्ञायाम्−नङ्। याचनाय (कृणुते) करोति (मनः) मननम्। अन्यत् पूर्ववत्−म० २९ ॥
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