ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 65/ मन्त्र 19
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अर्षा॑ सोम द्यु॒मत्त॑मो॒ऽभि द्रोणा॑नि॒ रोरु॑वत् । सीद॑ञ्छ्ये॒नो न योनि॒मा ॥
स्वर सहित पद पाठअर्ष॑ । सो॒म॒ । द्यु॒मत्ऽत॑मः । अ॒भि । द्रोणा॑नि । रोरु॑वत् । सीद॑न् । श्ये॒नः । न । योनि॑म् । आ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्षा सोम द्युमत्तमोऽभि द्रोणानि रोरुवत् । सीदञ्छ्येनो न योनिमा ॥
स्वर रहित पद पाठअर्ष । सोम । द्युमत्ऽतमः । अभि । द्रोणानि । रोरुवत् । सीदन् । श्येनः । न । योनिम् । आ ॥ ९.६५.१९
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 65; मन्त्र » 19
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोम) हे परमात्मन् ! भवान् (श्येनो न) विद्युदिव गतिशीलोऽस्ति। (द्रोणानि) समस्तलोकेषु (रोरुवत्) गतिशीलः सन् सर्वत्र विराजितो भवतु। तथा (द्युमत्तमः) भवान् स्वयंप्रकाशोऽस्ति। अथ च (योनिं) मदन्तःकरणेषु (आसीदन्) विराजमानः (अभ्यर्ष) मम हृदयं पवित्रयतु ॥१९॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोम) हे परमात्मन् ! आप (श्येनः) विद्युत् के (न) समान गतिशील हैं। (द्रोणानि) सम्पूर्ण लोक-लोकान्तरों में (रोरुवत्) गतिशील होकर आप सर्वत्र विराजमान हैं और (द्युमत्तमः) आप स्वयंप्रकाश हैं। (योनिं) हमारे हृदयस्थान में (आसीदन्) विराजमान होकर (अभ्यर्ष) हमारे हृदय को शुद्ध करें ॥१९॥
भावार्थ
परमात्मा स्वयंप्रकाश है और उसी के प्रकाश से सब पदार्थ प्रकाशित होते हैं ॥१९॥
विषय
द्युमत्तमः- रोरुवत् श्येनः
पदार्थ
[१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! (द्युमत्तमः) = अतिशयेन ज्योतिर्मयी होती हुई तू (द्रोणानि अभि) = इन शरीर पात्रों की ओर (अर्ष) = गतिवाली हो। तेरा शरीर में ही व्यापन हो । शरीरस्थ होकर तू (रोरुवत्) = खूब ही उस प्रभु के नामों का उच्चारण करनेवाली हो । सोमरक्षण से प्रभु-स्तवन की वृत्ति तो उत्पन्न होती ही है । [२] तू (श्येनः न) = शंसनीय गतिवाले के समान होता हुआ, शुभकर्मों में प्रवृत्त हुआ हुआ (योनिम्) = अपने उत्पत्ति-स्थान में ही (आसीदन्) = स्थित होनेवाला हो । सोम शरीर में उत्पन्न होता है, यह शरीर में ही स्थित हो । वस्तुतः तभी यह शंसनीय गतिवाला, प्रशस्त कर्मोंवाला होता है । सोमरक्षण करनेवाला पुरुष कभी अशुभ कर्मों में प्रवृत्त नहीं होता ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम ज्योतिर्मय, स्तुतिमय व शंसनीय गतिवाला है। 'द्युमत्तमः' से ज्ञानकाण्ड का संकेत है, 'रोरुवत्' से उपासना काण्ड का तथा 'श्येनः ' से कर्मकाण्ड का । सोम हमारे तीनों काण्डों को प्रशस्त करता है ।
विषय
राजा का श्येनपक्षी के समान तेजस्विता का मार्ग।
भावार्थ
(श्येनः न) श्येन, बाज, गरुड़ पक्षी के समान तू (योनिम् आ सीदन्) अपने स्थिर पद पर विराजता हुआ, हे (सोम) ऐश्वर्यवन् शासक ! (द्युमत्-तमः) सब से अधिक तेजस्वी होकर (आ रोरुवत्) सब ओर आज्ञाएं देता हुआ (द्रोणानि) समस्त राष्ट्र के मार्गों को (अर्ष) प्राप्त कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ९, १०, १२, १३, १६, १८, २१, २२, २४–२६ गायत्री। २, ११, १४, १५, २९, ३० विराड् गायत्री। ३, ६–८, १९, २०, २७, २८ निचृद् गायत्री। ४, ५ पादनिचृद् गायत्री। १७, २३ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma, spirit of divine power and peace of purity, most potent and most refulgent, come roaring at the speed and force of thunder and abide in the heart of the faithful celebrant like the eagle in its nest, purify and sanctify the soul.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा स्वयंप्रकाशी आहे व त्याच्या प्रकाशाने सर्व पदार्थ प्रकाशित होतात. ॥१९॥
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