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यजुर्वेद अध्याय - 1

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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 2
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - स्वराट् आर्षी त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
    7

    वसोः॑ प॒वित्र॑मसि॒ द्यौर॑सि पृथि॒व्यसि मात॒रिश्व॑नो घ॒र्मोऽसि वि॒श्वधा॑ऽअसि। प॒र॒मेण॒ धाम्ना॒ दृꣳह॑स्व॒ मा ह्वा॒र्मा ते॑ य॒ज्ञप॑तिर्ह्वार्षीत्॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वसोः॑। प॒वित्र॑म्। अ॒सि॒। द्यौः। अ॒सि॒। पृ॒थि॒वी। अ॒सि॒। मा॒त॒रिश्व॑नः। घ॒र्मः। असि॒। वि॒श्वधा॒ इति॑ वि॒श्वधाः॑। अ॒सि॒। प॒र॒मेण॑। धाम्ना॑। दृꣳह॑स्व। मा। ह्वाः। मा। ते॒। य॒ज्ञप॑ति॒रिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिः। ह्वा॒र्षी॒त् ॥२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वसोः पवित्रमसि द्यौरसि पृथिव्यसि मातरिश्वनो घर्मा सि विश्वधाऽअसि। परमेण धाम्ना दृँहस्व मा ह्वार्मा ते यज्ञपतिह्वार्षीत्॥


    स्वर रहित पद पाठ

    वसोः। पवित्रं। असि। द्यौः। असि। पृथिवी। असि। मातरिश्वनः। घर्मः। असि। विश्वधा इति विश्वधाः। असि। परमेण। धाम्ना। दृꣳहस्व। मा। ह्वाः। मा। ते। यज्ञपतिरिति यज्ञऽपतिः। ह्वार्षीत्॥२॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    स यज्ञः कीदृशो भवतीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे विद्वन्मनुष्य! त्वं यो वसोर्वसुरयं यज्ञः पवित्रमसि पवित्रकारकोऽस्ति। द्यौरसि सूर्य्यरश्मिस्थो भवति। पृथिव्यसि वायुना सह विस्तृतो भवति। तथा मातरिश्वनो घर्मोऽसि वायोः शोधको भवति। विश्वधा असि संसारस्य सुखधारको भवति। परमेण धाम्ना सह दृंहस्व दृंहते वर्धते। तमिमं यज्ञं मा ह्वार्मा त्यज। तथा ते तव यज्ञपतिस्तं मा ह्वार्षीत् मा त्यजतु॥२॥

    पदार्थः

    (वसोः) वसुः। अत्रार्थाद्विभक्तेर्विपरिणाम इति प्रथमा विभक्तिर्विपरिणाम्यते। यज्ञो वै वसुः (शत॰१.५.४.९) (पवित्रं) पुनाति येन कर्मणा तत् (असि) भवति अत्र सर्वत्र पुरुषव्यत्ययः (द्यौः) विज्ञानप्रकाशहेतुः (असि) भवति (पृथिवी) विस्तृतः (असि) भवति (मातरिश्वनः) मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति आश्वनिति वा तस्य वायोः। श्वन्नुक्षन्॰ (उणा॰१.१५७) अनेनायं शब्दो निपातितः। मातरिश्वा वायुर्मातर्य्यन्तरिक्षे श्वसिति मातर्य्याश्वनितीति वा (निरु॰७.२६) (घर्मः) अग्नितापयुक्तः शोधकः। घर्म इति यज्ञनामसु पठितम् (निघं॰३.१७) (असि) भवति (विश्वधाः) विश्वं दधातीति (असि) भवति (परमेण) प्रकृष्टसुखयुक्तेन (धाम्ना) सुखानि यत्र दधति तेन। बाहुलकाड्डुधाञ्धातोर्मनिन् प्रत्ययः (दृꣳहस्व) वर्धते। अत्र पुरुषव्यत्ययो लडर्थे लोट् च (मा) निषेधार्थे (ह्वाः) ह्वरतु। अत्र लोडर्थे लुङ् (मा) निषेधार्थे (ते) तव (यज्ञपतिः) यज्ञस्य स्वामी यज्ञकर्त्ता यजमानः। धात्वर्थाद् यज्ञार्थस्त्रिधा भवति। विद्याज्ञानधर्मानुष्ठानवृद्धानां देवानां विदुषामैहिकपारमार्थिकसुखसंपादनाय सत्करणं सम्यक् पदार्थगुणसंमेलविरोधज्ञानसङ्गत्या शिल्पविद्याप्रत्यक्षीकरणं नित्यं विद्वत्समागमानुष्ठानं शुभविद्यासुखधर्मादिगुणानां नित्यं दानकरणमिति (ह्वार्षीत्) ह्वरतु ह्वर वा। अत्रापि लोडर्थे लुङ्॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.५.४.९-११) व्याख्यातः॥२॥

