Loading...
यजुर्वेद अध्याय - 1

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 19
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृत् ब्राह्मी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
    3

    शर्मा॒स्यव॑धूत॒ꣳ रक्षोऽव॑धूता॒ऽअरा॑त॒योऽदि॑त्या॒स्त्वग॑सि॒ प्रति॒ त्वादि॑तिर्वेतु। धि॒षणा॑सि पर्व॒ती प्रति॒ त्वादि॑त्या॒स्त्वग्वे॑त्तु दि॒वः स्क॑म्भ॒नीर॑सि धि॒षणा॑सि पार्वते॒यी प्रति॑ त्वा पर्व॒ती वे॑त्तु ॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शर्म॑। अ॒सि॒। अव॑धूत॒मित्यव॑ऽधूतम्। रक्षः॑। अव॑धूता॒ इत्यव॑ऽधूताः। अरा॑तयः। अदि॑त्याः। त्वक्। अ॒सि॒। प्रति॑। त्वा॒। अदि॑तिः। वे॒त्तु॒। धि॒षणा॑। अ॒सि॒। प॒र्व॒ती। प्रति॑। त्वा॒। अदि॑त्याः। त्वक्। वे॒त्तु॒। दि॒वः। स्क॒म्भ॒नीः। अ॒सि॒। धिषणा॑। अ॒सि॒। पा॒र्व॒ते॒यी। प्रति॑। त्वा॒। प॒र्व॒ती वे॒त्तु॒ ॥१९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शर्मास्यवधूतँ रक्षोऽवधूताऽअरातयोदित्यास्त्वगसि प्रति त्वादितिर्वेत्तु । धिषणासि पर्वती प्रति त्वादित्यास्त्वग्वेत्तु दिवः स्कम्भनीरसि धिषणासि पार्वतेयी प्रति त्वा पर्वती वेत्तु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    शर्म। असि। अवधूतमित्यवऽधूतम्। रक्षः। अवधूता इत्यवऽधूताः। अरातयः। अदित्याः। त्वक्। असि। प्रति। त्वा। अदितिः। वेत्तु। धिषणा। असि। पर्वती। प्रति। त्वा। अदित्याः। त्वक्। वेत्तु। दिवः। स्कम्भनीः। असि। धिषणा। असि। पार्वतेयी। प्रति। त्वा। पर्वती वेत्तु॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 19
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ यज्ञस्य स्वरूपमङ्गानि चोपदिश्यन्ते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! भवन्तो यो यं यज्ञः शर्मासि सुखदोऽदितिनाशरहितोस्ति येन रक्षोऽवधूतं दुःखमरातयोऽवधूता विनष्टाश्च भवन्ति योऽदित्या अन्तरिक्षस्य पृथिव्याश्च त्वग्वद(स्य)स्ति, त्वा तं वेत्तु विदन्तु येन विद्याख्येन यज्ञेन पर्वती दिवः स्कम्भनीः [असि] पार्वतेयी धिषणाऽ[असि] अदित्यास्त्वग्वद्विस्तार्य्यते त्वा तं प्रतिवेत्तु यथावज्जानन्तु, येन सत्सङ्गत्याख्येन पर्वती ब्रह्मज्ञानवती धिषणा [असि] प्राप्यते [त्वा] तमपि प्रतिवेत्तु जानन्तु॥१९॥

