यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 7
ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः
देवता - यज्ञो देवता
छन्दः - प्राजापत्य जगती,
स्वरः - निषादः
2
प्रत्यु॑ष्ट॒ꣳरक्षः॒ प्रत्यु॑ष्टा॒ऽअरा॑तयो॒ निष्ट॑प्त॒ꣳरक्षो॒ निष्ट॑प्ता॒ऽअरा॑तयः। उ॒र्वन्तरि॑क्ष॒मन्वे॑मि॥७॥
स्वर सहित पद पाठप्रत्यु॑ष्ट॒मिति॒ प्रति॑ऽउष्टम्। रक्षः॑। प्रत्यु॑ष्टा॒ इति॒ प्रति॑ऽउष्टाः। अरा॑तयः। निष्ट॑प्तम्। निस्त॑प्त॒मिति॒। निःऽत॑प्तम्। रक्षः॑। निष्ट॑प्ताः। निस्त॑प्ता॒ इति॒ निःऽत॑प्ताः। अरा॑तयः। उ॒रु। अ॒न्तरि॑क्षम्। अनु॑ऽए॒मि॒ ॥७॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रत्युष्टँ रक्षः प्रत्युष्टा अरातयः । निष्टप्तँ रक्षो निष्टप्ता अरातयः । उर्वन्तरिक्षमन्वेमि ॥
स्वर रहित पद पाठ
प्रत्युष्टमिति प्रतिऽउष्टम्। रक्षः। प्रत्युष्टा इति प्रतिऽउष्टाः। अरातयः। निष्टप्तम्। निस्तप्तमिति। निःऽतप्तम्। रक्षः। निष्टप्ताः। निस्तप्ता इति निःऽतप्ताः। अरातयः। उरु। अन्तरिक्षम्। अनुऽएमि॥७॥
भाष्य भाग
संस्कृत (2)
विषयः
सर्वैर्दुष्टगुणानां दुष्टमनुष्याणां च निषेधः कर्त्तव्य इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
मया रक्षः प्रत्युष्टमरातयः प्रत्युष्टा रक्षो निष्टप्तमरातयो निष्टप्ताः पुरुषार्थेन सदैव कार्य्याः। एवं कृत्वान्तरिक्षमुरु बहुसुखं चान्वेमि॥७॥
पदार्थः
(प्रत्युष्टम्) यत्प्रतीतं च तदुष्टं दग्धं च तत् (रक्षः) रक्षःस्वभावो दुष्टो मनुष्यः (प्रत्युष्टाः) प्रत्यक्षतया उष्टा दग्धव्यास्ते (अरातयः) अविद्यमाना रातिर्दानं येषु ते शत्रवः (निष्टप्तम्) नितरां तप्तं संतापयुक्तं च कार्य्यम् (रक्षः) स्वार्थी मनुष्यः (निष्टप्ताः) पूर्ववत् (अरातयः) कपटेन विद्यादानग्रहणरहिताः (उरु) बहुविधं सुखं प्राप्तुं प्रापयितुं वा। उर्विति बहुनामसु पठितम् (निघं॰३।१) (अन्तरिक्षम्) सुखसाधनार्थमवकाशम् (अन्वेमि) अनुगतं प्राप्नोमि॥ अयं मन्त्रः (शत॰१।१।२।२-४) व्याख्यातः॥७॥
भावार्थः
इदमीश्वर आज्ञापयति सर्वैर्मनुष्यैः स्वकीयं दुष्टस्वभावं त्यक्त्वाऽन्येषामपि विद्याधर्मोपदेशेन त्याजयित्वा दुष्टस्वभावान् मनुष्यांश्च निवार्य्य बहुविधं ज्ञानं सुखं च संपाद्य विद्याधर्मपुरुषार्थान्विताः सुखिनः सर्वे प्राणिनः सदा संपादनीयाः॥७॥
विषयः
सर्वैर्दुष्टगुणानां दुष्टमनुष्याणां च निषेधः कर्त्तव्य इत्युपदिश्यते॥
सपदार्थान्वयः
मया रक्षो रक्षःस्वभावो दुष्टो मनुष्यः प्रत्युष्टं यत् प्रतीतं च तदुष्टम्=दग्धं च तद्, अरातयो अविद्यमाना रातिः दानं येषु ते शत्रवः प्रत्युष्टाः प्रत्यक्षतया उष्टा:=दग्धव्यास्ते, रक्षः स्वार्थी मनुष्यो निष्टप्तं नितरां तप्तम्=सन्तापयुक्तं च कार्यम्, अरातयः कपटेन विद्यादानग्रहणरहिताः निष्टप्ता पूर्ववत्=नितरां तप्ताः=सन्तापयुक्ताश्च पुरुषार्थेन सदैव कार्याः।
एवं कृत्वान्तरिक्षं सुखसाधनाऽर्थमवकाशम् उरु=बहुसुखं बहुविधं सुखं प्राप्तुं प्रापयितुं वा च अनु+एमि अनुगतं करोमि॥ १। ७॥
