ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 65/ मन्त्र 29
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
आ म॒न्द्रमा वरे॑ण्य॒मा विप्र॒मा म॑नी॒षिण॑म् । पान्त॒मा पु॑रु॒स्पृह॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआ । म॒न्द्रम् । आ । वरे॑ण्यम् । आ । विप्र॑म् । आ । म॒नी॒षिण॑म् । पान्त॑म् । आ । पु॒रु॒ऽस्पृह॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ मन्द्रमा वरेण्यमा विप्रमा मनीषिणम् । पान्तमा पुरुस्पृहम् ॥
स्वर रहित पद पाठआ । मन्द्रम् । आ । वरेण्यम् । आ । विप्रम् । आ । मनीषिणम् । पान्तम् । आ । पुरुऽस्पृहम् ॥ ९.६५.२९
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 65; मन्त्र » 29
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 6; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
हे जगदीश्वर ! (मन्द्रं) स्तुत्यं (वरेण्यम्) वरणीयं (विप्रम्) मेधाविनं (मनीषिणम्) मनःस्वामिनं (पुरुस्पृहं) सर्ववरणीयं (पान्तं) सर्वपवितारं भवन्तं जगदीश्वरं (आ) आवृणीमहे स्वीकुर्मो वयम् ॥२९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (मन्द्रं) जो आप सर्वोपरि स्तुति करने योग्य हैं, (वरेण्यम्) वरण करने योग्य हैं, (विप्रम्) मेधावी हैं, (मनीषिणम्) मन के स्वामी हैं, (पुरुस्पृहं) सब पुरुषों के कामना करने योग्य हैं, (पान्तं) सबके रक्षक हैं, ऐसे आपको (आ) “आवृणीमहे” हम लोग सब प्रकार से स्वीकार करते हैं ॥२९॥
भावार्थ
उक्तगुणसम्पन्न परमात्मा का वरण करना अर्थात् सब प्रकार से स्वीकार करना इस मन्त्र में बताया गया है। “आ” शब्द यहाँ प्रत्येकगुणसम्पन्न परमात्मा को भली-भाँति वर्णन करने के लिये आया है ॥२९॥
विषय
'मन्द्र- विप्र-मनीषी' सोम
पदार्थ
[१] हे सोम ! उस तुझे हम (आ) [वृणीमहे ] = वरते हैं, जो तू (मन्द्रम्) = मद व उल्लास को पैदा करनेवाला है उस तुझे आवरते हैं जो (वरेण्यम्) = वरने के योग्य है और फिर उस तुझे (आ) = वरते हैं, जो (विप्रम्) = हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाला है और (आ) = उस तुझे वरते हैं जो कि (मनीषिणम्) = उत्कृष्ट बुद्धि को प्राप्त करानेवाला है। [२] (पान्तम्) = जो तू रक्षा करनेवाला है और (आ) [वृणीमहे]= तेरा वरण करते हैं, जो तू (पुरुस्पृहम्) = बहुतों से स्पृहणीय है, चाहने योग्य है।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें 'उल्लास- पूर्णता व बुद्धि' को प्राप्त कराता है। इसीलिए यह वरेण्यम् व स्पृहणीय होता है, यही हमारा रक्षण करता है ।
विषय
वरण योग्य पुरुष के कर्त्तव्य।
भावार्थ
हम लोग इसी प्रकार (पुरु-स्पृहम्) बहुतों से चाहे गये, बहुप्रिय, बहुसम्मत, (पान्तम्) सर्वपालक, (मन्द्रम्) सब को हर्ष देने वाले, (वरेण्यं) वरण करने योग्य, सन्मार्ग में जनों को ले जाने वाले, (मनीषिणम्) बुद्धिमान् (वरेण्यम् आ आ) आदरपूर्वक वरण करने योग्य पुरुष को वरण करें और ऐसे ही सर्वप्रिय, बहुसम्मत, (रयिम्) ऐश्वर्यवान्, (सुचेतुनम्) उत्तम ज्ञानी, पुरुष को, हे (सुक्रतो) उत्तम कर्म-प्रज्ञावन् ! (तनूषु) अपने शरीरों और विस्तृत राष्ट्र कार्यों के निमित्त (आ आ आ आ आवृणीमहे) वरण किया करें। इति षष्ठो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ९, १०, १२, १३, १६, १८, २१, २२, २४–२६ गायत्री। २, ११, १४, १५, २९, ३० विराड् गायत्री। ३, ६–८, १९, २०, २७, २८ निचृद् गायत्री। ४, ५ पादनिचृद् गायत्री। १७, २३ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
We pray for your gift of peace, power and sanctity, delightfully adorable, worthy of choice, stimulating and energising, enlightening, protecting and promoting, universally loved and valued. We pray, let it flow and purify us.
मराठी (1)
भावार्थ
स्तुती करण्यायोग्य व वरण करण्यायोग्य मेधावी, कामना करण्यायोग्य अशा गुणसंपन्न परमात्म्याचे वरण करून त्याचा स्वीकार करावा ‘‘आ’’ शब्द येथे प्रत्येक गुणाने संपन्न असलेल्या परमात्म्याचे चांगल्या प्रकारे वर्णन करण्यासाठी आलेला आहे. ॥२९॥
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