    पदार्थः

    (शर्म) सुखहेतुः (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (अवधूतम्) विनाशितम् (रक्षः) दुःखं निवारणीयम् (अवधूताः) निवारणीया विचालिता हताः। अवेति विनिग्रहार्थीयः। (निरु॰१।३) (अरातयः) अदानस्वभावाः कृपणाः (अदित्याः) अन्तरिक्षस्य (त्वक्) त्वग्वत् (असि) भवति (प्रति) क्रियार्थे (त्वा) तं यज्ञम् (अदितिः) यज्ञस्यानुष्ठाता यजमानः। अदितिरिति पदनामसु पठितम्। (निघं॰५।५) इति यज्ञस्य ज्ञाता पालकार्थो गृह्यते (वेत्तु) जानातु (धिषणा) वाक् वेदवाणी ग्राह्या। धिषणेति वाङ्नामसु पठितम्। (निघं॰१।११) धृष्णोति सर्वा विद्या यया सा। धृषेर्धिष च संज्ञायाम्। (उणा॰२।८२) अनेनायं शब्दः सिद्धः। महीधरेण धिषणेदं पदं धियं बुद्धिं कर्म वा सनोति व्याप्नोतीति भ्रान्त्या व्याख्यातम्। (असि) भवति (पर्वती) पर्वणं पर्बहुज्ञानं विद्यतेऽस्यां क्रियायां सा पर्वती। अत्र संपदादित्वात् [अष्टा॰भा॰वा॰३.३.१०८] क्विप्। भूम्नि मतुप्। उगितश्च [अष्टा॰४.१.६] इति ङीप् (प्रति) वीप्सार्थे (त्वा) तां ताम् (अदित्याः) प्रकाशस्य (त्वक्) त्वचति संवृणोत्यनया सा (वेत्तु) जानातु (दिवः) प्रकाशवतः सूर्य्यादिलोकस्य (स्कम्भनीः) स्कम्भं प्रतिबद्धं नयतीति सा (असि) भवति (धिषणा) धारणावती द्यौः। धिषणेति द्यावापृथिव्योर्नामसु पठितम्। (निघं॰३।३०) (असि) अस्ति (पार्वतेयी) पर्वतस्य मेघस्य दुहितेव या सा पार्वतेयी वृष्टिः। पर्वत इति मेघनामसु पठितम्। (निघं॰१।१०) पर्वतस्येयं घनपङ्क्तिः पार्वती तस्यापत्यं दुहितेव पार्वतेयी वृष्टिः। स्त्रीभ्यो ढक् (अष्टा॰४.१.१२०) अनेन ढक्। (प्रति) इत्थंभूताख्याने (त्वा) तामीदृशीम्। (पर्वती) पः प्रशस्तं प्रापणं यस्यां सा। अत्र प्रशंसार्थे मतुप् (वेत्तु) जानातु॥ अयं मन्त्रः (१।२।१।१४-१७) व्याख्यातः॥१९॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यो विज्ञानेन सम्यक् सामग्रीं संपाद्य यज्ञोऽनुष्ठीयते, यश्च वृष्टिबुद्धिवर्धकोऽस्ति, सोऽग्निना मनसा च संसाधितः सूर्य्यप्रकाशं त्वग्वत्सेवते॥१९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषयः

    अथ यज्ञस्य स्वरूपमंगानि चोपदिश्यन्ते॥

    सपदार्थान्वयः

    हे मनुष्याः ! भवन्तो योऽयं यज्ञः शर्म=सुखदः सुखहेतुः असि भवति, अदितिः=नाशरहितो यज्ञस्याऽनुष्ठाता यजमानो [असि]=अस्ति, येन रक्षः=दुःखं (दुःखं) निवारणीयम् अवधूतम् विनाशितम्, अरातयः अदानस्वभावाः कृपणा अवधूताः=विनष्टा निवारणीया विचालिता हताः च भवन्तियो अदित्याः=अन्तरिक्षस्य पृथिव्याश्च [त्वक्]=त्वग्वद् असि=अस्ति भवति, त्वा=तं (तं) यज्ञं वेत्तु= विदन्तु

    येन विद्याऽऽख्येन यज्ञेन पर्वती पर्वणं पर=बहुज्ञानं विद्यतेऽस्यां क्रियायां सा पर्वती दिवः प्रकाशवतः सूर्यादिलोकस्य स्कम्भनीः स्कम्भं प्रतिबद्धं नयतीति सा पार्वतेयी पर्वतस्य=मेघस्य दुहितेव या सा पार्वतेयी, पर्वतस्येयं घनपङ्क्तिः पार्वती, तस्याऽपत्यं दुहितेव पार्वतेयी वृष्टि: धिषणा धारणा वेती द्यौः अदित्याः प्रकाशकस्य [त्वक्]=त्वग्वत् त्वचति=संवृणोत्यनया सा विस्तार्यते, त्वा=तं तामीदृशीं प्रतिवेत्तु= यथावज्जानन्तु।

    येन सत्सङ्गत्याऽऽख्येन पर्वती=ब्रह्मज्ञानवती पः=प्रशस्तं प्रापणं यस्यां सा धिषणा वाक् वेद-