पदार्थः
(प्रत्युष्टम्) यत्प्रतीतं च तदुष्टम्=दग्धं च तत् (रक्षः) रक्षःस्वभावो दुष्टो मनुष्यः (प्रत्युष्टाः) प्रत्यक्षतया उष्टा=दग्धव्यास्ते (अरातयः) अविद्यमाना रातिर्दानं येषु ते शत्रवः (निष्टप्तम्) नितरां तप्तं=सन्तापयुक्तं च कार्य्यम् (रक्षः) स्वार्थी मनुष्यः (निष्टप्ताः) पूर्ववत् (अरातयः) कपटेन विद्यादानग्रहणरहिताः (उरु) बहुविधं सुखं प्राप्तुं प्रापयितुं वा। उर्विति बहुनामसु पठितम्॥ निघं० ३। १॥ (अन्तरिक्षम्) सुखसाधनार्थमवकाशम् (अन्वेमि) अनुगतं प्राप्नोमि॥ अयं मंत्रः श० १। १।२। २–४ व्याख्यातः॥ ७॥
भावार्थः
इदमीश्वर आज्ञापयति--सर्वैर्मनुष्यैः स्वकीयं दुष्टस्वभावं त्यक्त्वाऽन्येषामपि विद्याधर्मोपदेशेन त्याजयित्वा दुष्टस्वभावान् मनुष्यांश्च निवार्य,
[अन्तरिक्षमुरु=बहुसुखं चाऽन्वेमि]
बहुविधं ज्ञानं सुखं च सम्पाद्य विद्याधर्मपुरुषार्थाऽन्विताः सुखिनः सर्वे प्राणिनः सदा सम्पादनीयाः॥1।७॥
भावार्थ पदार्थः
भा० पदार्थ--रक्षः=स्वकीय-दुष्टस्वभावः। अरातयः=दुष्टस्वभावा मनुष्याः। उरु=बहुविधं ज्ञानं सुखं च। अन्वेमि=विद्याधर्मपुरुषार्थाऽन्वितं सम्पादयामि॥
विशेषः
परमेष्ठी प्रजापतिः। यज्ञः=दुष्टगुणानां दुष्टमनुष्याणां च निषेधः। प्राजापत्या जगती। निषादः॥
हिन्दी (4)
विषय
सब मनुष्यों को उचित है कि दुष्ट गुण और दुष्ट स्वभाव वाले मनुष्यों का निषेध करें, इस बात का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥
पदार्थ
मुझ को चाहिये कि पुरुषार्थ के साथ (रक्षः) दुष्ट गुण और दुष्ट स्वभाव वाले मनुष्य को (प्रत्युष्टम्) निश्चय करके निर्मूल करूं तथा (अरातयः) जो राति अर्थात् दान आदि धर्म से रहित दयाहीन दुष्ट शत्रु हैं, उनको (प्रत्युष्टाः) प्रत्यक्ष निर्मूल (रक्षः) वा दुष्ट स्वभाव, दुष्टगुण, विद्याविरोधी, स्वार्थी मनुष्य और (निष्टप्तम्) (अरातयः) छलयुक्त होके विद्या के ग्रहण वा दान से रहित दुष्ट प्राणियों को (निष्टप्ताः) निरन्तर सन्तापयुक्त करूं। इस प्रकार करके (अन्तरिक्षम्) सुख के सिद्ध करने वाले उत्तम स्थान और (उरु) अपार सुख को (अन्वेमि) प्राप्त होऊं॥७॥
भावार्थ
ईश्वर आज्ञा देता है कि सब मनुष्यों को अपना दुष्ट स्वभाव छोड़कर विद्या और धर्म के उपदेश से औरों को भी दुष्टता आदि अधर्म के व्यवहारों से अलग करना चाहिये तथा उन को बहु प्रकार का ज्ञान और सुख देकर सब मनुष्य आदि प्राणियों को विद्या, धर्म, पुरुषार्थ और नाना प्रकार के सुखों से युक्त करना चाहिये॥७॥
विषय
सब मनुष्यों को उचित है कि दुष्ट गुणों और दुष्ट स्वभाव वाले मनुष्यों का निषेध करें, इस बात का उपदेश किया है।
भाषार्थ
