ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 65/ मन्त्र 2
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
पव॑मान रु॒चारु॑चा दे॒वो दे॒वेभ्य॒स्परि॑ । विश्वा॒ वसू॒न्या वि॑श ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑मान । रु॒चाऽरु॑चा । दे॒वः । दे॒वेभ्यः॑ । परि॑ । विश्वा॑ । वसू॑नि । आ । वि॒श॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवमान रुचारुचा देवो देवेभ्यस्परि । विश्वा वसून्या विश ॥
स्वर रहित पद पाठपवमान । रुचाऽरुचा । देवः । देवेभ्यः । परि । विश्वा । वसूनि । आ । विश ॥ ९.६५.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 65; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवेभ्यस्परि देवः) सर्वोत्तमदेवः तथा यः परमेश्वरः (रुचा रुचा पवमानः) ज्ञानदीप्त्या सर्वान् पवित्रयति। एवम्भूतो जगदीश्वरः (विश्वा वसूनि) सर्वैश्वर्यैः सह (आविश) ममान्तःकरणमागत्य निवसतु ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवेभ्यस्परि देवः) जो सब देवों से उत्तम देव है तथा जो परमात्मा (रुचा रुचा पवमानः) अपनी ज्ञानदीप्ति से सबको पवित्र करता है, ऐसा परमेश्वर (विश्वा वसूनि) सब ऐश्वर्यों के साथ (आविश) मेरे अन्तःकरण में आकर निवास करे ॥२॥
भावार्थ
परमात्मा को सर्वोपरि देव इसलिये कथन किया गया है कि उन दिव्यशक्ति के आगे सब शक्तियें तुच्छ हैं, इसीलिये अन्यत्र भी वेद में कहा गया है कि “एषो देवः प्रदिशोऽनुसर्वः”। यह सर्वोपरि देव सर्वत्र परिपूर्ण है। यहाँ उसी स्वजातीय विजातीय स्वगतभेदशून्य देव से यह प्रार्थना की गई है कि हे प्रभो ! आप आकर हमारे हृदयों को शुद्ध करें ॥२॥
विषय
रुचा रुचा
पदार्थ
[१] हे (पवमान) = हमारे जीवनों को पवित्र करनेवाले सोम ! (रुचा रुचा) = एक-एक ज्ञानदीप्ति के द्वारा तू (देवः) = प्रकाशमय है। हमारे जीवनों को ज्योतियों से भरनेवाला है । [२] (देवेभ्यः) = इन दिव्य गुणों के द्वारा तू (विश्वा वसूनि) = सब वसुओं को, निवास के लिये आवश्यक तत्त्वों को (परि आविश) = [आवेशय] हमारे में प्रविष्ट करनेवाला हो। दिव्य गुणों के साथ वसुओं का सम्बन्ध है। आसुरभाव वसुओं के विनाशक हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोम ज्ञानदीप्तियों से हमारे जीवन को दिव्य बनानेवाला हो ।
विषय
विवेकी, योग्य-विद्या स्नातक ऐश्वर्य प्राप्त करे।
भावार्थ
हे (पवमान) आगे बढ़ने हारे ! सत्यासत्य विवेक करने हारे ! हे अभिषेक योग्य स्नातक ! विद्वन् ! तू (देवः) दानशील, तेजस्वी होकर (देवेभ्यः परि) सब अन्य मनुष्यों से ऊपर होकर (रुचारुचा) खूब तेज से (विश्वा वसूनि) सब प्रकार के ऐश्वर्यों को (आ विश) प्राप्त कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ९, १०, १२, १३, १६, १८, २१, २२, २४–२६ गायत्री। २, ११, १४, १५, २९, ३० विराड् गायत्री। ३, ६–८, १९, २०, २७, २८ निचृद् गायत्री। ४, ५ पादनिचृद् गायत्री। १७, २३ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May the self-refulgent lord supreme over all divinities of nature and humanity, pure and purifying, by his divine beauty and glory bring us all wealth, honour and excellence of the world and bless our heart and soul.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराला सर्वोत्कृष्ट देव यासाठी म्हटले आहे की त्या दिव्य शक्तीसमोर सर्व शक्ती तुच्छ आहेत. त्यासाठी अन्यत्रही वेदामध्ये म्हटले आहे की ‘एषो देव: प्रदिशोनुसर्व:’ हा सर्वोत्कृष्ट देव सर्वत्र परिपूर्ण आहे. येथे त्याच स्वजातीय-विजातीय स्वगत भेदशून्य देवाला ही प्रार्थना केलेली आहे की हे प्रभो! तू आमचे हृदय शुद्ध कर ॥२॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal