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यजुर्वेद अध्याय - 1

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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 10
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - भूरिक् बृहती, स्वरः - मध्यमः
    2

    दे॒वस्य॑ त्वा सवि॒तुः प्र॑स॒वेऽश्विनो॑र्बा॒हुभ्यां॑ पू॒ष्णो हस्ता॑भ्याम्। अ॒ग्नये॒ जुष्टं॑ गृह्णाम्य॒ग्नीषोमा॑भ्यां॒ जुष्टं॑ गृह्णामि॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वस्य॑। त्वा॒। सवि॒तुः। प्र॒स॒व इति॑ प्रऽस॒वे। अ॒श्विनोः॑। बा॒हुभ्या॒मिति॑ बा॒हुभ्या॑म्। पू॒ष्णः। हस्ता॑भ्याम्। अ॒ग्नये॑। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒। अ॒ग्नीषोमा॑भ्याम्। जुष्ट॑म्। गृ॒ह्णा॒मि॒ ॥१०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवस्य त्वा सवितुः प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्याम् । अग्नये जुष्टङ्गृह्णागृह्णाम्यग्नीषोमाभ्यां जुष्टङ्गृह्णामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवस्य। त्वा। सवितुः। प्रसव इति प्रऽसवे। अश्विनोः। बाहुभ्यामिति बाहुभ्याम्। पूष्णः। हस्ताभ्याम्। अग्नये। जुष्टम्। गृह्णामि। अग्नीषोमाभ्याम्। जुष्टम्। गृह्णामि॥१०॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 10
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    संस्कृत (2)

    विषयः

    तस्य यज्ञफलस्य ग्रहणं केन कुर्वन्तीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यत्सवितुर्देवस्य प्रसवेऽश्विनोर्बाहुभ्यां पूष्णो हस्ताभ्यामग्नये जुष्टमस्ति त्वा तत् कर्माहं गृह्णामि। एवं च यद्विद्वद्भिरग्नीषोमाभ्यां जुष्टं प्रीतं चारु फलमस्ति तदहं गृह्णामि॥१०॥

    पदार्थः

    (देवस्य) सर्वजगत्प्रकाशकस्य सर्वसुखदातुरीश्वरस्य (त्वा) तत्। (सवितुः) सविता वै देवानां प्रसविता। (शत॰१।१।२।१७॥) तस्य सर्वजगदुत्पादकस्य सकलैश्वर्य्यप्रदातुः (प्रसवे) सवितृप्रसूतेऽस्मिन् जगति (अश्विनोः) सूर्य्याचन्द्रमसोरध्वर्य्वोर्वा सूर्य्याचन्द्रमसावित्येके। (निरु॰१२।१) (बाहुभ्याम्) बलवीर्य्याभ्याम्। वीर्यं वा एतद्राजन्यस्य यद्बाहू। (शत॰५।३।३।१७) (पूष्णः) पुष्टिकर्तुः प्राणस्य (हस्ताभ्याम्) ग्रहणविसर्जनाभ्याम् (अग्नये) अग्निविद्यासंपादनाय (जुष्टम्) विद्यां चिकीर्षुभिः सेवितं कर्म (गृह्णामि) स्वीकरोमि। (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्निश्च सोमश्च ताभ्यामग्निजलविद्याभ्याम् (जुष्टम्) विद्वद्भिः प्रीतं फलम् (गृह्णामि) पूर्ववत्॥ अयं मन्त्रः (शत॰१।१।२।१७-१९) व्याख्यातः॥१०॥

    भावार्थः

    विद्वद्भिर्मनुष्यैर्विद्वत्सङ्गत्या सम्यक् पुरुषार्थेनेश्वरेणोत्पादितायामस्यां सृष्टौ सकलविद्यासिद्धये सूर्य्याचन्द्राग्निजलादिपदार्थानां सकाशात् सर्वेषां बलवीर्य्यवृद्धये च सर्वा विद्याः संसेव्यप्रचारणीयाः। यथा जगदीश्वरेण सकलपदार्थानामुत्पादनधारणाभ्यां सर्वोपकारः कृतोऽस्ति तथैवास्माभिरपि नित्यं प्रयतितव्यम्॥१०॥

