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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 65/ मन्त्र 15
    ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यस्य॑ ते॒ मद्यं॒ रसं॑ ती॒व्रं दु॒हन्त्यद्रि॑भिः । स प॑वस्वाभिमाति॒हा ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । ते॒ । मद्य॑म् । रस॑म् । ती॒व्रम् । दु॒हन्ति॑ । अद्रि॑ऽभिः । सः । प॒व॒स्व॒ । अ॒भि॒मा॒ति॒ऽहा ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्य ते मद्यं रसं तीव्रं दुहन्त्यद्रिभिः । स पवस्वाभिमातिहा ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । ते । मद्यम् । रसम् । तीव्रम् । दुहन्ति । अद्रिऽभिः । सः । पवस्व । अभिमातिऽहा ॥ ९.६५.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 65; मन्त्र » 15
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 3; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यस्य) यस्य (ते) तव (मद्यं) आह्लादनीयं (तीव्रम्) उत्कटं (रसं) रसं कर्मयोगिनः (अद्रिभिः) उद्योगकर्तृशक्तिभिः (दुहन्ति) पूर्णतया दुहते। (सः) सः (अभिमातिहा) विघ्नविनाशको भवान् (पवस्व) अस्मान् पवित्रयतु ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यस्य) जिस (ते) आपके (मद्यं) आह्लादकारक (तीव्रम्) उत्कट (रसं) रस को कर्मयोगी लोग (अद्रिभिः) उद्योगरूप शक्तियों से (दुहन्ति) पूर्णरूप से दुहते हैं, (सः) वह (अभिमातिहा) विघ्नों के हनन करनेवाले आप (पवस्व) हमको पवित्र करें ॥१५॥

    भावार्थ

    कर्मयोगियों के सब विघ्नों को हनन करनेवाला परमात्मा उनके उद्योग को सफल करता है ॥१५॥

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    विषय

    'अभिमातिहा' सोम

    पदार्थ

    [१] (यस्य ते) जिस तेरे (मद्यम्) = आनन्द को देनेवाले (रसम्) = रस को (अद्रिभिः) = उपासनाओं के द्वारा (तीव्रं दुहन्ति) = खूब ही शीघ्रता से अपने में पूरित करते हैं [दुह प्रपूरणे ] । (सः) = वह तू (अभिमातिहा) = अभिमान आदि सब शत्रुओं का विनाश करनेवाला होकर (पवस्व) = हमें प्राप्त हो । [२] प्रभु की उपासना हमें वासनाओं की ओर झुकने से बचाती है। परिणामतः सोम का शरीर में ही रक्षण होता है। यही 'अद्रियों' से सोम का दोहन है। दुग्ध सोम आनन्द व उल्लास का कारण बनता है। शरीर में सुरक्षित यह सोम सब अभिमान आदि अध्यात्म शत्रुओं का विनाश करता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - उपासना से सोम का रक्षण होता है । रक्षित सोम अभिमान आदि शत्रुओं को विनष्ट करता है।

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    विषय

    बलशाली का प्रधान निर्णायक पद पर अभिषेक और उसका न्याय-कर्त्तव्य। पक्षान्तर में आत्मा का आनन्द-रस-दोहन और इन्द्रियों का दमन।

    भावार्थ

    (यस्य ते) जिस तेरे (मद्यं) अति हर्षकारी (तीव्रं) तीव्र वेगवान् (रसं) बल को लोग (अद्रिभिः दुहन्ति) मेघों से वृष्टि-जल के समान शत्रुओं से अभेद्य सैन्यों द्वारा प्राप्त करते हैं, (सः) वह तू (अभि-मातिहा) अभिमानी शत्रुओं का नाश करने वाला होकर (पवस्व) सत्यासत्य का विवेक कर। (२) अध्यात्म में—आत्मा का आनन्द-रस धर्ममेघों द्वारा दुहते हैं। वह आत्मा अस्मिता वाले इन्द्रियों का शासक है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ९, १०, १२, १३, १६, १८, २१, २२, २४–२६ गायत्री। २, ११, १४, १५, २९, ३० विराड् गायत्री। ३, ६–८, १९, २०, २७, २८ निचृद् गायत्री। ४, ५ पादनिचृद् गायत्री। १७, २३ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Whose exciting nectar, sharp and exalting in experience, devoted supplicants distil from meditation on life, that same Soma, lord of power and purity, destroyer of negativities, adversaries and enemies, we pray, may come, save and bless us with peace, purity and security.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    कर्मयोग्याच्या सर्व विघ्नांचे हनन करणारा परमात्मा त्यांचे उद्योग सफल करतो. ॥१५॥

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