ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 65/ मन्त्र 5
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - पादनिचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
आ प॑वस्व सु॒वीर्यं॒ मन्द॑मानः स्वायुध । इ॒हो ष्वि॑न्द॒वा ग॑हि ॥
स्वर सहित पद पाठआ । पा॒व॒स्व॒ । सु॒ऽवीर्य॑म् । मन्द॑मानः । सु॒ऽआ॒यु॒ध॒ । इ॒हो इति॑ । सु । इ॒न्दो॒ इति॑ । आ । ग॒हि॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ पवस्व सुवीर्यं मन्दमानः स्वायुध । इहो ष्विन्दवा गहि ॥
स्वर रहित पद पाठआ । पावस्व । सुऽवीर्यम् । मन्दमानः । सुऽआयुध । इहो इति । सु । इन्दो इति । आ । गहि ॥ ९.६५.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 65; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्दो) हे जगदीश्वर ! भवान् (सुवीर्यम्) अस्मत्पराक्रमं (आ पवस्व) सर्वथा पवित्रयतु। यतस्त्वं (मन्दमानः) आनन्दमूर्तिरसि। अथ च (स्वायुधः) भवान् स्वयम्भूरस्ति। (इह उ) अत्रैव (सु) सुतराम् (आ गहि) आगत्य मामनुगृहाण ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्दो) हे सर्वप्रकाश परमात्मन् ! आप (सुवीर्यम्) हमारे पराक्रम को (आ पवस्व) सब प्रकार से पवित्र करें। (मन्दमानः) आप आनन्दस्वरूप हैं और (स्वायुधः) आप स्वयम्भू हैं। (इह उ) यहाँ ही (सु) भली-भाँति (आ गहि) हमको आकर अनुग्रहण करिये ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा के आह्वान करने का तात्पर्य स्वकर्माभिमुख करने का है अर्थात् आप हमारे कर्मों के अनुकूल फलप्रदान करें। परमात्मा सर्वव्यापक है, इसलिये एक स्थान से उठकर किसी दूसरे स्थान में जाना उसका नहीं हो सकता। इस प्रकार बुलाने का तात्पर्य सर्वत्र हृदयदेश में अवगत करने का समझना चाहिये, कुछ अन्य नहीं ॥५॥
विषय
मन्दमान सोम
पदार्थ
[१] हे (स्वायुध) = उत्तम इन्द्रियों, मन व बुद्धि रूप आयुधोंवाले सोम (मन्दमानः) = हमें आनन्दित करता हुआ तू (सुवीर्यम्) = उत्तम शक्ति को (आपवस्व) = सर्वथा प्राप्त करा। [२] हे (इन्दो) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले सोम ! (इह उ) = इस शरीर में ही (सु) = उत्तमता से (आगहि) = तू हमें प्राप्त हो ।
भावार्थ
भावार्थ- सुरक्षित सोम इन्द्रियों, मन व बुद्धि को उत्तम बनाता है ।
विषय
शस्त्र आदि से शोभित होकर राजा वा वीर के तुल्य गृहस्थ में प्रवेश करे।
भावार्थ
हे (इन्दो) वीर्यवन् ! ऐश्वर्यवन् ! हे (सु-आयुध) उत्तम शस्त्र से शोभित ! तू (मन्दमानः) हर्षयुक्त होता हुआ (सु-वीर्यम् आ पवस्व) उत्तम वीर्य, तेज प्रदान कर। (इह आ गहि) इस आश्रम में आ। इति प्रथमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ९, १०, १२, १३, १६, १८, २१, २२, २४–२६ गायत्री। २, ११, १४, १५, २९, ३० विराड् गायत्री। ३, ६–८, १९, २०, २७, २८ निचृद् गायत्री। ४, ५ पादनिचृद् गायत्री। १७, २३ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O divine spirit of peace, purity and abundance, joyous wielder of noble arms, come to us and let pure, creative courage and virility flow in abundance for us.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमात्म्याच्या आव्हानाचा अर्थ स्वकर्माभिमुख करण्याचा आहे, अर्थात् तू आमच्या कर्मानुकूल फल प्रदान कर. परमात्मा सर्व व्यापक आहे त्यामुळे तो एका स्थानाहून दुसऱ्या स्थानी जात नाही. या प्रकारे आव्हान करण्याचे तात्पर्य सर्वत्र हृदयात अवगत करणे हे समजले पाहिजे, दुसरे काही नाही. ॥५॥
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