    वाणी धृष्णोति सर्वा विद्या यया सा प्राप्यते, तमपि प्रतिवेत्तु=जानन्तु॥ १। १९॥

    पदार्थः

    (शर्म) सुखहेतुः (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (अवधूतम्) विनाशितम् (रक्षः) दुःखं निवारणीयम् (अवधूताः) निवारणीया=विचालिता हताः। अवेति विनिग्रहार्थीयः॥ निरु० १। ३॥ (अरातयः) अदानस्वभावाः=कृपणाः (अदित्याः) अन्तरिक्षस्य (स्वक् ) त्वग्वत् (असि) भवति (प्रति) क्रियार्थे (त्वा) तं यज्ञम् (अदितिः) यज्ञस्यानुष्ठाता यज्ञमानः। अदितिरिति पदनामसु पठितम्॥ निघं० ५॥ ५॥ इति यज्ञस्य ज्ञाता पालकार्थो गृह्यते (वेत्तु) जानातु (धिषणा) वाक् वेदवाणी ग्राह्या। धिषणेति वाङ्नामसु पठितम्॥ निघं० १। ११॥ धृष्णोति सर्वा विद्या यया सा। धृषेर्धिष् च संज्ञायाम्॥ उ० २। ८२॥ अनेनायं शब्दः सिद्धःमहीधरेण धिषणेदं पदं धियं बुद्धिं कर्म वा सनोति व्याप्नोतीति भ्रान्त्या व्याख्यातम् (असि) भवति (पर्वती) पर्वणं=पर्बहुज्ञानं विद्यतेऽस्यां क्रियायां सा पर्वती। अत्र संपदादित्वात् क्विप्। भूम्नि मतुप् (उगितश्चेति) ङीप् (प्रति) वीप्सार्थे (त्वा) तां ताम् (अदित्याः) प्रकाशस्य (त्वक्) त्वचति= संवृणोत्यनया सा (वेत्तु) जानातु (दिवः) प्रकाशवतः सूर्यादिलोकस्य (स्कम्भनीः) स्कम्भं=

    प्रतिबद्धं नयतीति सा (असि) भवति (धिषणा) धारणावती द्यौः। धिषणेति द्यावापृथिव्योर्नामसु पठितम्॥ निघं० ३। ३०॥ (असि) अस्ति (पार्वतेयी) पर्वतस्य मेघस्य दुहितेव या सा पार्वतेयी। पर्वत इति मेघनामसु पठितम्॥ निघं० १। १०॥ पर्वतस्येयं घनपंक्तिः=पार्वती तस्यापत्यं दुहितेव पार्वतेयी वृष्टिःस्त्रीभ्यो ढक्॥ अ० ४। १। १२०॥ अनेन ढक् (प्रति) इत्थं भूताख्याने (त्वा) तामीदृशीम् (पर्वती) प:=प्रशस्तं प्रापणं यस्यां सा। अत्र प्रशंसार्थे मतुप् (वेत्तु) जानातु॥ अयं मंत्र: श० १। २। १। १४१७ व्याख्यातः॥१९॥

    भावार्थः

    [हे मनुष्याः ! योऽयं यज्ञः--असि=अस्ति--तं वेत्तु=विदन्तु येन--पार्वतेयी धिषणऽदित्यास्त्त्वग्वद् विस्तार्यते येन--धिषणा प्राप्यते]

    मनुष्यैर्यो विज्ञानेन सम्यक् सामग्रीं संपाद्य यज्ञोऽनुष्ठीयते, यश्च वृष्टि बुद्धिवर्धकोऽस्ति, सोऽग्निना मनसा च संसाधितः सूर्यप्रकाशं त्वग्वत् सेवते॥ १।१९॥

    भावार्थ पदार्थः

    पार्वतेयी=वृष्टिः। धिषणा=बुद्धिः। आदित्या:=सूर्यप्रकाशस्य।

    विशेषः

    परमेष्ठी प्रजापतिः। अग्निः=भौतिकोऽग्निः॥ निचृद् ब्राह्मी त्रिष्टुप्। धैवतः॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (4)

