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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 65 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 65/ मन्त्र 18
    ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा देवता - पवमानः सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    आ न॑: सोम॒ सहो॒ जुवो॑ रू॒पं न वर्च॑से भर । सु॒ष्वा॒णो दे॒ववी॑तये ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । नः॒ । सो॒म॒ । सहः॑ । जुवः॑ । रू॒पम् । न । वर्च॑से । भ॒र॒ । सु॒स्वा॒नः । दे॒वऽवी॑तये ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ न: सोम सहो जुवो रूपं न वर्चसे भर । सुष्वाणो देववीतये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ । नः । सोम । सहः । जुवः । रूपम् । न । वर्चसे । भर । सुस्वानः । देवऽवीतये ॥ ९.६५.१८

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 65; मन्त्र » 18
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोम) हे परमात्मन् ! (देववीतये) देवमार्गप्राप्तये (नः) अस्मान् (आ भर) सर्वविधाभ्युदयैः परिपूरयतु। भवान् सर्वेषां (सुस्वानः) उत्पत्तिस्थानमस्ति। अथ च (सहः) शत्रुनाशकोऽस्ति तथा (जुवः) शीघ्रगतिशीलो भवान् (वर्चसे) प्रकाशाय (रूपं न) स्वरूपं वितरतु ॥१८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोम) हे परमात्मन् ! (देववीतये) देवमार्ग की प्राप्ति के लिये (नः) हमको (आ भर) सब प्रकार के अभ्युदयों से आप भरपूर करें। आप सबके (सुस्वानः) उत्पत्तिस्थान हैं और (सहः) शत्रुबलनाशक (जुवः) शीघ्रगतिवाले आप (वर्चसे) प्रकाश के लिये (रूपं न) रूप हमको दें ॥१८॥

    भावार्थ

    परमात्मा जिन पुरुषों में दैवी सम्पत्ति के गुण देता है, उनको तेजस्वी बनाता है और सब प्रकार के ऐश्वर्यों का भण्डार बना कर उनको सर्वोपरि बनाता है ॥१८॥

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    विषय

    बल-वेग-वर्चस् व दिव्यता

    पदार्थ

    [१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! (नः) = हमारे लिये (सहः) = शत्रुओं को अभिभूत करनेवाले बल को, (जुवः) = कर्मों को शीघ्रता से करनेवाले वेग को (न) = और [न=च] (रूपम्) = तेजस्वी रूप को (आभर) = प्राप्त करा । तू हमारे (वर्चसे) = वर्चस् के लिये हो, उस प्राणशक्ति के लिये हो जो रोगकृमियों का विनाश करती है । [२] (सुष्वाणः) = उत्पन्न किया जाता हुआ तू देव (वीतये) = दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिये हो । तेरे शरीर में उत्पन्न व धारण करने से हम दिव्य गुणों को प्राप्त करनेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सुरक्षित सोम हमें 'बल-वेग-वर्चस् व दिव्यता' को प्राप्त कराता है ।

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    विषय

    मनुष्यों के पालानार्थ राजा का अभिषेक, वह प्रजा के बल, धन और तेज को बढ़ावे।

    भावार्थ

    हे (सोम) ऐश्वर्यवन् ! उत्तम शासक ! तू (देव-वीतये) मनुष्यों के पालन करने के लिये, (सुस्वानः) सब से अभिषेक किया जाता हुआ, (नः) हमारे (सहः) बल और (जुवः) वेग को और (रूपं) स्वर्णादि धन को (वर्चसे) तेज वृद्धि के लिये (आ भर) धारण कर, प्राप्त कर और हमें भी प्राप्त करा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ९, १०, १२, १३, १६, १८, २१, २२, २४–२६ गायत्री। २, ११, १४, १५, २९, ३० विराड् गायत्री। ३, ६–८, १९, २०, २७, २८ निचृद् गायत्री। ४, ५ पादनिचृद् गायत्री। १७, २३ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma, lord of vital creativity and lustrous vigour, and fluent power and progressive energy, bring us the courage of constancy, forbearance, vibrant vigour and enthusiasm, and an impressive personality for the sake of illuminative lustre of life so that we may follow the path of divinity while living here and after.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा ज्या पुरुषांना दैवी संपत्तीचे गुण देतो त्यांना तेजस्वी बनवितो व सर्व प्रकारच्या ऐश्वर्याचे भांडार बनवून त्यांना सर्वश्रेष्ठ बनवितो. ॥१८॥

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