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    विषयः

    तस्य यज्ञफलस्य ग्रहणं केन कुर्वन्तीत्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    यत् सवितुः तस्य सर्वजगदुत्पादकस्य सकलैश्वर्यप्रदातु: देवस्य सर्वजगत् प्रकाशकस्य सर्वसुखदातुरीश्वरस्य प्रसवे सवितृप्रसूतेऽस्मिन् जगति अश्विनोः सूर्याचन्द्रमसोरध्वर्य्वोर्वा बाहुभ्यां बलवीर्याभ्यां पूष्णः पुष्टिकर्त्तुः प्राणस्य हस्ताभ्यां ग्रहणविसर्जनाभ्याम् अग्नये अग्निविद्यासम्पादनाय जुष्टं विद्यां चिकीर्षुभिः सेवितं कर्म अस्ति, त्वा=तत्कर्माऽहं गृह्णामि स्वीकरोमि।

    एवं च यद्विद्वद्भिरग्नीषोमाभ्याम् अग्निश्च सोमश्च ताभ्यामग्निजलविद्याभ्यां जुष्टं=प्रीतं चारु फलं विद्वद्भिः प्रीतं फलम् अस्ति तदहं गृह्णामि स्वीकरोमि॥ १।१०॥

    पदार्थः

    (देवस्य) सर्वजगत्प्रकाशकस्य सर्वसुखदातुरीश्वरस्य (त्वा) तत् (सवितुः) सविता वै देवानां प्रसवि ता॥ श० १। १। २। १७॥ तस्य सर्वजगदुत्पादकस्य सकलैश्वर्यप्रदातुः (प्रसवे) सवितृप्रसूतेऽस्मिन् जगति (अश्विनोः) सूर्याचन्द्रमसोरध्वर्य्वोर्वा। सूर्याचन्द्रमसावित्येके॥ निरु० १२॥ १॥ (बाहुभ्याम्) बलवीर्याभ्याम्। वीर्यं वा एतद्राजन्यस्य यद्बाहू॥ श० ५। ३। ३। १७॥ (पूष्णः) पुष्टिकर्तु: प्राणस्य (हस्ताभ्याम्) ग्रहणविसर्जनाभ्याम् (अग्नये) अग्निविद्यासंपादनाय (जुष्टम्) विद्यां चिकीर्षुभिः सेवितं कर्म (गृह्णामि) स्वीकरोमि। (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्निश्च सोमश्च ताभ्यामग्निजलविद्याभ्याम् (जुष्टम्) विद्वद्भिः प्रीतं फलम् (गृह्णामि) पूर्ववत्। अयं मंत्र: श० १।१। २।१७-१९ व्याख्यातः॥१०

    भावार्थः

    [ देवस्य प्रसवे, अग्नये, अश्विनोः अग्नीषोमाभ्यां, बाहुभ्याम्]

    विद्वद्भिर्मनुष्यैर्विद्वत्संगत्या सम्यक् पुरुषार्थेनेश्वरेणोत्पादितायामस्यां सृष्टौ सकलविद्यासिद्धये सूर्याचन्द्राऽग्निजलादिपदार्थानां सकाशात् सर्वेषां बलवीर्य्यवृद्धये च सर्वा विद्याः संसेव्य प्रचारणीयाः।

                                         [ तात्पर्यमाह--]

    यथा जगदीश्वरेण सकलपदार्थानामुत्पादनधारणाभ्यां सर्वोपकारः कृतोऽस्ति, तथैवाऽस्माभिरपि नित्यं प्रयतितव्यम्॥ १। १०॥

    भावार्थ पदार्थः

    प्रसवे=उत्पादितायामस्यां सृष्टौ। अग्नये=सकलविद्यासिद्धये। बाहुभ्याम्=बलवीर्यवृद्धये॥