    भावार्थः

    मनुष्याणां विद्याक्रियाभ्यां सम्यगनुष्ठितेन यज्ञेन पवित्रता प्रकाशः पृथिवी राज्यं वायुप्राणवद् राज्यनीतिः प्रतापः सर्वरक्षा अस्मिंल्लोके परलोके च परमसुखवृद्धिः परस्परमार्जवेन वर्त्तमानं कुटिलतात्यागश्च जायते। अत एव सर्वैर्मनुष्यैः परोपकाराय विद्यापुरुषार्थाभ्यां प्रीत्या नित्यमनुष्ठातव्य इति॥२॥

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    विषयः

    सयज्ञःकीदृशोभवतीत्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    हेविद्वन्मनुष्य ! त्वंयोवसो=वसुरयंयज्ञः, पवित्रमसि=पवित्रकारकोऽस्ति (पवित्रम्पुनातियेनकर्मणातत्, असि=भवति), द्यौरसि=सूर्यरश्मिस्थोभवति (द्यौः=विज्ञानप्रकाशहेतुः, असि=भवति), पृथिव्यसि=वायुनासहविस्तृतोभवति (पृथिवी=विस्तृतः, असि=भवति), तथा--मातरिश्वनोघर्मोऽसि=वायोःशोधकोभवति (मातरिश्वनः=मातरि=अन्तरिक्षेश्वसितिआश्वनितिवातस्यवायोः, घ र्म:=अग्नितापयुक्तःशोधकः, असि=भवति) विश्वधा असि=संसारस्यसुखधारकोभवति (विश्वधाः=विश्वंदधातीति, असि=भवति) परमेणप्रकृष्टसुखयुक्तेनधाम्नासुखानियत्रदधतितेनसहदृंहस्व=दृंहते=वर्धते। तमिमंयज्ञंमाह्वाः=मात्यज, (ह्वाः=ह्वरतु), तथा—ते=तवयज्ञपतिःयज्ञस्यस्वामी, यज्ञकर्ता=यजमानः।धात्वर्थाद्यज्ञार्थस्त्रिधाभवति–-विद्या=ज्ञानधर्मानुष्ठानवृद्धानांदेवानांविदुषामैहिकपार- मार्थिकसुखसम्पादनायसत्करणं, सम्यक्पदार्थ-गुणसंमेलविरोधज्ञानसंगत्याशिल्पविद्याप्रत्यक्षीकरणं नित्यं विद्वत्समागमानुष्ठानं, शुभविद्यासुखधर्मादिगुणानां नित्यं दानकरणमिति,तं मा ह्वार्षीत्=मा त्यजतु (ह्वार्षीत्=ह्वरतु ह्वर वा)॥१। २॥