मुझे चाहिये, मैं (रक्षः) दुष्ट मनुष्य के राक्षस-स्वभाव को जानकार उसके दुष्ट-स्वभाव को (प्रत्युष्टम्) दग्ध करूँ और (अरातयः) राति अर्थात् दानादि शुभ-कर्मों से रहित जो शत्रु हैं, उनको भी (प्रत्युष्टः) प्रत्यक्षतया भस्म कर दूँ और (रक्षः) जो स्वार्थी मनुष्य है, उसे (निष्टप्तम्) सर्वथा सन्तापयुक्त करूँ तथा (अरातयः) छल से युक्त, विद्या के दान और ग्रहण से रहित जो दुष्ट हैं, उन्हें (निष्टप्ताः) अपने पुरुषार्थ से सदा सन्तापयुक्त करूँ।
ऐसा करके (अन्तरिक्षम्) सुख-सिद्धि के लिए उत्तम स्थान को (उरु) बहुत प्रकार के सुखों को प्राप्त करने-कराने के लिए (अन्वेमि) प्राप्त होऊँ॥१।७॥
भावार्थ
ईश्वर यह आज्ञा देता है कि सब मनुष्यों को अपना दुष्ट-स्वभाव छोड़कर तथा दूसरों का भी विद्या और धर्मोपदेश से छुड़ाकर, दुष्ट-स्वभाव वाले मनुष्यों को दूर हटाकर, बहुत प्रकार का ज्ञान और सुख सिद्ध करके, सब मनुष्यों को विद्या, धर्म और पुरुषार्थ से युक्त कर उन्हें सदा सुखी रखें॥१।७॥
भाष्यसार
दुष्ट मनुष्य--जो राक्षस स्वभाव वाले मनुष्य हैं वे दुष्ट हैं। यज्ञ आदि शुभ कर्मों में दान न करने वाले मनुष्य ‘अराति’ कहलाते हैं, वे धार्मिक जनों के शत्रु हैं। वे कपट के कारण विद्या के दान और ग्रहण से रहित होने के कारण ‘अराति’ कहलाते हैं। यहाँ इन दुष्ट मनुष्यों के निषेध का उपदेश किया है।
विषय
रक्षो-दहन
पदार्थ
उपासक प्रभु से प्रार्थना करता है —
१. ( रक्षः ) = मेरे न चाहते हुए भी मुझमें घुस आनेवाली ये राक्षस वृत्तियाँ ( प्रत्युष्टम् ) = [ प्रति+उष् दाहे ] एक-एक करके दग्ध हो जाएँ। ( ‘रक्षः ) = र+क्ष’ = अपने रमण के लिए औरों का क्षय करनेवाली भावनाएँ मुझमें उत्पन्न ही न हों। मैं अपने आनन्द के लिए औरों की हानि करनेवाला न होऊँ।
२. ( अरातयः ) = [ रा दाने ] न देने की वृत्तियाँ ( प्रत्युष्टाः ) = एक-एक करके दग्ध हो जाएँ। मैं सब-कुछ अपने भोग-विलास में ही व्यय न कर दूँ। मैं सदा त्यागपूर्वक भोगवाला बनूँ, यज्ञशेष का सेवन करनेवाला होऊँ, लोकहित के लिए देकर बचे हुए को खानेवाला बनूँ।
३. ( रक्षः ) = ये राक्षसी वृत्तियाँ ( निष्टप्तम् ) = निश्चय से तप के द्वारा दूर कर दी जाएँ और इसी प्रकार ( अरातयः ) = न देने की वृत्तियाँ ( निष्टप्ता ) = निश्चय से तप के द्वारा दग्ध हो जाएँ। तपस्या से जीवन की भूमि यज्ञ व दान के लिए अत्यन्त उर्वरा हो जाती है। भोग ही समाप्त हो गया तो औरों के क्षय का प्रश्न ही नहीं रह जाता।
४. यह तपोमय जीवनवाला व्यक्ति निश्चय करता है कि ( उरु ) = विशाल ( अन्तरिक्षम् ) = हृदयाकाश को ( अन्वेमि ) = प्राप्त होता हूँ। मेरी कोई भी क्रिया संकुचित हृदयता से नहीं होती। वस्तुतः विशालता ही हृदय को पवित्र रखती है और उस हृदय में भोगवाद की अपवित्र भावनाएँ जन्म नहीं ले-पातीं। हृदय की विशालता से हम देव बनते हैं न कि राक्षस।
भावार्थ
भावार्थ — मेरी राक्षसी वृत्तियाँ दूर हों। मेरी अदान की वृत्तियाँ नष्ट हों। तपोमय जीवन के द्वारा मैं इन्हें दग्ध कर दूँ और विशाल-हृदय बनूँ।
विषय
दुष्टों का दमन ।
भावार्थ