    विशेषः

    परमेष्ठी प्रजापतिः। सविता=ईश्वरः॥ भुरिग्बृहती। मध्यमः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    उस यज्ञ के फल का ग्रहण किस करके होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    मैं (सवितुः) सब जगत् के उत्पन्नकर्त्ता सकल ऐश्वर्य के दाता तथा (देवस्य) संसार का प्रकाश करनेहारे और सब सुखदायक परमेश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए इस संसार में (अश्विनोः) सूर्य्य और चन्द्रमा के (बाहुभ्याम्) बल और वीर्य्य से तथा (पूष्णः) पुष्टि करने वाले प्राण के (हस्ताभ्याम्) ग्रहण और त्याग से (अग्नये) अग्निविद्या के सिद्ध करने के लिये (जुष्टम्) विद्या पढ़ने वाले जिस कर्म की सेवा करते हैं, (त्वा) उसे (गृह्णामि) स्वीकार करता हूं। इसी प्रकार (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और जल की विद्या से (जुष्टम्) विद्वानों ने जिस कर्म को चाहा है, उस के फल को (गृह्णामि) स्वीकार करता हूं॥१०॥

    भावार्थ

    विद्वान् मनुष्यों को उचित है कि विद्वानों का समागम वा अच्छे प्रकार अपने पुरुषार्थ से परमेश्वर की उत्पन्न की हुई प्रत्यक्ष सृष्टि अर्थात् संसार में सकल विद्या की सिद्धि के लिये सूर्य्य, चन्द्र, अग्नि और जल आदि पदार्थों के प्रकाश से सब के बल वीर्य्य की वृद्धि के अर्थ अनेक विद्याओं को पढ़ के उन का प्रचार करना चाहिये अर्थात् जैसे जगदीश्वर ने सब पदार्थों की उत्पत्ति और उन की धारणा से सब का उपकार किया है, वैसे ही हम लोगों को भी नित्य प्रयत्न करना चाहिये॥१०॥

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    विषय

    उस यज्ञ के फल का ग्रहण किस करके होता है , इस विषय का उपदेश किया है।।

    भाषार्थ

    जो (सवितुः) सब जगत् के उत्पादक, सकल ऐश्वयर्य्य के दाता (देवस्य) सब जगत् के प्रकाशक, सब सुखों के दाता ईश्वर के (प्रसवे) उत्पन्न किये हुए इस जगत् में (अश्विनोः) सूर्य चन्द्रमा के (बाहुभ्याम्) बल और वीर्य्य से (पूष्णः) पुष्टि करने वाले प्राण के (हस्ताभ्याम्) ग्रहण और त्याग से (अग्नये) अग्नि-विद्या को सिद्ध करने के लिए (जुष्टम्) विद्याभिलाषी जनों से सेवित कर्म है, (त्वा) उस कर्म को मैं (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ।

    और इस प्रकार जो विद्वानों ने (अग्नीषोमाभ्याम्) अग्नि और सोम अर्थात् अग्नि और जल विद्या के द्वारा (जुष्टम्) जिस सुन्दर फल की कामना की है, उसकों मैं (गृह्णामि) स्वीकार करता हूँ॥ १। १०॥

    भावार्थ

    विद्वान् मनुष्य विद्वानों की संगति से, उचित पुरुषार्थ से, ईश्वर की बनाई इस सृष्टि में सब विद्याओं की सिद्धि के लिए, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, जल आदि पदार्थों से, सब के बल और वीर्य की वृद्धि के लिए सब विद्याओं को पढ़ के उनका प्रचार करें।

    जैसे ईश्वर ने सब पदार्थों की उत्पत्ति और उनका धारण करके सबका उपकार किया है, वैसे ही हमें भी नित्य प्रयत्न करना चाहिए॥ १। १०॥

    भाष्यसार

    १.ईश्वर--सब जगत् का उत्पादक औरसकल ऐश्वर्य का दाता होने से ईश्वर सवितातथा सब जगत् का प्रकाशक और सब सुखों का दाता होने से देवकहलाता है॥