    पदार्थः

    (वसोः) वसुः। अत्रार्थाद्विभक्तेर्विपरिणामइतिप्रथमाविभक्तिर्विपरिणम्यते।यज्ञो वैवसुः॥श०१।५।४।९॥ (पवित्रम्) पुनातियेनकर्मणातत् (असि) भवति।अत्रसर्वत्रपुरुषव्यत्ययः(द्यौः) विज्ञानप्रकाशहेतुः (असि) भवति (पृथिवी) विस्तृतः (असि) भवति (मातरिश्वनः) मातरिअन्तरिक्षेश्वसितिआश्वनितिवातस्यवायोः। श्वन्नुक्षन्०॥उ०१।१५७॥अनेनायंशब्दोनिपातितः।मातरिश्वावायुर्मातर्य्यन्तरिक्षेश्वसितिमातर्य्याश्वनितीतिवा॥निरुक्त७।२६॥ (घर्मः) अग्नितापयुक्तःशोधकः। घर्मइति यज्ञनामसुपठितम्॥निघं०३।१७॥ (असि) भवति (विश्वधाः) विश्वंदधातीति (असि) भवति (परमेण) प्रकृष्टसुखयुक्तेन (धाम्ना) सुखानियत्रदधतितेन।बाहुलकाड्डुधाञ्धातोमनिन्प्रत्ययः (दृँहस्व) वर्धते।अत्रपुरुषव्यत्ययोलडर्थेलोट्च (मा) निषेधार्थे (ह्वाः) ह्वरतु।अत्रलोडर्थेलुङ् (मा) निषेधार्थे (ते) तव (यज्ञपतिः) यज्ञस्यस्वामीयज्ञकर्त्तायजमानः।धात्वर्थाद्यज्ञार्थस्त्रिधाभवति।विद्याज्ञानधर्मानुष्ठानवृद्धानांदेवानांविदुषामैहिकपारमार्थिकसुखसम्पादनायसत्करणंसम्यक्पदार्थगुणसंमेलविरोधज्ञानसंगत्याशिल्पविद्याप्रत्यक्षीकरणंनित्यंविद्वत्समागमानुष्ठानंशुभविद्यासुखधर्मादिगुणानांनित्यंदानकरणमिति (ह्वार्षीत्) ह्वरतुह्वरवा।अत्रापिलोडर्थे लुङ्॥अयंमन्त्रःश०१।५।४।९-११व्याख्यातः॥२॥

    भावार्थः

     

    [वसोः=वसुरयंयज्ञःपवित्रमसि....'अस्ति, द्यौरसि.......भवति, पृथिव्यसि, मातरिश्वनोघर्मोऽसि, विश्वधाअसि]

    भावार्थः—मनुष्याणांविद्याक्रियाभ्यांसम्यगनुष्ठितेनयज्ञेनपवित्रता, प्रकाशः, पृथिवी, राज्यं, वायुप्राणवद्राज्यनीतिः, प्रतापः, सर्वरक्षा--

    [परमेण धाम्ना सह दृंहस्व, मा ह्वाः]

    अस्मिंल्लोकेपरलोकेचपरमसुखवृद्धिः,परस्परमार्जवेनवर्तमानं, कुटिलतात्यागश्चजायते।

    [तात्पर्यमाह--]

    अतएवसर्वैर्मनुष्यैःपरोपकाराय, विद्यापुरुषार्थाभ्यां, प्रीत्यायज्ञोनित्यमनुष्ठातव्य इति॥१।२॥

    भावार्थ पदार्थः

    पवित्रम्=पवित्रता।द्यौः=प्रकाशः।पृथिवी=राज्यम्।घर्म:=प्रतापः।विश्वधाः=सर्वरक्षकः।धाम्ना=इहलोकेन, परलोकेन।माह्वाः=परस्परमार्जवेनवर्तमानंकुटिलतात्यागंचकुरु।

    विशेषः

    परमेष्ठीप्रजापतिः। यज्ञः=स्पष्टम्। स्वराडार्षीत्रिष्टुप्। धैवतः॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    वह यज्ञ किस प्रकार का होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे विद्यायुक्त मनुष्य! तू जो (वसोः) यज्ञ (पवित्रम्) शुद्धि का हेतु (असि) है। (द्यौः) जो विज्ञान के प्रकाश का हेतु और सूर्य की किरणों में स्थिर होने वाला (असि) है। जो (पृथिवी) वायु के साथ देशदेशान्तरों में फैलनेवाला (असि) है। जो (मातरिश्वनः) वायु को (घर्मः) शुद्ध करनेवाला (असि) है। जो (विश्वधाः) संसार का धारण करनेवाला (असि) है तथा जो (परमेण) उत्तम (धाम्ना) स्थान से (दृꣳहस्व) सुख का बढ़ानेवाला है। इस यज्ञ का (मा) मत (ह्वाः) त्याग कर तथा (ते) तेरा (यज्ञपतिः) यज्ञ की रक्षा करने वाला यजमान भी उसको (मा)(ह्वार्षीत्) त्यागे। धात्वर्थ के अभिप्राय से यज्ञ शब्द का अर्थ तीन प्रकार का होता है अर्थात् एक जो इस लोक और परलोक के सुख के लिये विद्या, ज्ञान और धर्म के सेवन से वृद्ध अर्थात् बड़े-बड़े विद्वान् हैं, उनका सत्कार करना। दूसरा अच्छी प्रकार पदार्थों के गुणों के मेल और विरोध के ज्ञान से शिल्पविद्या का प्रत्यक्ष करना और तीसरा नित्य विद्वानों का समागम अथवा शुभगुण विद्या सुख धर्म और सत्य का नित्य दान करना है॥२॥