    विषय

    इस के अनन्तर ईश्वर ने यज्ञ का स्वरूप और इसके अङ्ग अगले मन्त्र में उपदेश किये हैं॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो! तुम लोग जो यज्ञ (शर्म) सुख का देने वाला (असि) है और (अदितिः) नाशरहित है तथा जिससे (रक्षः) दुःख और दुष्टस्वभावयुक्त मनुष्य (अवधूतम्) विनाश को प्राप्त तथा (अरातयः) दान आदि धर्मों से रहित पुरुष (अवधूताः) नष्ट (असि) होते हैं और जो (अदित्याः) अन्तरिक्ष वा पृथिवी के (त्वक्) त्वचा के समान (असि) है, (त्वा) उसे (प्रति वेत्तु) जानो और जिस विद्यारूप उक्त यज्ञ से (पर्वती) बहुत ज्ञान वाली (दिवः) प्रकाशमान सूर्यादि लोकों की (स्कम्भनीः) रोकने वाली [असि] है तथा (पार्वतेयी) मेघ की कन्या अर्थात् पृथिवी के तुल्य (धिषणा) वेदवाणी [(असि)] है, (अदित्याः) पृथिवी के (त्वक्) शरीर के तुल्य विस्तार को प्राप्त होती है, (त्वा) उसे (प्रतिवेत्तु) यथावत् जानो और जिस सत्सङ्गतिरूप यज्ञ से (पर्वती) उत्तम-उत्तम ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने वाली (धिषणा) द्यौः अर्थात् प्रकाशरूपी बुद्धि (असि) प्राप्त होती है, (त्वा) उसे भी (प्रतिवेत्तु) जानो॥ १९॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को अपने विज्ञान से अच्छी प्रकार पदार्थों को इकट्ठा करके उन से यज्ञ का अनुष्ठान करना चाहिये जो कि वृष्टि वा बुद्धि का बढ़ाने वाला है, वह अग्नि और मन से सिद्ध किया हुआ सूर्य्य के प्रकाश को त्वचा के समान सेवन करता है॥ १९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    अब यज्ञ के स्वरूप और उसके अंगों का उपदेश किया जाता है।।

    भाषार्थ

    हे मनुष्यो! आप लोग जो यह यज्ञ (शर्म) सुखदायक एवं सुख का हेतु (असि) है, (अदितिः) नाश रहित तथा शुभ कर्मों का पालक (असि) है, जिससे (रक्षः) सब दुःख (अवधूतम्) विनष्ट होते हैं तथा (अरातयः) दानन देने वाले कंजूस लोग (अवधूताः) नष्ट होते हैं। और जो (अदित्याः) आकाश और पृथिवी की (त्वक्) त्वचा के समान (असि) है (त्वा) उस यज्ञ को (वेत्तु) जानो।

    जिस विद्या नामक यज्ञ से (पर्वती) बहुत ज्ञान वाली (दिवः) प्रकाशमान सूर्यादि लोकों को (स्कम्भनीः) नियम में चलाने वाली (पार्वतेयी) पर्वत अर्थात् मेघकी पुत्री के तुल्य जो वर्षा है वह तथा (धिषणा) सब को धारण

    करने वाली द्यौ (अदित्याः) प्रकाशक सूर्य के (त्वक्) शरीर को आच्छादित करने वाली त्वचा के समान विस्तृत की जाती है (त्वा) उस यज्ञ को तथा उस द्यौ को (प्रविवेत्तु) यथावत् जानो।

    और जिस सत्संगति नामक यज्ञ से (पर्वती) ब्रह्म ज्ञान एवं प्रशंसनीय प्राप्ति वाली (धिषणा) वेदवाणी प्राप्त की जाती है उसे भी (प्रतिवेत्तु) यथावत् जानो॥१।१९॥

    भावार्थ

    मनुष्यों के द्वारा विज्ञान से भलीभाँति सामग्री को सिद्ध करके जिस यज्ञ का अनुष्ठान किया जाता है वह वर्षा और बुद्धि को बढ़ाने वाला है, सो अग्नि और विज्ञान से उत्तम रीति से सिद्ध किया हुआ सूर्य के प्रकाश की, त्वचा के समान सेवा करता है॥ १।१९॥

