ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 65/ मन्त्र 8
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
यस्य॒ वर्णं॑ मधु॒श्चुतं॒ हरिं॑ हि॒न्वन्त्यद्रि॑भिः । इन्दु॒मिन्द्रा॑य पी॒तये॑ ॥
स्वर सहित पद पाठयस्य॑ । वर्ण॑म् । म॒धु॒ऽश्चुत॑म् । हरि॑म् । हि॒न्वन्ति॑ । अद्रि॑ऽभिः । इन्दु॑म् । इन्द्रा॑य । पी॒तये॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्य वर्णं मधुश्चुतं हरिं हिन्वन्त्यद्रिभिः । इन्दुमिन्द्राय पीतये ॥
स्वर रहित पद पाठयस्य । वर्णम् । मधुऽश्चुतम् । हरिम् । हिन्वन्ति । अद्रिऽभिः । इन्दुम् । इन्द्राय । पीतये ॥ ९.६५.८
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 65; मन्त्र » 8
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यस्य) यस्य परमात्मनः (वर्णं) स्वरूपम् (मधुश्चुतं) आनन्ददायकं वर्तते तं (हरिं) पापहर्तारं (इन्दुम्) स्वतःप्रकाशं परमात्मानं (अद्रिभिः) चित्तवृत्त्या (हिन्वन्ति) उपासका ध्यानविषयं कुर्वन्ति। (इन्द्राय) कर्मयोगिनः (पीतये) तृप्तये एतादृश्युपासना कर्तव्या नान्या ॥८॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(यस्य) जिस परमात्मा का (वर्णं) स्वरूप (मधुश्चुतं) आनन्द देनेवाला है, उस (हरिं) पाप को हरण करनेवाले (इन्दुम्) स्वतःप्रकाश परमात्मा को (अद्रिभिः) चित्तवृत्तियों द्वारा (हिन्वन्ति) उपासक लोग ध्यान का विषय बनाते हैं। (इन्द्राय) कर्मयोगी की (पीतये) तृप्ति के लिये इसी प्रकार की उपासना उचित समझनी चाहिये, अन्य नहीं ॥८॥
भावार्थ
जो लोग अपनी चित्तवृत्तियों को निरोध करके परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं, वे ही कर्मयोगी कहला सकते हैं, अन्य नहीं ॥८॥
विषय
वर्ण- मधुश्चुत्-हरि
पदार्थ
[१] (यस्य) = जिस सोम के (वर्णम्) = शत्रु नाशक, (मधुश्चतम्) = माधुर्य को क्षरित करनेवाले (हरिम्) = दुःखों के हरणकर्ता रस को (अद्रिभिः) = प्रभु की उपासनाओं के द्वारा [ adore अद्रि] (हिन्वन्ति) = अपने में प्रेरित करते हैं। उस (इन्दुम्) = सोम को हम (इन्द्राय) = परमैश्वर्यशाली प्रभु की प्राप्ति के लिये और (पीतये) = अपने रक्षण के लिये धारण करें। [२] शरीर में सुरक्षित सोम सब रोगों का वारक है [वर्ण] जीवन को मधुर बनानेवाला है [मधुश्चुतम् ] सब कष्टों का हरण करनेवाला है [हरि] । इस सोम के रक्षण से ही हम प्रभु को प्राप्त करते हैं और अपना रक्षण कर पाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम 'वर्ण- मधुश्श्रुत्-हरि' है। इसका धारण ही प्रभु प्राप्ति व नीरोगता का साधन है ।
विषय
वीर पुरुष की स्तुति।
भावार्थ
(यस्य) जिसके (इन्दुम्) तेजस्वी, (मधुश्चुतम्) मधुर, सुखप्रद, (हरिम्) दुःखहारी, मनोहर (वर्णं) शत्रुवारक जन या सैन्य बल को (अद्रिभिः) नाना शस्त्रों से (इन्द्राय पीतये) ऐश्वर्यवान् राष्ट्र वा राष्ट्रपति पद के पालन के लिये बढ़ाते हैं
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ९, १०, १२, १३, १६, १८, २१, २२, २४–२६ गायत्री। २, ११, १४, १५, २९, ३० विराड् गायत्री। ३, ६–८, १९, २०, २७, २८ निचृद् गायत्री। ४, ५ पादनिचृद् गायत्री। १७, २३ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Whose essential being and existential identity, honeyed sweet of infinite kindness, destroyer of want and suffering, devotees adore, exalt and move with holy songs and yajnic actions for the satisfaction and beatification of the soul.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक आपल्या चित्तवृत्तींचा निरोध करून परमात्म्याचा साक्षात्कार करतात तेच कर्मयोगी म्हणविले जाऊ शकतात. इतर नाही. ॥८॥
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