    भावार्थ

    मनुष्य लोग अपनी विद्या और उत्तम क्रिया से जिस यज्ञ का सेवन करते हैं, उससे पवित्रता का प्रकाश, पृथिवी का राज्य, वायुरूपी प्राण के तुल्य राजनीति, प्रताप, सब की रक्षा, इस लोक और परलोक में सुख की वृद्धि, परस्पर कोमलता से वर्त्तना और कुटिलता का त्याग इत्यादि श्रेष्ठ गुण उत्पन्न होते हैं। इसलिये सब मनुष्यों को परोपकार तथा अपने सुख के लिये विद्या और पुरुषार्थ के साथ प्रीतिपूर्वक यज्ञ का अनुष्ठान नित्य करना चाहिये॥२॥

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    विषय

    वह यज्ञ कैसा है, इस विषय का उपदेश किया है॥

    भाषार्थ

    हे विद्वान् मनुष्य (वसोः) यज्ञ (पवित्रम्) पवित्र करने वाला (असि) है, अर्थात् पवित्र करने वाला कर्म है, (द्यौः) सूर्य की किरणों में स्थिर और विज्ञजन प्रकाश का हेतु (असि) है, (पृथिवी) वायु के साथ देश-देशान्तरों में फैलने वाला (असि) है, तथा--(मातरिश्वनः) वायु का (धर्मः) शोधक (असि) है अर्थात्-अन्तरिक्ष में गति करने से वायु  का नाम मातरिश्वा है, उस वायु का (धर्मः) अग्निताप से शोधक है, (विश्वधा) संसार के सुख को धारणकरने वाला (असि) है एवं विश्व का धारक है, (परमेण) उत्तम सुख से युक्त (धाम्ना) लोक के साथ (दृंहस्व) बढ़ता है।

     उस यज्ञ का (मा ह्वाः) त्याग मत कर तथा (ते) तेरा (यज्ञपतिः) यज्ञ का स्वामी, यज्ञकर्ता= यमजमान भी उसे (माह्वार्षीत्) न छोड़े। धात्वर्थ के कारण ‘यज्ञ’ शब्द का अर्थ तीन प्रकार का होता हैः--

    १-- विद्या, ज्ञान और धर्माचरण से वृद्ध विद्वानों का इस लोक और परलोक के सुख की सिद्धि के लिए सत्कार करनाः २-- अच्छी प्रकार पदार्थों के गुणों के मेल और विरोधज्ञान की संगति से शिल्प विद्या का प्रत्यक्ष करना एवं नित्य विद्वानों का संग करना;  ३-- शुभ विद्या, सुख धर्मादि गुणों का नित्य दान करना॥१। २॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को विद्या और क्रिया के द्वारा विधिपूर्वक किये यज्ञ से पवित्रता, प्रकाश, पृथिवी, राज्य, वायु अर्थात् प्राण के तुल्य राज्यनीति, प्रताप, सबकी रक्षा-- इस लोक और परलोक में परम सुख की वृद्धि, परस्पर सरलता से वर्ताव ओर कुटिलता-त्याग की प्राप्ति होती है। इसलिए सब मनुष्यों को परोपकार के लिए विद्या और पुरुषार्थ से प्रीतिपूर्वक यज्ञ नित्य करना चाहिये॥१।२॥