    समीक्षा--धिषणाइस पद की व्याख्या में महर्षि लिखते हैं-‘‘वाक् वेदवाणी ग्राह्या। धिष्णेति वाङ्नामसु पठितम् (निघं॰।१।११॥) धृष्णोति सर्वा विद्या यया सा। धृषेर्धिष च संज्ञायाम्’ (उ॰२।८२) अनेनायं शब्दः सिद्धः। महीधरेण धिषणेदं पदं धियं=बुद्धि कर्म वा सनोति व्याप्नोतीति भ्रान्त्या व्याख्यातम्’’। अर्थात्--धिषणा पद का अर्थ वेदवाणी है। क्योंकि यह पद (निघं॰१।११) में वाणी-नामों में पढ़ा गया है। जिससे सब विद्याओं  को जीता जाता है इससे वेदवाणी को धिषणाकहते हैं। यह शब्द धृषेर्धिष च संज्ञायाम्इस उणादि सूत्र से धृषधातु से क्यु प्रत्यय तथा धातु के स्थान में धिष-आदेशकरने पर सिद्ध होता है। किंतु वेदभाष्यकार महीधर ने धिषणाशब्द धी उपपद षणुधातु से सिद्ध करने का असफल प्रयास करके अपनी अज्ञता प्रकट की है। इस प्रकार धीषणाशब्द बनता है, धिषणा नहीं। इसलिए महीधर को लिखना पड़ा कि ह्रस्वत्मार्षम्यहाँ ह्रस्वत्व वैदिक है। ऋषियों की सरणी को छोड़ कर अपनी कल्पना में कितना गौरव और असारता है,इससे यह तथ्य स्पष्ट सामने आता है। जब धिषणापद निघं.१।११ में वाणी-नामों पढ़ा है तथा उणादि २।८२  में उसकी सिद्धि का स्पष्ट उल्लेख है। फिर महर्षि यास्क तथा पाणिनि के प्रशस्त पथ को छोड़ कर अपनी कल्पना के लंगडे़ घोड़े पर चढ़ कर गड्ढे में गिरने की क्या आवश्यकता है। उणादि सूत्र के अनुसार धिषणापद की सिद्धि में प्रत्यय को आद्युदात्त मानकर उक्त पद का मध्योदात्त स्वर सिद्ध है, किन्तु महीधर की सिद्धि के अनुसार उत्तरपद अन्तोदात्त स्वर बनेगाजो मूल-मन्त्र के विपरीत है। अतः महीधर की यह भारी भ्रान्ति है॥१।१९॥

    भाष्यसार

    . यज्ञ--सुखदायक, अविनाशी, दुःखविनाशक, दान भावना से रहित कृपण (कंजूस) लोगोंका विनाशक है। जैसे त्वचा शरीर की रक्षा करनेवाली है इसी प्रकार आकाश और पृथिवी की रक्षक है।

    . विद्यायज्ञ-- विद्या नामक यज्ञ त्वचा के समान विस्तृत है। इसमें मनुष्यों को द्यौ का ज्ञान प्राप्त करना चाहिये। द्यौ, प्रकाशमान सूर्यादि लोकों का आधार है। मेघ की पुत्री वर्षा का हेतु है।

    . सत्संग यज्ञ-- इस यज्ञ से, प्रशंसनीय प्राप्ति वाली, ब्रह्मज्ञान से युक्त, वेदवाणी प्राप्त होती है जो सब विद्याओं से बढ़कर है।

    विशेष

    परमेष्ठी प्रजापतिः । अग्निः=भौतिकोग्निः ।। निचृद् ब्राह्मी त्रिष्टुप्। धैवतः।।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पर्वती बुद्धि—महादेव की पार्वती

