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अथर्ववेद के काण्ड - 12 के सूक्त 4 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 21
    ऋषिः - कश्यपः देवता - वशा छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - वशा गौ सूक्त
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    हेडं॑ पशू॒नां न्येति ब्राह्म॒णेभ्योऽद॑दद्व॒शाम्। दे॒वानां॒ निहि॑तं भा॒गं मर्त्य॒श्चेन्नि॑प्रिया॒यते॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हेड॑म् । प॒शू॒नाम् । नि । ए॒ति॒ । ब्रा॒ह्म॒णेभ्य॑: । अद॑दत् । व॒शाम् । दे॒वाना॑म् । निऽहि॑तम् । भा॒गम् । मर्त्य॑: । च॒ । इत् । नि॒ऽप्रि॒य॒यते॑ ॥४.२१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हेडं पशूनां न्येति ब्राह्मणेभ्योऽददद्वशाम्। देवानां निहितं भागं मर्त्यश्चेन्निप्रियायते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हेडम् । पशूनाम् । नि । एति । ब्राह्मणेभ्य: । अददत् । वशाम् । देवानाम् । निऽहितम् । भागम् । मर्त्य: । च । इत् । निऽप्रिययते ॥४.२१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 12; सूक्त » 4; मन्त्र » 21
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    हिन्दी (4)

    विषय

    वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।

    पदार्थ

    (ब्राह्मणेभ्यः) ब्राह्मणों (ब्रह्मचारियों) को (वशाम्) वशा [कामनायोग्य वेदवाणी] (अददत्) न देता हुआ पुरुष (पशूनाम्) सब प्राणियों का (हेडम्) क्रोध (नि) निश्चय करके (एति) पाता है। (च इत्=चेत्) यदि (मर्त्यः) मनुष्य (देवानाम्) विजय चाहनेवालों के (निहितम्) नियम से रक्खे हुए (भागम्) ऐश्वर्यों के समूह [वेदवाणी] को (निप्रियायते) ओछेपन से प्रिय सा मानता है ॥२१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य संकुचित मन होकर वेदवाणी के प्रकाश करने में विघ्न डालता है, वह सब ही प्राणियों का शत्रु होता है ॥२१॥

    टिप्पणी

    २१−(हेडम्) अनादरम्। क्रोधम् (नि) निश्चयेन (एति) प्राप्नोति (ब्राह्मणेभ्यः) ब्रह्मचारिभ्यः (अददत्) म० २०। अप्रयच्छन् (वशाम्) कमनीयां वेदवाणीम् (देवानाम्) विजिगीषूणाम् (निहितम्) नियमेन स्थापितम् (भागम्) भग−अण् समूहे। भगानामैश्वर्याणां समूहं वेदवाणीम् (मर्त्यः) मनुष्यः (चेत्) यदि (नि प्रियायते) म० ११। नीचभावेन प्रिय इवाचरति ॥

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    विषय

    पशूनां हेडम्

    पदार्थ

    १. (ब्राह्मणेभ्यः) = ब्रह्मज्ञान के इच्छुकों के लिए (वशाम्) = इस कमनीय वेदवाणी को (अददत्) = न देता हुआ (पशूनां हेडं नि एति) = सब प्राणियों की घृणा को निश्चय से प्राप्त करता है अथवा पशुओं का भी यह प्रिय नहीं होता-इसके गौ आदि पशु सम्पन्न-क्षीरतम नहीं होते। २. यह सब तब होता है (चेत्) = जबकि (देवानाम्) = 'अग्नि, वायु, आदित्य व अङ्गिरा' आदि देवों के (निहितं भागम्) = हदयों में प्रभु द्वारा स्थापित इस भजनीय वेदज्ञान को (मर्त्यः) = कोई मनुष्य (निप्रियायते) = नीच भाव से अपना ही प्रिय धन मानकर छिपा रखता है।

    भावार्थ

    हमें वेदज्ञान को प्राप्त करके अवश्य उसका प्रचार करना चाहिए। वेदज्ञान को चाहनेवालों के लिए उसे देना चाहिए। अन्यथा हम पशुओं के भी प्रिय न रहेंगे, वे हमें उत्तम दुध आदि को प्राप्त करानेवाले न होंगे।

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    भाषार्थ

    (ब्राह्मणेभ्यः) ब्रह्मज्ञ तथा वेदज्ञ विद्वानों को (वशाम्, अददद्) वशा अर्थात् वेदवाणी और उस के प्रचार के लिये वशीकृत वाणी का स्वातन्त्र्य (अददद्) न देता हुआ राजा (पशूनाम्) पशु सदृश साधारण प्रजाजनों के (हेडम्) अनादर को भी (न्येति) नितरां प्राप्त होता है, (चेत्) यदि वह (मर्त्यः) मरणधर्मा राजा (देवानाम्) देवजनों के (निहितम्) सुरक्षित (भागम्) वाणी-स्वातन्त्र्य अधिकार को (निप्रियायते) नितरां निज प्रियावत् स्वाधिकृत समझता है (मन्त्र ११)

    टिप्पणी

    [मन्त्र में राजा को "मर्त्य" कह कर उस की दिव्यता का निरास किया है]।

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    विषय

    ‘वशा’ शक्ति का वर्णन।

    भावार्थ

    (देवानां निहितं भागं) देवों के धरोहर रखे भाग को (चेत् मर्त्यः) यदि मनुष्य (नि प्रियायते) अपने काम में लाता है या दबा लेता तो वह (ब्राह्मणेभ्यः) ब्राह्मणों को (वशाम्) उस वशा का (अददत्) दान न करके ही (पशूनाम्) पशुओं के भी (हेडं निएति) क्रोध को प्राप्त करता है।

    टिप्पणी

    (च०) ‘ऋतासे नु प्रियायते’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Vasha

    Meaning

    If mortal man misappropriates for his own self even that share of divinities which is fixed and set apart for them by divine dispensation and refuses to grant to the Brahmanas, scholars, intellectuals and teachers, the freedom of knowledge and speech, he suffers the wrath not only of divinities and men but even of the animals.

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    Translation

    He incurs the wrath of cattle who gives not the cow to the Brahmans -- if a mortal keeps to himself the deposited portion of the gods.

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    Translation

    If man the mortal appropriates the part (the cow) assigned to Davas, does not give the cow to Brahmanas, comes to face the wrath of cattles.

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    Translation

    When a man appropriates the beautiful Vedic knowledge, the well preserved wealth of the learned, withholding her from the Brahmcharis, he incurs the anger of all persons.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    २१−(हेडम्) अनादरम्। क्रोधम् (नि) निश्चयेन (एति) प्राप्नोति (ब्राह्मणेभ्यः) ब्रह्मचारिभ्यः (अददत्) म० २०। अप्रयच्छन् (वशाम्) कमनीयां वेदवाणीम् (देवानाम्) विजिगीषूणाम् (निहितम्) नियमेन स्थापितम् (भागम्) भग−अण् समूहे। भगानामैश्वर्याणां समूहं वेदवाणीम् (मर्त्यः) मनुष्यः (चेत्) यदि (नि प्रियायते) म० ११। नीचभावेन प्रिय इवाचरति ॥

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