    भाष्यसार

    १. यज्ञ--  सबकोपवित्र करने वाला, सूर्य की किरणों में स्थित होने वाला, वायु के साथ विस्तार को प्राप्त होने वाला, वायु को शुद्ध करने वाला, विश्व के सब सुखों को धारण करने वाला यज्ञ सबसे श्रेष्ठ कर्म है।

    २. ईश्वर-आज्ञा-- हे विद्वान मनुष्य! तू इस सर्वश्रेष्ठ यज्ञ कर्म को कभी मत छोड़।

    ३. यज्ञपद की विशेष व्याख्या-- महर्षि ने यहां यज्ञपति शब्द की व्याख्या में धातु-अर्थ के आधार पर यज्ञ शब्द की बड़ी सुन्दर व्याख्या की है। यज्ञ शब्द यज् देवपूजासंगतिकरणदानेषुधातु से सिद्ध होता है। इस धातु के देवपूजा, संगतिकरण और दान ये तीन अर्थ हैं। अब क्रमशः इनकी महर्षि की व्याख्या देखिये-(क) देवपूजा-- विद्या, धर्म और धर्माचरणा की दृष्टि से वृद्ध विद्वानों का इस लोक और परलोक के सुख की सिद्धि के लिए सत्कार करना। (ख) संगतिकरण-- अच्छी प्रकार पदार्थों के गुणों के मेल और विरोध-ज्ञान की संगति से शिल्पविद्या का प्रत्यक्ष करना एवं नित्य विद्वानों का संग करना। (ग) दान-- शुभ विद्या, सुख-धर्मादि गुणों का नित्य का दान करना।

    ४. यज्- यजुर्वेद का यजुःपद भी इसी ‘यज्’ धातु से बनता है। जैसे महर्षि इसी यजुर्वेदभाष्य के प्रारम्भ में लिखते हैं - ‘‘यजुर्भिजन्तीत्युक्तप्रामाण्यात्-येन मनुष्यों ईश्वर धार्मिकान् विदुषश्च पूजयन्ति सर्वचेष्टासांगत्यं शिल्पविद्यासंगतिकरणां, शुभविद्यागुणदान  यथायोग्तया सर्वोपकारे शुभे व्यवहारे विद्वत्सु च द्रव्यादिव्ययं कुर्वन्ति तद्यजुः’’ जिससे मनुष्य--(देवपूजा) ईश्वर और धार्मिक विद्वानों की पूजा करते हैं, (संगतिकरण) सब क्रियाओं की संगति तथा शिल्पविद्या का संग करते हैं, (दान) विद्यादि गुणों का दान, यथायोग्य सबके उपकार तथा शुभ व्यवहार में और विद्वानों पर द्रव्य आदि का व्यय करते हैं उसे यजुःकहते हैं। यहाँ महर्षि की ‘यजु’ शब्द की व्याख्या में भी यज् धातु का देव-पूजा, संगतिकरण और दान अर्थ स्पष्ट है। अतः यजुर्वेद का प्रतिपाद्य का विषय भी यही है॥२॥

    विशेष

    परमेष्ठी प्रजापतिः। यज्ञः=स्पष्टम्। स्वराडार्षी त्रिष्टुप्। धैवतः॥

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    विषय

    यज्ञिय-जीवन

    पदार्थ

    शतपथ [ १ । ७। १। ९ , १४ ] में ‘यज्ञो वै वसुः’ इन शब्दों में वसु का अर्थ यज्ञ किया है। ‘वासयति’ इस व्युत्पत्ति से यह ठीक भी है, क्योंकि यज्ञ ही बसाता है। यज्ञ के अभाव में नाश-ही-नाश है। ‘नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्यः कुरुसत्तम’ यज्ञहीन का न यह लोक है, न परलोक। इस यज्ञ के द्वारा मनुष्य के जीवन का सुन्दर निर्माण होता है, अतः प्रभु प्रेरणा देते हुए कहते हैं—

    १. ( वसोः ) = यज्ञ से ( पवित्रम् असि ) = तू पवित्र-ही-पवित्र बना है। हमारे जीवनों में जितना-जितना यज्ञ का अंश आता जाता है, उतना-उतना ही हमारा जीवन पवित्र बनता जाता है। यज्ञ परार्थ व परोपकार है। वह पुण्य के लिए होता है। अयज्ञ स्वार्थ है, परापकार है, परपीड़न है और पाप का कारण है। 