    पदार्थ

    जब व्यक्ति ज्ञान, बल व यज्ञ को अपनाता है तब उसका जीवन सुखमय हो जाता है। 

    १. ( शर्म असि ) = तू आनन्दमय है, क्योंकि ( रक्षः ) = तूने राक्षसी भावनाओं को ( अवधूतम् ) = कम्पित करके अपने से दूर किया है, ( अवधूताःअरातयः ) = न देने की भावना को दूर भगा दिया है। तू ( अदित्याः त्वक् असि ) = अदीना देवमाता का संस्पर्श करनेवाला है। ( त्वा ) = तुझे ( अदितिः ) = यह अदीना देवमाता ( प्रतिवेत्तु ) = जाने। तू अदिति के सम्पर्क में हो, अदिति तेरे सम्पर्क में हो, अर्थात् तेरा सारा वातावरण ही अदीनता व दिव्य गुणोंवाला हो। संसार में मनुष्य को असभ्य [ blunt ] तो नहीं बनना, परन्तु गिड़गिड़ाना भी तो नहीं। यथासम्भव दिव्य गुणों का अपने में विकास करना है। इस दैवी सम्पति का आरम्भ ‘अभय’ से ही होता है। जीव की इस उन्नति में ‘बुद्धि’ उसकी सहायिका है। आत्मा रथी है तो बुद्धि उसका सारथि है। आत्मा राजा है तो बुद्धि मन्त्रिणी है। आत्मा पति है तो बुद्धि पत्नी है। आत्मा महादेव है तो उसकी पार्वती यह बुद्धि ही है, अतः मन्त्र में कहते हैं कि ( धिषणा असि ) = तू धारण करनेवाली ‘बुद्धि’ है। पर्वती तू पूरण करनेवाली है [ पर्व पूरणे ], सब न्यूनताओं को दूर करनेवाली है। ( त्वा ) = तुझे ( अदित्याः त्वक् प्रतिवेत्तु ) = अदिति का सम्पर्क सदा प्राप्त रहे 

    २. तू  ( दिवः ) = प्रकाश की ( स्कम्भनीः असि ) = धारण करनेवाली है। जैसे ‘स्कम्भ’ मकान की छत को सदा सहारा देता है, उसी प्रकार जीवन में यह बुद्धि प्रकाश का स्कम्भ है। सारे प्रकाश का साधन यह बुद्धि ही है। यह विकृत हुई और प्रकाश गया। हे ( धिषणा ) = बुद्धि! तू ( पार्वतेयी ) = [ स्वार्थ में तद्धित प्रत्यय है ] पर्वती = पूरण करनेवाली है। ( त्वा ) = तुझे( पर्वती ) = यह पूरण करने की प्रक्रिया ( प्रतिवेत्तु ) = पूर्ण रूप से जाने, अर्थात् इस बुद्धि में हमारे जीवन को न्यूनताओं से ऊपर उठाकर पूर्ण बनाने की शक्ति सदा बनी रहे। उलटे मार्ग पर जाकर यह हमारे विनाश का कारण न बन जाए। प्रभुकृपा से हमारी यह बुद्धि ( पर्वती ) = पूरण करनेवाली बनी रहे।

    भावार्थ

    भावार्थ — हमारी बुद्धि पर्वती हो—पूरण करनेवाली हो। यह हमें विनाश के मार्ग पर न ले-जाए।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रजाओं की रक्षा का उपदेश।

    भावार्थ

    हे राजन् (शर्म असि) तू समस्त प्रजा का सुखदायक शरण है ।(अवधूतं रक्षः ) तेरे द्वारा राष्ट्र के विघ्नकारी राक्षस गण मार भगाये । ( अरातय: अवधूताः ) शत्रुगण भी पछाड़ दिये । तू ( अदित्याः ) अखण्ड पृथिवी का ( त्वक् असि ) त्वचा के समान उस पर फैल कर उसकी रक्षा करने हारा है। (त्वा) तुझे ( अदिति: ) यह समस्त पृथिवी ( प्रतिवेत्तु ) प्रत्यक्षरूप में अपना स्वामी स्वीकार करे हे वेदवाणि! या हे सेने ! तू (पर्वती) पालन करने के बल और ज्ञान से युक्त ( धिषणा ) शत्रुओं का घर्षण करने में समर्थ (असि ) है ( अदित्याः त्वक् ) अदिति, पृथिवी की त्वचा, उसको संवरण, पालन करने वाली प्रभुशक्ति (त्वा प्रतिवेत्तु ) तुझे प्राप्त करे और स्वीकार करे । हे प्रभुशक्ते ! तू (दिवः स्कम्भनीः असि ) द्यौलोक के समान प्रकाश या सूर्य के समान प्रकाश युक्त तेजस्वी विद्वानों का आश्रयभूत ( असि ) है ! तू भी ( पार्वतेयी ) मेघ की कन्या बिजुली के समान अति बलवती या मेघ से उत्पन्न वृष्टि के समान सब का पालन करने वाली, सब सुखों की वर्षक, उत्तम फल प्राप्त कराने हारी है ।  (पर्वती ) पूर्वोक्त सेना ( त्वा प्रति वेत्तु) तुझे प्रत्यक्षरूप से प्राप्त करे, स्वीकार करे ॥    शत० १ । २ । ५। १४-१७ ॥ 
     