( रक्षः ) विघ्नकारी दुष्ट स्वभाव के पुरुष को ( प्रत्युष्टम् ) भली प्रकार जांच २ करके संतप्त करो । ( अरातयः ) दानशीलता से रहित परद्रव्यापहारी , निर्दयी पुरुषों को ( प्रत्युष्टाः ) ठीक २ विवेचन करके संतापित करना चाहिये । ( रक्षः ) विघ्नकारी दुष्ट पुरुष ( नि:तप्तम्) खूब तप्त हों । और (अरातयः ) शत्रु भी ( निः-तप्ताः ) खूब संतप्त हों और इस प्रकार पृथिवी रूप समस्त यज्ञवेदि को दुष्ट विघ्नकारियों से रहित करके पुनः मैं ( ऊरु ) विस्तृत , महान् (अन्तरिक्षम् ) अन्तरिक्ष प्रदेश को भी ( अनु एमि ) अपने वश करूं और दुष्टों का पीछा कर उनका नाश करूं ॥ शत० १।१।२।२-४ ॥
टिप्पणी
टिप्पणी७ - यशो देवता । द० । रक्षोघ्नं महा देवता इति सायणः का० भा० | रक्षः, लिंगादन्तरिक्षं देवतेति अनन्त । उरु ब्रह्म रक्षोघ्नं सर्वत्रेति सर्वा० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रक्षोघ्नं ब्रह्मज्ञो वा देवता । प्राजापत्या जगती । निषादः स्वरः ||
मराठी (2)
भावार्थ
ईश्वर अशी आज्ञा देतो की सर्व माणसांनी आपल्या दुष्ट स्वभावाचा त्याग करून इतरांनाही दुष्टपणा व अधर्माच्या व्यवहारापासून दूर करून विद्या व धर्माचा उपदेश केला पाहिजे. त्यांना अनेक प्रकारचे ज्ञान देऊन सुखी केले पाहिजे. उक्त विद्यायु करून धार्मिक व पुरुषार्थी बनवून विविध सुखांनी संपन्न केले पाहिजे.
विषय
सर्व माणसांसाठी हेच कर्म आहे की दुष्ट गुणयुक्त (दुर्गुणी) आणि दुष्ट स्वभाव असलेल्या माणसांच्या अवश्य निषेध करावा.
शब्दार्थ
शब्दार्थ - माझ्याकरिता हेच उचित कर्म आहे की पुरुषार्थाद्वारे (रक्षः) दुर्गण आणि दुष्ट स्वभावयुक्त माणसाने (प्रत्युष्टम्) पुरुषार्थाद्वारे अवश्यमेव निर्मुलन करावे. तसेच (अरातयः) जे ‘राति’ म्हणजे दानादी धर्मापासून दूर दयाहीन दुष्ट शत्रु आहेत, त्यांना मी (प्रत्युष्टाः) निर्मूल करून टाकावे (रक्षः) दुष्ट स्वभावाचा दुर्गुणी, विद्याविरोधी आणि स्वार्थी जो माणूस आहे, त्याला मी नष्ट करावे. (निष्टन्तम्) (अरातयः) जे कपटी, धुर्त असून विद्या व दानादी उत्तम कर्मांपासून दूर असलेली दुष्ट माणसें आहेत, त्यांना मी निरंतर संत्रस्त व संतप्त करावे. अशा आचरणामुळे (अन्तरिक्षम्) सुख-प्राप्तीचे जे उत्तम पद आहे त्यास व (उरुः) अपार सुखाय (अन्वेमि) मी प्रपात करावे. ॥7॥
भावार्थ
भावार्थ - ईश्वर आदेश देत आहे की सर्व माणसांनी दुष्ट स्वभावाचा त्याग करून विद्या आणि धर्माचा उपदेश देऊन इतरांना देखील दुष्टतादी अधर्ममय व्यवहारापासून परावृत्त करावे. सर्वांना अनेक प्रकारचे उपकारक ज्ञान देऊन आणि त्यांनी सुखी करण्यासाठी सर्व माणसांठी प्राण्यांना विद्या, धर्म, पुरुषार्थाची शिकवण देऊन नानाविध सुखांची समृद्ध करावे. ॥7॥
इंग्लिश (3)
Meaning
May we root out the evil tendencies of the wicked, the unsympathetic and uncharitable exploiters of humanity. May we take to task the disturbers of peace, and expose the wicked.
