ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 65/ मन्त्र 24
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
ते नो॑ वृ॒ष्टिं दि॒वस्परि॒ पव॑न्ता॒मा सु॒वीर्य॑म् । सु॒वा॒ना दे॒वास॒ इन्द॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठते । नः॒ । वृ॒ष्टिम् । दि॒वः । परि॑ । पव॑न्ताम् । आ । सु॒ऽवीर्य॑म् । सु॒वा॒नाः । दे॒वासः॑ । इन्द॑वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
ते नो वृष्टिं दिवस्परि पवन्तामा सुवीर्यम् । सुवाना देवास इन्दवः ॥
स्वर रहित पद पाठते । नः । वृष्टिम् । दिवः । परि । पवन्ताम् । आ । सुऽवीर्यम् । सुवानाः । देवासः । इन्दवः ॥ ९.६५.२४
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 65; मन्त्र » 24
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ते) ते विद्वांसः (नः) अस्मभ्यं (वृष्टिं) वृष्टिं (दिवस्परि) द्युलोकतो वर्षयन्तु। (इन्दवः) ऐश्वर्यसम्पन्नाः (देवासः) दिव्यगुणाः पण्डिताः (सुवीर्यम्) पराक्रमम् (सुवानाः) उत्पादयन्तः (आ पवन्तां) सर्वथास्मान् पवित्रयन्तु ॥२४॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ते) वे विद्वान् (नः) हमारे लिये (वृष्टिं) वृष्टि को (दिवस्परि) द्युलोक से बरसायें। ऐश्वर्यवाले (इन्दवः) दिव्यगुणसम्पन्न विद्वान् (सुवीर्यम्) पराक्रम को (सुवानाः) पैदा करते हुए (आ पवन्तां) हमको सब प्रकार से पवित्र करें ॥२४॥
भावार्थ
द्युलोक से वृष्टि करने का तात्पर्य यहाँ हिमालय आदि दिव्य स्थानों से जल की धाराओं से सींच देने का है। जो विद्वान् व्यवहारविषय के सब विद्याओं के वेत्ता होते हैं, वे अपने विद्याबल से प्रजा में सुवृष्टि करके अद्भुत पराक्रम को उत्पन्न कर देते हैं। उक्त विद्वानों से शिक्षा लेकर सुरक्षित होने का उपदेश यहाँ परमात्मा ने किया है ॥२४॥
विषय
देवासः-इन्दवः
पदार्थ
[१] (ते) = वे गत मन्त्रों में वर्णित सोमकण (नः) = हमारे लिये (दिवः परि) = द्युलोक से मस्तिष्क में स्थित सहस्रारचक्र से (वृष्टिम्) = धर्ममेघ समाधि में होनेवाली आनन्द की वर्षा को (पवन्ताम्) = प्राप्त करायें। सोमकणों का रक्षण समाधि सिद्धि में भी बड़ा सहायक होता है। [२] ये सोमकण (सुवीर्यम्) = उत्पन्न किये जाते हुए ये सोमकण (देवासः) = दिव्य गुणों को जन्म देनेवाले होते हैं, और (इन्दवः) = हमें शक्तिशाली बनानेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोमकणों का रक्षण हमें समाधि के सर्वोच्च आनन्द को प्राप्त करने के योग्य बनाता है। ये हमारे में दिव्यगुणों को पैदा करते हैं और हमें शक्ति सम्पन्न बनाते हैं ।
विषय
अभिषिक्तों का आकाश में नक्षत्रवत् प्रजाओं में स्थिति।
भावार्थ
(ते) वे (देवासः) तेजस्वी, दानशील, (इन्दवः) दयालु पुरुष (सुवानासः) अभिषिक्त होते हुए (दिवः परि) आकाश से (वृष्टिम्) वृष्टि के समान हमारे दुःखों का छेदन करने वाली शक्ति (पवन्ताम्) प्राप्त करें और (नः सुवीर्यं परि पवन्ताम्) हमें उत्तम बल प्रदान करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ९, १०, १२, १३, १६, १८, २१, २२, २४–२६ गायत्री। २, ११, १४, १५, २९, ३० विराड् गायत्री। ३, ६–८, १९, २०, २७, २८ निचृद् गायत्री। ४, ५ पादनिचृद् गायत्री। १७, २३ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
May the divinities of nature and humanity, pure, vibrant and blissful, activated, seasoned and cultured anywhere, bring us showers of power, virility and creativity from the lights of heaven and energise and sanctify us.
मराठी (1)
भावार्थ
द्युलोकातून वृष्टी करण्याचे तात्पर्य येथे हिमालय इत्यादी दिव्यस्थानाहून जलाच्या धारा सिंचित करण्याचा आहे. हे विद्वान व्यवहार विद्येचे वेत्ते असतात ते आपल्या विद्याबलाने प्रजेत सुदृष्टी निर्माण करून अद्भुत पराक्रम उत्पन्न करतात. वरील विद्वानांकडून शिकवण घेऊन सुरक्षित होण्याचा उपदेश येथे परमेश्वराने केलेला आहे.॥२४॥
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