    टिप्पणी

    टिप्पणी  १९ –'दिवस्कम्भन्यसि' इति काण्व० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्दृषत्शम्या, उपलाश्च देवताः । निचृद् ब्राह्मी त्रिष्टुप् । धैवतः ||

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी आपल्या विशेष ज्ञानाने चांगल्या प्रकारे पदार्थांचा संग्रह करून वृष्टी व बुद्धी वाढविणारा यज्ञ केला पाहिजे. तो मनाने सिद्ध केलेला अग्नी सूर्यप्रकाशाचा त्वचेप्रमाणे अंगीकार करतो. त्याप्रमाणेच सत्संगतिरूपी यज्ञाने प्रकाशमय बुद्धी प्राप्त होते हेही जाणले पाहिजे.

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    यानंतर परमेश्‍वराने पुढील मंत्रात यज्ञाचे स्वरूप व त्याचे अंग, याविषयी कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, तुम्ही यज्ञाला जाणा व त्याचे स्वरूप ओळखा. हा यज्ञ (शर्म) सुखकारी आहे (अदितिः) अविनाशी आहे. यज्ञामुळेच (रक्षः) दुख देणारी आणि दुष्ट स्वभावाची माणसे (अवधूतं) विनष्ट होतात आणि (अरातयः) दानादी धर्मापासून दुर असलेली माणसे (अवधूताः) नष्ट (असि) होतात. हा यज्ञ (अदित्याः) अंतरिक्षाच्या अथवा पृथिवीच्या (त्वक्) त्वेचेप्रमाणे (असि) आहे. अशा या यज्ञाचे तुम्ही महत्त्व ओळखा. विद्यारूप यज्ञाचे (पर्वती) अत्यंत ज्ञानयुक्त (दिवः) प्रकाशमान सूर्यादी लोकांना (स्कम्भनीः) रोखून धरणारी तसेच (पार्वतेयी) मेघाची कन्या म्हणजे जी पृथिवी (धिषणा) जी वेदवाणी (आदित्याः) पृथिवीच्या (त्वक्) शरीराप्रमाणे विस्तृतरूपाने प्रसार पावते (त्वा) त्या वेदवाणीला तुम्ही (प्रतिवेत्तु) यथावत् जाणा. तसेच सत्संगतिरूप यज्ञाद्वारे (पार्वती) उत्तमोत्तम ब्रह्मज्ञान देणारी जी (धिषणा) द्यौः म्हणजे प्रकाशरूप बुद्धी आहे, (त्वा) त्यासही (प्रतिवेत्तु) तुम्ही जाणा. ॥19॥

    भावार्थ

    भावार्थ - माणसांसाठी आवश्यक आहे की त्यानी विज्ञानाद्वारे उत्तम पदार्थांची निवड व संग्रह करून त्या पदार्थांद्वारे यज्ञाचे अनुष्ठान करावे, कारण तो यज्ञ वृष्टी आणि बुद्धी यांची वृद्धी करणारा आहे. अग्नीद्वारे शुद्ध केलेला आणि दोषरहित मनाने केलेला यज्ञ सूर्याच्या प्रकाशास त्वचेप्रमाणे सेवतो (म्हणजे ज्या प्रमाणे त्वचा सूर्य-प्रकाशातून लाभ घेत, तद्वत् यज्ञाद्वारेही सूर्य-प्रकाशापासून लाभ घेता येतात.) ॥19॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (3)

    Meaning

    The yajna is the giver of happiness, puts an end to the selfish and miserly habits and protects the mid-regions as skin protects the body. May the performer of the yajna realise its significance. The proper recitation of the vedic hymns is the yajna in itself. The yajna performed on special occasions also protects the truth as skin protects the body. The yajna is the sustainer of the illustrious sun, the embodiment of Vedic lore. May we realise the yajna as the bringer of rain, and the giver of spiritual knowledge.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Meaning

    Yajna is the source of joy, it is joy itself. Evil is eliminated, selfishness is eliminated. It is the protective cover of the earth. Let the children of the earth know this. The chant is the voice of omniscience. It is the light of heaven and main-stay of the stars. The chant is the music of the showers and the thunder of the clouds. Let the children of the earth know, let the beneficiaries of heaven know and realize.