    २. जगत्--सविता ईश्वर ने जगत् को उत्पन्न किया है अतः यह जगत् प्रसवकहलाता है॥

    ३. यज्ञकर्म--विद्याप्रेमी विद्वान् लोग अग्नि-विद्या की सिद्धि के लिए सूर्य और चन्द्रमा अथवा अध्वर्यु लोगों के बल-वीर्य से तथा वायु की ग्रहण-विसर्जन शक्तियों से यज्ञकर्म को स्वीकार करते हैं॥

    ४. यज्ञफल का ग्रहण--विद्वान् लोग अग्निविद्या और जलविद्या के द्वारा यज्ञ के प्रिय फल को ग्रहण करते हैं॥

    अन्यत्र व्याख्यात

    महर्षि ने इस मन्त्र के प्रमाण से सविताशब्द की व्याख्या पंचमहायज्ञ विधि में इस प्रकार की है--‘‘(सवितुः) सुनोति,सूयते, सुवति वोत्पादयति सृजति सकलं जगत् स सर्वपिता सर्वेश्वरः सविता परमात्मा, ‘सवितुः प्रसवेइति मन्त्रपदार्थादुत्पत्तेः कर्त्ता योऽर्थोऽस्ति स सवितेत्युच्यत इति मन्तव्यम्’’ (पञ्चमहा॰ल॰ ग्र॰ संग्रह, पृ. २३१)॥ भाषार्थ-- सकल जगत् का उत्पादक होने से सविताशब्द का अर्थ सबका पिता, सर्वेश्वर परमात्मा है। सवितुः प्रसवेइस मन्त्र के अर्थ से उत्पत्तिकर्त्ता ईश्वर ही सवितापद का अर्थ समझना चाहिये॥

    विशेष

    परमेष्ठी प्रजापतिः।  सविता=ईश्वरः। भुरिग्बृहती । मध्यमः।।

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    विषय

    प्रभु की प्ररेणा में

    पदार्थ

    यह संसार सर्वज्ञ एवं दयालु प्रभु का बनाया हुआ है, अतः न तो यहाँ अपूर्णता है और न ही कोई वस्तु हमारे लिए दुःखद है, परन्तु जब अल्पज्ञता व व्यसनासक्ति से हम वस्तुओं का ठीक प्रयोग नहीं करते तब ये वस्तुएँ हमारे लिए दुःखद हो जाती हैं, इसलिए प्रभु-भक्त निश्चय करता है कि १. मैं ( त्वा ) = तुझे-संसार के प्रत्येक पदार्थ को ( गृह्णामि ) = ग्रहण करता हूँ, ( सवितुः देवस्य ) = उस उत्पादक देव की ( प्रसवे ) = अनुज्ञा में, अर्थात् मैं प्रत्येक पदार्थ का सेवन प्रभु के निर्देशानुसार करता हूँ। प्रभु का आदेश है — ‘न अतियोग करना, न अयोग करना, प्रत्येक वस्तु का ‘यथायोग’ करना। गीता के शब्दों में ‘युक्त आहार-विहारवाला होना’ — सदा मध्यमार्ग में चलना। 

    २. ( अश्विनोः ) = प्राणापान की ( बाहुभ्याम् ) = बाहुओं से मैं प्रत्येक पदार्थ का ग्रहण करता हूँ, अर्थात् अपने पुरुषार्थ से कमाकर ही मैं किसी वस्तु को लेने की इच्छा करता हूँ। 

    ३. ( पूष्णोः हस्ताभ्याम् ) = पूषा के हाथों से मैं किसी वस्तु का ग्रहण करता हूँ, अर्थात् किसी भी वस्तु को स्वाद व सौन्दर्य के लिए न लेकर मैं पोषण के दृष्टिकोण से ही उसे ग्रहण करता हूँ। 

    ४. ( अग्नये ) = अग्नि के लिए ( जुष्टम् ) = सेवन की गई वस्तु को ( गृह्णामि ) = ग्रहण करता हूँ, अर्थात् प्र्रत्येक वस्तु को यज्ञ में विनियुक्त करके मैं यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाला बनता हूँ। यज्ञशेष ही ‘अमृत’ है।