Meaning
Evil is uprooted, the selfish are eliminated. The lawless are punished and corrected. The selfish and anti¬ socials have suffered and converted. Let us be generous, as vast as space.
Translation
Demons have been burnt and so are burnt the enemies. Demons have come to grief and so have the enemies come to grief. (1) Now I move freely in the vast mid-space. (2)
Notes
Pratyustam, प्रति उष्टम् प्रत्येक्षम् उष्टम्।उष्टम् दग्धम् , burnt. उष् दाहे। Raksah, रक्षः राक्षसजातिः ।-Mahidhar. रक्ष स्वभावो दुष्टो मनुष्यः। -Daya. Demons or evil-minded persons. Aratayah, दान रातिः।राते प्रतिबन्धका अरातयः Those who do not give others’ dues, and therefore, the enemies. Nistaptam, तप संतापे नितरां तप्तम् निष्टप्तम्; scorched or grieved. Antariksa, midspace, the space between the earth and the heaven (द्यौ). Dyauh is the space where the sun and the stars shine.
बंगाली (1)
विषय
সর্বৈর্দুষ্টগুণানাং দুষ্টমনুষ্যাণাং চ নিষেধঃ কর্ত্তব্য ইত্যুপদিশ্যতে ॥
সব মনুষ্যদিগের উচিত যে, দুষ্ট গুণ ও দুষ্ট স্বভাব যুক্ত মনুষ্যদিগকে নিষেধ করিবে এই কথার উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- আমার উচিত যে, পুরুষকার সহ (রক্ষঃ) দুষ্ট গুণ এবং দুষ্ট স্বভাবযুক্ত মনুষ্যকে (প্রত্যুষ্টম্) নিশ্চয়পূর্বক নির্মূল করি তথা (অরাতয়ঃ) যে রাতি অর্থাৎ দানাদি ধর্মরহিত দয়াহীন দুষ্ট শত্রুগুলি আছে তাহাদের (প্রত্যুষ্টাঃ) প্রত্যক্ষ নির্মূল (রক্ষঃ) অথবা দুষ্ট স্বভাব দুষ্টগুণ বিদ্যাবিরোধী স্বার্থবান্ মনুষ্য এবং (নিষ্টপ্তম্, অরাতয়ঃ) ছলযুক্ত হইয়া বিদ্যা গ্রহণ অথবা দানরহিত দুষ্ট প্রাণীদিগকে (নিষ্টপ্তাঃ) নিরন্তর সন্তাপিত করি । এই প্রকার করিয়া (অন্তরিক্ষম্) সুখসিদ্ধ করিবার উত্তম স্থান এবং অপার সুখ (অন্বেমি) প্রাপ্ত হই ।
भावार्थ
ভাবার্থঃ- ঈশ্বর আজ্ঞা প্রদান করেন যে, সকল মনুষ্যের দুষ্ট স্বভাব পরিত্যাগ করিয়া বিদ্যা ও ধর্মের উপদেশ দ্বারা অন্যকেও দুষ্টতাদি অধর্মের ব্যবহার হইতে পৃথক করা কর্ত্তব্য এবং তাহাদিগকে বহু প্রকার জ্ঞান ও সুখ প্রদান করিয়া সব মনুষ্যাদি প্রাণিদিগকে বিদ্যা, ধর্ম, পুরুষকার এবং নানা প্রকার সুখের দ্বারা যুক্ত করিতে থাকিবে ॥ ৭ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
প্রত্যু॑ষ্ট॒ꣳ রক্ষঃ॒ প্রত্যু॑ষ্টা॒ऽ অরা॑তয়ো॒ নিষ্ট॑প্ত॒ꣳ রক্ষো॒ নিষ্ট॑প্তা॒ऽ অরা॑তয়ঃ । উ॒র্ব᳕ন্তরি॑ক্ষ॒মন্বে॑মি ॥ ৭ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
প্রত্যুষ্টমিত্যস্য ঋষিঃ স এব । য়জ্ঞো দেবতা । প্রাজাপত্যা জগতী ছন্দঃ ।
নিষাদঃ স্বরঃ ॥
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