    २. इस यज्ञ से ही तू ( द्यौः असि ) = प्रकाशमय जीवनवाला है। तेरा मस्तिष्करूप द्युलोक ज्ञान-सूर्य से चमकता है। यज्ञ में प्रथम स्थान देवपूजा का है। यह देवपूजा तेरे मस्तिष्क को अधिक और अधिक ज्योतिर्मय करती चलती है। 

    ३. ( पृथिवी असि ) = ‘प्रथ विस्तारे’, इस यज्ञ से तू अपनी शक्तियों का विस्तार करनेवाला है। यज्ञमय जीवन विलासमय जीवन का प्रतिरूप=उलटा है, अतः यह शक्तियों के विस्तार का कारण बनता है। 

    ४. ( मातरिश्वनः घर्मः असि ) = इस यज्ञमय जीवन के कारण ही तू वायु = प्राण की उष्णतावाला है, अर्थात् तेरी प्राणशक्ति की वृद्धि हुई है। 

    ५. इस बढ़ी हुई शक्ति से ही तू ( विश्वधाः असि ) = सबका धारण करनेवाला बनता है। तेरी शक्ति सदा औरों के रक्षण का कारण बनती है। 

    ६. यह औरों की रक्षा करनेवाली शक्ति ही तो उत्कृष्ट शक्ति है। निकृष्ट तेज औरों का नाश करता है, मध्यम तेज अपने ही धारण में विनियुक्त होता है, परन्तु उत्कृष्ट तेज सभी के धारण का कारण बनता है। इस ( परमेण धाम्ना ) = उत्कृष्ट तेज से ( दृंहस्व ) = तू अपने को दृढ़ बना और सबका धारण करता हुआ ‘विश्वधा’ बन।

    ७. ( मा ह्वाः ) = अपने जीवन में तू कभी कुटिल गतिवाला मत बन, सदा सरल मार्ग को अपनानेवाला बन। यज्ञ के साथ कुटिलता का सम्बन्ध है ही नहीं। 

    ८. ( ते ) = तेरे विषय में ( यज्ञपतिः ) = इस सृष्टि-यज्ञ का रक्षक प्रभु ( मा ह्वार्षीत् ) = कठोर नीति का अवलम्बन न करे। प्रभु ने कहा और तूने किया। प्रभु के इस ‘साम’—शान्त उपदेश को तू सदा सुन। तेरे विषय में प्रभु को ‘दान, भेद व दण्ड’ के प्रयोग की आवश्यकता ही न हो। आर्जव = सरलता ही ब्रह्म-प्राप्ति का मार्ग है। इस मार्ग का अनुसरण करके ही यह ‘परमेष्ठी’ = परम स्थान में स्थित होगा और यज्ञ की भावना को अपनानेवाला ‘प्रजापति’ बनेगा।

    भावार्थ

    भावार्थ—यज्ञ से मैं पवित्र, ज्योतिर्मय, विकसित शक्तियोंवाला, प्राणशक्ति से पूर्ण और लोकहित करनेवाला बनूँ। अपने को शक्तियों से दृढ़ बनाऊँ, कुटिल नीति को अपनाकर कभी दण्ड का भागी न बनूँ।

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    विषय

    यज्ञपति प्रभु से तेजोवृद्धि की शर्धना ।

    भावार्थ

    हे यज्ञपुरुष ! परमेश्वर ! तू ( वसोः ) सत्र संसार को बसाने हारे , सब में व्यापक रूप से बसने वाले , श्रेष्ठ कर्म, यज्ञ का ( पवित्रम् ) पवित्र परम पावन स्वरूप है । ( द्यौः असि ) तू द्यौः सबका प्रकाशक है और सबका आश्रय है , तू ( पृथिवी असि ) पृथिवी के समान सब से महान् सबका आश्रय़ होने से 'पृथिवी' है। तू ही ( मातरिश्वनः ) अन्तरिक्ष में निरन्तर गति करने वाले वायु का ( धर्मः असि ) संचालन करने वाला हे और इसी कारण ( विश्वधाः असि ) समस्त प्राणियों का पोषक या धारण करने हारा है । तू ( परमेण धाम्ना ) परम , सर्वश्रेष्ठ धांम , तेज , धारण सामर्थ्य से (दॄंहस्व) बढ़ , वृद्धि को प्राप्त है । हे परमात्मन् ! तू ( मा ह्वाः ) हमें कभी मत त्याग । ( यज्ञपतिः ) यज्ञ का पालक , स्वामी , यजमान पुरुष भी (ते) तुझ से कभी ( मा ह्वार्षीत् ) वियुक्त न हो  ।शत०१।७ ।१ ।|९ -११ ॥

