अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 4/ मन्त्र 9
यद॑स्याः॒ पल्पू॑लनं॒ शकृ॑द्दा॒सी स॒मस्य॑ति। ततोऽप॑रूपं जायते॒ तस्मा॒दव्ये॑ष्य॒देन॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठयत् । अ॒स्या॒: । पल्पू॑लनम् । शकृ॑त् । दा॒सी । स॒म्ऽअस्य॑ति । तत॑: । अप॑ऽरूपम् । जा॒य॒ते॒ । तस्मा॑त् । अवि॑ऽएष्यत् । एन॑स: ॥४.९॥
स्वर रहित मन्त्र
यदस्याः पल्पूलनं शकृद्दासी समस्यति। ततोऽपरूपं जायते तस्मादव्येष्यदेनसः ॥
स्वर रहित पद पाठयत् । अस्या: । पल्पूलनम् । शकृत् । दासी । सम्ऽअस्यति । तत: । अपऽरूपम् । जायते । तस्मात् । अविऽएष्यत् । एनस: ॥४.९॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
वेदवाणी के प्रकाश करने के श्रेष्ठ गुणों का उपदेश।
पदार्थ
(यत्) यदि (अस्याः) इस [वेदवाणी] के (शकृत्) शक्तिवाले (पल्पूलनम्) ज्ञानसमूह को (दासी) हिंसक प्रजा [स्त्री वा पुरुष] (समस्यति) फेंक देती है। (ततः) तो (तस्मात् एनसः) उस पाप से [उस पापी को] (अव्येष्यत्) न दूर होनेवाला (अपरूपम्) कुरूप [कलङ्क का टीका] (जायते) हो जाता है ॥९॥
भावार्थ
जब कोई दुराचारी वेद आज्ञा न मानकर भारी पाप कर बैठता है, तो उसका सारा जीवन कलङ्कित हो जाता है ॥९॥
टिप्पणी
९−(यत्) यदि (अस्याः) वेदवाण्याः (पल्पूलनम्) पल गतौ−क्विप्+पूल संघाते−ल्युट्। ज्ञानसमूहम् (शकृत्) शकेर्ऋतिन्। उ० ४।५८। शक्ल शक्तौ−ऋतिन्। शक्तियुक्तम् (दासी) अ० १२।३।१३। हिंसिका प्रजा (समस्यति) सर्वथा क्षिपति (ततः) तस्मात् कारणात् (अपरूपम्) कुत्सितरूपम् (जायते) प्रादुर्भवति (तस्मात्) (अव्येष्यत्) नञ्+वि+इण् गतौ−स्यतृ। अपृथग् गमिष्यत् (एनसः) पापात् ॥
विषय
वेद की अवज्ञा से अपरूपता
पदार्थ
१. (यत्) = जब (अस्या:) = इस वेदवाणी के (शकृत्) = [शं करोति शंकृत्-शकृत] शान्ति देनेवाले अथवा [शक्] शक्ति देनेवाले (पल्पूलनम्) = [पल गतौ, पूर संघाते] ज्ञान-समूह को दासी-[दसु उपक्षये] ज्ञान का हिंसन करनेवाली, ज्ञान में अरुचिवाली प्रजा समस्यति-अपने से दूर फेंकती है, ततः तब तस्माद् एनस:-उस ज्ञानहिंसनरूप पाप से अव्येष्यत्-[अवि एष्यत्] पृथक्न होता हुआ अपत्यवर्ग अपरूपं जायते-कुरूप हो जाता है। २. भोग-विलास की प्रवृत्ति में पड़कर वह अपनी शकल ही बिगाड़ लेता है। यदि वेदज्ञान को अपने से परे नहीं फेंकता तो यह वेदज्ञान उसे 'शान्ति व शक्ति' प्राप्त करनेवाला होता है।
भावार्थ
वेदज्ञान की अवज्ञा एक ऐसा पाप है जो हमें अशक्त व अपरूप' बना देता है।
भाषार्थ
जैसे (दासी) गृहदासी (शकृत्) गोबर का (समस्यति) संग्रह करती है, वैसे दासी अर्थात् पृथिवीपति की वेतन भोगी प्रजा (अस्याः) ब्रह्मज्ञ की इस वाणी की जड़ को (पल्पूलनम्=पल्यूलनम्) काटने वाले साधनों का (यद्) जो संग्रह करती है, (ततः) उस से पृथिवीपति का (अपरूपम्) अपयश (जायते) उत्पन्न होता है, और वह (तस्मात्) उस (एनसः) पाप से (अव्येष्यत्) विगत नहीं हो पाता, छूटता नहीं।
टिप्पणी
[पल्पूलनम्=पल्पुल लवनपवनयोः (चुरादि)। अव्येष्यत्=अ (नञ्)+वि+इष् (गतौ)+स्य+शतृ। लवन=काटना तथा काटने के साधन]।
विषय
‘वशा’ शक्ति का वर्णन।
भावार्थ
(यद्) यदि (अस्याः) इस ‘वशा’ के (पल्पूलनं) मूत्र और (शकृद्) गोबर को (दासी) दासी, नौकरानी (सम् अस्यति) एकत्र मिलादे या इधर उधर फेंक दे (ततः) तो (तस्मात्) उस (एनसः) पाप से (अ-वि एष्यत्) न छूट कर (अपरूपं जायते) गौ का स्वामी भ्रष्ट रूप का हो जाता है।
टिप्पणी
(तृ०) ‘ततोपिरूपं’ इति पैप्प० सं०। (प्र०) ‘पल्यूलनं पल्पूलनं’ इति च संदिह्यते।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कश्यप ऋषिः। मन्त्रोक्ता वशा देवता। वशा सूक्तम्। १-६, ८-१९, २१-३१, ३३-४१, ४३–५३ अनुष्टुभः, ७ भुरिग्, २० विराड्, ३३ उष्णिग्, बृहती गर्भा, ४२ बृहतीगर्भा। त्रिपञ्चाशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Vasha
Meaning
And when negative and destructive forces grab the power and production of the land, desecrate its free voice and culture, thence arises the pollution and distortion of its form and character, and then recovery from sin and crime is hard.
Translation
If the lye, the ding of her a barbarian woman flings together, then is born what is deformed, what will not escape from that sin.
Translation
If a maid servant throws the urinal substance of cow with her dropping the master of cow, not cleared of that sin becomes deformed
Translation
If a violent man or woman disregards the wealthy store of knowledge of this Vedic speech, he or she gets the stain of inseparable infamy, due to that sin.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
९−(यत्) यदि (अस्याः) वेदवाण्याः (पल्पूलनम्) पल गतौ−क्विप्+पूल संघाते−ल्युट्। ज्ञानसमूहम् (शकृत्) शकेर्ऋतिन्। उ० ४।५८। शक्ल शक्तौ−ऋतिन्। शक्तियुक्तम् (दासी) अ० १२।३।१३। हिंसिका प्रजा (समस्यति) सर्वथा क्षिपति (ततः) तस्मात् कारणात् (अपरूपम्) कुत्सितरूपम् (जायते) प्रादुर्भवति (तस्मात्) (अव्येष्यत्) नञ्+वि+इण् गतौ−स्यतृ। अपृथग् गमिष्यत् (एनसः) पापात् ॥
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