    ५. ( अग्निषोमाभ्यां जुष्टं गृह्णामि ) = मैं उस वस्तु को ग्रहण करता हूँ जो अग्नि व सोम के लिए सेवित होती है। हमारे जीवनों में दो मुख्य तत्त्व हैं — अग्नि और सोम। आयुर्वेद में इसी कारण से सब भोजन ‘आग्नेय’ और ‘सौम्य’ — इन्हीं दो भागों में बाँटे गये हैं। आग्नेय अंश शक्ति देता है तो सौम्य अंश शान्ति व दीर्घ जीवन का कारण बनता है। मैं उस भोजन का ग्रहण करता हूँ जिसमें ये दोनों ही तत्त्व उचित मात्रा में विद्यमान होते हैं। ऐसे भोजन के ग्रहण से मेरा जीवन रसमय बन जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — प्रभु की आज्ञा में, प्रयत्नपूर्वक, पोषण के दृष्टिकोण से, मैं पदार्थों का ग्रहण करता हूँ, यज्ञशिष्ट को ही ग्रहण करता हूँ और शान्ति व शक्ति के लिए ही ग्रहण करता हूँ।

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    विषय

    अन्न, ऐश्वर्य की प्राप्ति ।

    भावार्थ

    हे अन्न आदि ग्राह्य पदार्थ ! ( त्वा ) तुझको ( देवस्य ) सर्वप्रदाता ( सवितुः ) सर्वप्रेरक , सर्व दिव्य पदार्थों के उत्पादक परमेश्वर या राजा के ( प्रसवे ) उत्पन्न किये इस संसार में या उसकी आज्ञा में रह कर ( अश्विनोः बाहुभ्याम् ) अश्वियों , स्त्री-पुरुषों या यज्ञसम्पादक विद्वानों या सूर्य और चन्द्र की बाहुओं अर्थात् ग्रहण करने वाले सामर्थ्यो द्वारा और ( पूष्णः ) पुष्टिकारक प्राण के ( हस्ताभ्याम् ) ग्रहण और विसर्जन करने के सामर्थ्यों द्वारा ( अग्नये जुष्टम् ) अग्नि अर्थात् जाठर अग्नि के सेवन करने योग्य और ( अग्नि-सोमाभ्याम्) अग्नि और सोम , अग्नि और जल इन द्वारा ( जुष्टम् ) सेवित , या सेवन करने योग्य सुपक्व अन्न को (गृह्णामि ) ग्रहण करूं । 
    राजा के पक्ष में-- अग्नि = राजा या क्षात्र बल और सोम = ब्राह्मण इन दोनों के अभिमत अन्न आदि पदार्थों को अश्वियों , स्त्री पुरुषों या राजा , ब्राह्मण विद्वानों के बाहुबल और पूषा अर्थात् पुष्टिकर भागदुघ् नामक करसंग्राहक अधिकारी के हस्तों , ग्रहण करने के सामर्थ्यों द्वारा सर्वप्रेरक ईश्वर के राज्य में ग्रहण करूं ॥ शत० १ । १ । २ । १७ ॥
     

    टिप्पणी

    टिप्पणी – देवानामसि सस्नितमं वन्हितमं पप्रितमं ०इति काण्व० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्नीषोमौ सविता च देवताः । भुरिग् बृहती । मध्यमः स्वरः ॥ विष्णुर्देवता । द० ।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    परमेश्वराने उत्पन्न केलेल्या या जगात सर्व विद्यांची सिद्धी करण्यासाठी सूर्य, चंद्र, अग्नी व जल इत्यादी पदार्थांच्या साह्याने सर्वांचे बल वाढावे त्यासाठी विद्वानांनी विद्वानांच्या संगतीने पुरुषार्थ करून अनेक प्रकारच्या विद्या प्राप्त केल्या पाहिजेत व त्यांचा प्रसार व प्रचार केला पाहिजे. अर्थात ज्याप्रमाणे परमेश्वराने सर्व पदार्थांची निर्मिती करून त्यांना धारण केलेले आहे व उपकार केलेला आहे त्याप्रमाणे आपणही सदैव तशा प्रकारे प्रयत्न केला पाहिजे.