    इस भाष्य को एडिट करें

    Translation

    О Lord, you are the source of happiness. (1) Evil powers have been driven away and so are the inimical tendencies. (2) You are the skin of the eternity. May eternity receive you. (3) You are the speech full of knowledge. May the skin of Eternity receive you. (4) You are the support of the celestial worlds. (5) You are the speech full of knowledge. May the speech full of knowledge receive уоu. (6)

    Notes

    With this mantra the ritualists place the mortar on the black buck-skin. Parvati dhisana, speech full of knowledge. घियं सनोति व्याप्नोति(Mahidhara). Divah skambhani, support of the celestial worlds.

    इस भाष्य को एडिट करें

    बंगाली (1)

    विषय

    অথ য়জ্ঞস্য স্বরূপমঙ্গানি চোপদিশ্যন্তে ॥
    ইহার পর ঈশ্বর যজ্ঞের স্বরূপ এবং ইহার অঙ্গ সম্পর্কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে উপদেশ প্রদান করিয়াছেন ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমরা যে যজ্ঞ (শর্ম) সুখদায়ক (অসি) হয় এবং (অদিতিঃ) নাশরহিত তথা যদ্দ্বারা (রক্ষঃ) দুঃখও দুষ্টস্বভাবযুক্ত মনুষ্য (অবধূতম্) বিনাশ প্রাপ্ত তথা (অরাতয়ঃ) দানাদি ধর্ম রহিত পুরুষ (অবধূতাঃ) নষ্ট (অসি) হইয়া থাকে এবং যাহা (অদিত্যাঃ) অন্তরিক্ষ বা পৃথিবীর (ত্বক্) চর্ম সদৃশ (অসি), (ত্বা) উহা (প্রতি বেত্তু) জান এবং যে বিদ্যাস্বরূপ উক্ত যজ্ঞ দ্বারা (পর্বতী) বহু জ্ঞানযুক্ত (দিবঃ) প্রকাশমান সূর্য্যাদি লোকের (স্কম্ভনী) প্রতিহতকারী (অসি), তথা (পার্বতেয়ী) মেঘের কন্যা অর্থাৎ পৃথিবী তুল্য (ধিস্মণা) বেদবাণী (অসি), (অদিত্যাঃ) পৃথিবীর (ত্বক্) শরীর তুল্য বিস্তার লাভ করে (ত্বা) উহাকে (প্রতিবেত্তু) যথাবৎ জান এবং যে সৎসঙ্গতিরূপ যজ্ঞ দ্বারা (পর্বতী) উত্তমোত্তম ব্রহ্মজ্ঞান প্রাপ্তকারী (ধিষণা) দ্যৌ অর্থাৎ প্রকাশরূপী বুদ্ধি (অসি) হইয়া থাকে (ত্বা) উহাকেও জান ॥ ১ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগকে নিজ বিজ্ঞান দ্বারা ভাল প্রকার পদার্থগুলি সংগ্রহ করিয়া তদ্দ্বারা যজ্ঞের অনুষ্ঠান করা কর্ত্তব্য । যাহা বৃষ্টি বর্ধক, উহা অগ্নি ও মন দ্বারা শুদ্ধ কৃত সূর্য্যের প্রকাশকে ত্বক্ সমান সেবন করিয়া থাকে ॥ ১ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    শর্মা॒স্যব॑ধূত॒ꣳ রক্ষোऽব॑ধূতা॒ऽ অরা॑ত॒য়োऽদি॑ত্যা॒স্ত্বগ॑সি॒ প্রতি॒ ত্বাদি॑তির্বেত্তু । ধি॒ষণা॑সি পর্ব॒তী প্রতি॒ ত্বাদি॑ত্যা॒স্ত্বগ্বে॑ত্তু দি॒ব স্ক॑ম্ভ॒নীর॑সি ধি॒ষণা॑সি পার্বতে॒য়ী প্রতি॑ ত্বা পর্ব॒তী বে॑ত্তু ॥ ১ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    শর্মাসীত্যস্য ঋষিঃ স এব । অগ্নির্দেবতা । নিচৃদ্ ব্রাহ্মী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top