ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 65/ मन्त्र 20
ऋषिः - भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒प्सा इन्द्रा॑य वा॒यवे॒ वरु॑णाय म॒रुद्भ्य॑: । सोमो॑ अर्षति॒ विष्ण॑वे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒प्साः । इन्द्रा॑य । वा॒यवे॑ । वरु॑णाय । म॒रुत्ऽभ्यः॑ । सोमः॑ । अ॒र्ष॒ति॒ । विष्ण॑वे ॥
स्वर रहित मन्त्र
अप्सा इन्द्राय वायवे वरुणाय मरुद्भ्य: । सोमो अर्षति विष्णवे ॥
स्वर रहित पद पाठअप्साः । इन्द्राय । वायवे । वरुणाय । मरुत्ऽभ्यः । सोमः । अर्षति । विष्णवे ॥ ९.६५.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 65; मन्त्र » 20
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोमः) सर्वपूज्यः परमात्मा (इन्द्राय वायवे) गतिशीलकर्मयोगिविदुषे तथा (मरुद्भ्यः) पदार्थज्ञेभ्यः अथ च (वरुणाय) विद्याबलेन सर्वाच्छादकाय (विष्णवे) ज्ञानयोगिविदुषे (अप्सा अर्षति) स्वज्ञानरूपगत्या प्राप्तो भवति ॥२०॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोमः) सर्वपूज्य परमात्मा (इन्द्राय वायवे) कर्मयोगी विद्वानों के लिये (मरुद्भ्यः) पदार्थविद्यावेत्ता विद्वानों के लिये (वरुणाय) अपने विद्याबल से सबको आच्छादन करनेवाले विद्वान् के लिये और (विष्णवे) ज्ञानयोगी विद्वान् के लिये (अप्सा अर्षति) अपनी ज्ञानरूपी गति से प्राप्त होता है ॥२०॥
भावार्थ
जो लोग ज्ञानयोग, कर्मयोग इत्यादि योगों से परमात्मा की आज्ञा का पालन करते हैं, उनको परमात्मा अपनी ज्ञानगति से अवश्यमेव प्राप्त होता है ॥२०॥
विषय
सोमपायी 'इन्द्र, वायु, वरुण, मरुत् व विष्णु'
पदार्थ
[१] (अप्सा:) = [अपां संभक्ता] कर्मों का सेवन करनेवाला (सोमः) = सोम इन्द्राय (अर्षति) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये प्राप्त होता है। (वायवे) = क्रियाशील पुरुष के लिये प्राप्त होता है । जितेन्द्रियता के लिये क्रिया में लगे रहना ही साधन है। [२] (वरुणाय) = यह सोम पापों का निवारण करनेवाले के लिये प्राप्त होता है। कर्मों में लगे रहने से पाप दूर ही रहते हैं । पापों में फँसे और सोम का नाश हुआ। (मरुद्भ्यः) = यह सोम मितरावियों के लिये प्राप्त होता है, कर्मशील मितरावी होता ही है । [३] यह सोम (विष्णवे) = व्यापक मनोवृत्तिवाले के लिये प्राप्त होता है। व्यापकता व उदारता ही सब आसुरभावों को दूर रखती है। आसुरभाव दूर रहते हैं, तभी सोम का रक्षण होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम का पान 'इन्द्र, वायु, वरुण, मरुत् व विष्णु' करते हैं ।
विषय
समस्त प्रजा के सेवक के तुल्य राजा को उत्तम उद्योग से उत्तम २ अधिकार प्राप्ति।
भावार्थ
(इन्द्राय) ऐश्वर्यवान्, शत्रु हन्ता, (वरुणाय) दुष्टों के वारण करने वाले, (मरुद्भ्यः) वायुवत् बलवान् पुरुषों और (विष्णवे) व्यापक बल इन सब के लाभ के लिये (अप्साः) जलोंवत् प्रजाओं और आप्त पुरुषों का सेवक (सोमः) उत्तम शासक (अर्षति) उद्योग करे। इति चतुर्थो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भृगुर्वारुणिर्जमदग्निर्वा ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ९, १०, १२, १३, १६, १८, २१, २२, २४–२६ गायत्री। २, ११, १४, १५, २९, ३० विराड् गायत्री। ३, ६–८, १९, २०, २७, २८ निचृद् गायत्री। ४, ५ पादनिचृद् गायत्री। १७, २३ ककुम्मती गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma, spirit of the innate peace and power of divinity, by its own will and energy, radiates to the heart and soul of the devotee to vest it with the power of cosmic energy (Indra), the speed of winds (Vayu), pioneering spirit of the storm (Maruts), the depth of space (Varuna), and the love of omnipresent divinity (Vishnu).
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक ज्ञानयोग, कर्मयोग इत्यादी योगांनी परमेश्वराची आज्ञा पाळतात त्यांना परमेश्वर आपल्या ज्ञानगतीने अवश्य प्राप्त होतो. ॥२०॥
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