ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 65/ मन्त्र 3
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
आ प॑वमान सुष्टु॒तिं वृ॒ष्टिं दे॒वेभ्यो॒ दुव॑: । इ॒षे प॑वस्व सं॒यत॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । प॒व॒मा॒न॒ । सु॒ऽस्तु॒तिम् । वृ॒ष्टिम् । दे॒वेभ्यः॑ । दुवः॑ । इ॒षे । प॒व॒स्व॒ । स॒म्ऽयत॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ पवमान सुष्टुतिं वृष्टिं देवेभ्यो दुव: । इषे पवस्व संयतम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । पवमान । सुऽस्तुतिम् । वृष्टिम् । देवेभ्यः । दुवः । इषे । पवस्व । सम्ऽयतम् ॥ ९.६५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 65; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(पवमान) हे सर्वपावक परमेश्वर ! भवान् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यः (सुष्टुतिं वृष्टिं) सुन्दरस्तुतिरूपां वेदस्य वृष्टिं (दुवः) प्रसन्नतायै (आ पवस्व) वेदवृष्टिं ददातु। अथ च (संयतं) संयमिनं माम् (इषे) ऐश्वर्यं (आ पवस्व) ददातु ॥३॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(पवमान) हे सबको पवित्र करनेवाले ! आप (देवेभ्यः) विद्वानों के लिये (सुष्टुतिं वृष्टिं) सुन्दर स्तुतिरूप वेद की वृष्टि को (दुवः) प्रसन्नता के लिये (आ पवस्व) दीजिये और मुझ (संयतं) संयमी को (इषे) ऐश्वर्य (आ पवस्व) दीजिये ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा संयमी जनों को ऐश्वर्य प्रदान करता है और जो लोग दिव्यगुणसम्पन्न हैं, उनको ही सुधामयी वृष्टि से परमात्मा सिञ्चित करता है ॥ तात्पर्य यह है कि परमात्मा की कृपाओं के पाने के लिये प्रथम मनुष्य को स्वयं पात्र बनना चाहिये। अर्थात् मनुष्य अधिकारी बनके उसके ऐश्वर्यों का पात्र बने ॥३
विषय
सुष्टुति - वृष्टि
पदार्थ
[१] हे (पवमान) = पवित्र करनेवाले सोम ! हमें (सुष्टुतिम्) = उत्तम स्तुति की वृत्ति को (वृष्टिम्) = धर्ममेघ समाधि में होनेवाली आनन्द की वर्षा को (देवेभ्यः दुवः) = देवों के लिये परिचर्या को तथा (संयतम्) = संयम को (आपवस्व) = प्राप्त करा । जिससे (इषे) = हम प्रभु-प्रेरणा के लिये हों, प्रभु की प्रेरणा को सुन सकें। [२] सोमरक्षण से हम [क] प्रभु-स्तवन की ओर झुकते हैं, [ख] समाधि में आनन्द की वृष्टि का अनुभव करते हैं। [ग] माता, पिता, आचार्य व अतिथि रूप देवों की परिचर्या करते हैं, [घ] संयम की वृत्तिवाले होते हैं। ऐसा होने पर हम सदा प्रभु की प्रेरणा को सुनते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण द्वारा हम संयमी जीवनवाले बनकर प्रभु-प्रेरणा को सुनें।
विषय
विद्वान् की सेवा करे, वह संयम से जीवन बितावे।
भावार्थ
हे (पवमान) अभिषेक प्राप्त ! तू (सुस्तुतिं आ पवस्व) उत्तम स्तुति प्राप्त कर। और (देवेभ्यः) विद्वानों का (दुवः) आदर- सत्कार, सेवा परिचर्या कर। और (इषे) उत्तम अभिलाषा, मनोकामना पूर्ण करने के लिये (संयतम्) उत्तम संयमयुक्त जीवन (आ पवस्व) व्यतीत कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ९, १०, १२, १३, १६, १८, २१, २२, २४–२६ गायत्री। २, ११, १४, १५, २९, ३० विराड् गायत्री। ३, ६–८, १९, २०, २७, २८ निचृद् गायत्री। ४, ५ पादनिचृद् गायत्री। १७, २३ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord pure and purifying, come to accept our joint song of adoration and homage and bring us the shower of your kindness and grace, honour and excellence for the sustenance and advancement of the generous nobilities of humanity.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा संयमी लोकांना ऐश्वर्य प्रदान करतो व जे लोक दिव्यगुणसंपन्न आहेत त्यांनाच परमात्मा अमृतवृष्टीने सिञ्चित करतो.
टिप्पणी
तात्पर्य हे की परमात्म्याची कृपा प्राप्त करण्यासाठी प्रथम माणसाने स्वत: पात्रता निर्माण केली पाहिजे. अर्थात माणसाने अधिकारी बनून त्याच्या ऐश्वर्याचे पात्र बनले पाहिजे. ॥३॥
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