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    विषय

    त्या यज्ञाच्या फळाचे ग्रहण कोणत्या कारणासाठी करतात किंवा केलो जातो, पूढील मंत्रात याविषयी उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - जो (सवितुः) सर्व जगाचा उत्पत्तिकर्ता आणि सर्व ऐश्‍वर्याचा दाता आहे (देवस्य) जगास प्रकाशित करणारा आणि सर्वांसाठी सुखकारक आहे, अशा त्या परमेश्‍वराने उत्पन्न केलेल्या या संसारामधे (अश्‍विनोः) सूर्याच्या आणि चंद्राच्या (बाहुभ्यां) शक्ती-सामर्थ्याचा मी स्वीकार करतो. यापासून लाभ घेतो (पूष्णः) सर्वांना पुष्टि देणार्‍या प्राणांच्या (हस्ताभ्यां) ग्रहणाने आणि त्यागाने (अग्नेय) अग्निविद्येच्या विद्धतेसाठी (जुप्टं) विद्यावान् लोकांद्वारे सेवित अशा कर्माचा मी स्वीकार करतो (सर्वस्वी प्रयत्न करून अग्निविद्ये पासून आविष्कार व उन्नती करून त्याचे लाभ प्राप्त करतो) (अग्निषोमाभ्यां) अग्नी आणि जल यांच्यापासून शोध, शक्ती व तंत्रविद्या प्राप्त करून (जुष्टं) विद्वान् जन ज्या प्रकारच्या कर्मांची इच्छा करतात, मी त्या तंत्राचा आणि त्यापासून मिळणार्‍या फळाची म्हणजे लाभाची (गृह्णामी) प्राप्ती करून देतो. ॥10॥

    भावार्थ

    भावार्थ - बुद्धिमान् विवेकी जनांकरिता हेच करणे उचित आहे की त्यानी विद्वज्जनांची संगती धरावी. तसेच स्वतः उत्तम पुरुषार्थ करून परमेश्‍वराने निर्माण केलेल्या प्रत्यक्ष सृष्टीचा प्रसार व उपयोग करावा म्हणजे संपूर्ण विद्यांच्या प्राप्तीकरता सूर्य, चंद्र, अग्नी आणि जल आदी पदार्थाच्या गुणादींचे ज्ञान प्राप्त करून सर्वाच्या शक्ती-सामर्थ्याच्यासाठी त्याचा वापर करावा. विद्यांचे अध्ययन आणि विकास करून त्यांचा प्रचार करावा म्हणजे ज्याप्रमाणे जगदीश्‍वराने सर्व पदार्थांची उत्पत्ति केली आहे व त्या पदार्थाचे धारण करून जो सार्‍या जगावर उपकार करीत आहे, त्याप्रमाणे आम्हा सर्वांनी देखील सर्वांच्या हितासाठी नित्य प्रयत्नशील राहावे. ॥10॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    In this universe created by the All Effulgent God, I realize the power and influence of the sun and moon, feel the inhalation and exhalation of life-giving breath, appreciate the efforts made by the votaries of knowledge for mastering science of electricity. I follow the researches made by the learned in the applications of water and fire.

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    Meaning

    In this yajna of the creator, Lord Savita, I perform the yajna with the heat of the sun and the cool energy of the moon, and with the two-way motion of the pranic energy of the air for the sake of the knowledge of fire and of fire and water in the service of the Lord and his children.

