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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 65/ मन्त्र 6
    ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यद॒द्भिः प॑रिषि॒च्यसे॑ मृ॒ज्यमा॑नो॒ गभ॑स्त्योः । द्रुणा॑ स॒धस्थ॑मश्नुषे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒त्ऽभिः । प॒रि॒ऽसि॒च्यसे॑ । मृ॒ज्यमा॑नः । गभ॑स्त्योः । द्रुणा॑ । स॒धऽस्थ॑म् । अ॒श्नु॒षे॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदद्भिः परिषिच्यसे मृज्यमानो गभस्त्योः । द्रुणा सधस्थमश्नुषे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अत्ऽभिः । परिऽसिच्यसे । मृज्यमानः । गभस्त्योः । द्रुणा । सधऽस्थम् । अश्नुषे ॥ ९.६५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 65; मन्त्र » 6
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यत्) येन कारणेन भवान् (अद्भिः) सत्कर्मभिः (परिषिच्यसे) पूजितो भवति अस्मात्कारणात् (गभस्त्योः मृज्यमानः) स्वशक्त्या शुद्धोऽस्ति। अथ च (द्रुणा) स्वशक्त्या (सधस्थं) जीवात्मानं (अश्नुषे) व्याप्तं करोति ॥६॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यत्) जिस कारण से आप (अद्भिः) सत्कर्मों से (परिषिच्यसे) पूजित होते हैं, अतः (गभस्त्योः मृज्यमानः) स्वशक्तियों से जो शुद्ध हैं और (द्रुणा) अपनी शक्ति से (सधस्थं) जीवात्मा को (अश्नुषे) व्याप्त करते हैं ॥६॥

    भावार्थ

    जो पुरुष सत्कर्म करता है, उसकी आत्मा को परमात्मा स्वशक्तियों से विभूषित करता है ॥६॥

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    विषय

    द्रुणा सधस्थमनुषे

    पदार्थ

    [१] हे सोम ! (यद्) = जब (अद्भिः) = कर्मों के द्वारा (परिषिच्यसे) = तू शरीर में ही चारों ओर सिक्त होता है, कर्मों में लगे रहने से, वासनाओं का आक्रमण न होने से सोम शरीर में ही सुरक्षित रहता है। यह सोम (गभस्त्योः) = बाहुवों में (मृज्यमानः) = सदा शुद्ध किया जाता है । 'बाह्र प्रयत्ने' यज्ञादि कर्मों को प्रयत्नपूर्वक करने में लगे रहने से ही सोम का शोधन होता है। [२] हे सोम ! तू (द्रुणा) = [द्रु गतौ] इस गतिशीलता के द्वारा ही अन्ततः (सधस्थम्) = उस परमात्मा के साथ स्थिति को (अनुषे) = प्राप्त करता है । सोम शरीर में सुरक्षित हुआ हुआ हमें गतिशील बनाता है और प्रभु को प्राप्त कराता

    भावार्थ

    भावार्थ- कर्मों में लगे रहने से हम सोमरक्षण द्वारा अन्ततः प्रभु के साथ स्थित होते हैं ।

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    विषय

    स्नान कर, स्वच्छ हो रथ में चढ़ने के तुल्य वह विद्या आदि गुणों से स्नात और सुशोभित होकर गृहस्थ में पैर रखे।

    भावार्थ

    हे स्नातक ! गृहस्थ में प्रवेश करने हारे ! तू (यत्) जो (अद्भिः) आप्त जनों या जलों से (परि सिच्यसे) स्नान कराया जाता है और (गभस्त्योः मृज्यमानः) बाहुओं द्वारा मल २ कर स्वच्छ, मलरहित किया जाता है, या माता पिता गुरु आदि द्वारा, ज्ञानादि से परिष्कृत किया जाता है, वह तू (द्रुणा) काष्ठ से बने रथ से गृह को प्राप्त हो या आसन द्वारा (सधस्थम् अश्नुषे) एक साथ समीप स्थिति प्राप्त कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ९, १०, १२, १३, १६, १८, २१, २२, २४–२६ गायत्री। २, ११, १४, १५, २९, ३० विराड् गायत्री। ३, ६–८, १९, २०, २७, २८ निचृद् गायत्री। ४, ५ पादनिचृद् गायत्री। १७, २३ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O soul of peace and purity, when you are honoured and anointed with the waters of divine sanctity, refined with the light of knowledge and tempered by yajnic fire, then by virtue of your own progress you attain to your real, innate and rightful position in society.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो पुरुष सत्कर्म करतो त्याच्या आत्म्याला परमात्मा स्वशक्तींनी विभूषित करतो. ॥६॥

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