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    Translation

    O sacrificial material, at the impulsion of the Creator God, with the arms of the healers and with the hands of the nourisher;(1) I take you, that are pleasing to the adorable Lord. (2) I take you, that are pleasing to the Lord adorable and blissful both. (3)

    Notes

    Tva, you; here the sacrificial material is indicated by tva. savituh of the creator God. Savitr is the creator as well as the impeller. Prasave, at the impulsion. Asvinoh, of the two asvins. Asvins are two legendary healers. They are described as the physicians of the gods. The word suggests that they were skilful riders and fond of their horses. We have translated asvins as the two healers - physicians and surgeons. Pusnoh of the Pusan. Pusan is the Lord of nourishment. पुष्णति इति पूषा the nourisher. Agni, the adorable Lord. अग्ने नियते, one who is invoked first; the foremost leader, one of the names of God. According to Sakapuni, the word अग्नि is derived from the verb इ to go, from अञ्ज् to shine, from दह् to burn, and also from नी to lead. (Nir. VII. 14. 15). According to Dayananda, Agni is the Supreme Lord, who is venerable, adorable, omnipresent and respected by the learned and glorified by sacred texts. Aurobindo has translated Agni as God-will. Agnisomabhyam, for Agni and Soma. Agni is the Supreme Lord in His adorable aspect, while He is Soma in His blissful aspect. Therefore, Agnisoma is the Lord adorable and blissful.

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    बंगाली (1)

    विषय

    তস্য য়জ্ঞফলস্য গ্রহণং কেন কুর্বন্তীত্যুপদিশ্যতে ॥
    সেই যজ্ঞের ফল কীভাবে গ্রহণ করা হয়, সেই বিষয়ের উপদেশ পরবর্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ- আমি (সবিতুঃ) সকল জগতের উৎপত্তিকর্ত্তা, সকল ঐশ্বর্য্যপ্রদাতা তথা (দেবস্য) সংসার প্রকাশক এবং সর্ব সুখদায়ক পরমেশ্বর । আমি (প্রসবে) উৎপন্ন কৃত এই সংসারে (অশ্বিনোঃ) সূর্য্য ও চন্দ্রের (বাহুভ্যাম্) বল ও বীর্য্য দ্বারা তথা (পুষ্ণঃ) পুষ্টিকারক প্রাণের (হস্তাভ্যাম্) গ্রহণ ও ত্যাগ দ্বারা (অগ্রয়ে) অগ্নিবিদ্যা সিদ্ধ করিবার জন্য (জুষ্টম্) বিদ্যা পাঠকারী যে কর্মের সেবা করিয়া থাকে (ত্বা) উহাকে (গৃহ্নামি) স্বীকার করি । এই প্রকার (অগ্নীষোমাভ্যাম্) অগ্নি ও জলের বিদ্যা সংগ্রহ করিয়া (জুষ্টম্) বিদ্বান্গণ যে কর্মের আকাঙক্ষা করিয়াছেন তাহারই পরিণামকে (গৃহ্নামি) স্বীকার করিতেছি ॥ ১০ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- বিদ্বান্ মনুষ্যদিগের কর্ত্তব্য যে, বিদ্বান্দিগের সমাগম অথবা সম্যক্ প্রকার স্বীয় পুরুষার্থ দ্বারা পরমেশ্বরের উৎপন্ন কৃত প্রত্যক্ষ সৃষ্টি অর্থাৎ সংসারে সকল বিদ্যার সিদ্ধি হেতু সূর্য্য, চন্দ্র, অগ্নি এবং জলাদি পদার্থ সমূহের প্রকাশ দ্বারা সকলের বল, বীর্য্যের বৃদ্ধির অর্থ বহু বিদ্যা পাঠ করিয়া তাহার প্রচার করা উচিত অর্থাৎ যেমন জগদীশ্বর সকল পদার্থের উৎপত্তি এবং তাঁহার ধারণা মতে সকলের উপকার করিয়াছেন সেইরূপ আমাদিগেরও নিত্য প্রচেষ্টা করা উচিত ॥ ১০ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    দে॒বস্য॑ ত্বা সবি॒তুঃ প্র॑স॒বে᳕ऽশ্বিনো॑র্বা॒হুভ্যাং॑ পূ॒ষ্ণো হস্তা॑ভ্যাম্ ।
    অ॒গ্নয়ে॒ জুষ্টং॑ গৃহ্ণাম্য॒গ্নীষোমা॑ভ্যাং॒ জুষ্টং॑ গৃহ্ণামি ॥ ১০ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    দেবস্য ত্বেত্যস্য ঋষিঃ স এব । সবিতা দেবতা । ভুরিগ্বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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