     

    टिप्पणी

    २—यज्ञो देवता । द० ।विश्वधाः परमेण इति काण्व० ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वायुरुखा यज्ञश्च च यशो वा देवता । स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् । धवतः स्वरः ||

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    विषय

    यज्ञपति प्रभु से तेजोवृद्धि की प्रार्थना।

    भावार्थ

    हे यज्ञपुरुष ! परमेश्वर ! तू ( वसोः ) सब संसार को बसाने हारे , सब में व्यापक रूप से बसने वाले , श्रेष्ठ कर्म, यज्ञ का ( पवित्रम् ) पवित्र परम पावन स्वरूप है । ( द्यौः असि ) तू द्यौः सबका प्रकाशक है और सबका आश्रय है , तू ( पृथिवी असि ) पृथिवी के समान सब से महान् सबका आश्रय़ होने से 'पृथिवी' है। तू ही (मातरिश्वनः) अन्तरिक्ष में निरन्तर गति करने वाले वायु का ( धर्मः असि ) संचालन करने वाला हे और इसी कारण (विश्वधाःअसि ) समस्त प्राणियों का पोषक या धारण करने हारा है । तू ( परमेण धाम्ना ) परम , सर्वश्रेष्ठ धांम , तेज धारण सामर्थ्य से (दॄंहस्व) बढ़ , वृद्धि को प्राप्त है । हे परमात्मन् ! तू ( मा ह्वाः ) हमें कभी मत त्याग । (यज्ञपतिः ) यज्ञ का पालक , स्वामी , यजमान पुरुष भी (ते) तुझ से कभी ( मा ह्वार्षीत् ) वियुक्त न हो।शत०१।७ ।१ ।९ -११ ॥

     

     

    टिप्पणी

    २—यज्ञो देवता । द० ।विश्वधाः परमेण इति काण्व०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वायुरुखा यज्ञश्च च यज्ञो वा देवता । स्वराड् आर्षी त्रिष्टुप् । धवतः स्वरः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    आपले ज्ञान व उत्तम कर्म यांनी माणसे जो यज्ञ करतात त्यामुळे पावित्र्य, पृथ्वीचे राज्य, शुद्ध वायुरूपी प्राणाप्रमाणे राजकारण, पराक्रम, सर्वांचे रक्षण, इहलोक व परलोकाच्या सुखात वाढ, परस्पर सौहार्द, कुटिलतेचा त्याग इत्यादी श्रेष्ठ गोष्टी उत्पन्न होतात त्यासाठी सर्व लोकांनी परोपकार करावा व आपल्या सुखासाठी विद्या प्राप्त करून पुरुषार्थाने व प्रेमाने यज्ञाचे सदैव अनुष्ठान करावे. (येथे यज्ञ तीन प्रकारचा असतो हे सांगितलेले आहे. अर्थात एक इहलोक व परलोकाचे सुख प्राप्त करण्याची विद्या, ज्ञानी व धार्मिक विद्वानांचा सत्कार, दुसरा पदार्थांच्या संयोग व वियोगाच्या ज्ञानाने शिल्प (हस्तकौशल्य) विद्येचे प्रात्यक्षिकीकरण आणि तिसरा सदैव विद्वानांची संगती, धर्म व सत्य यांचे पालन.

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    विषय

    तो यज्ञ कसा आहे, पुढील मंत्रात याविषयी उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्यायुक्त मानवा तू जाण की (वसोः) यज्ञ (पवित्रम्) शुद्धीचे कारण साधन (असि) आहे. (घौः) विज्ञानाच्या विकासाचा व प्रकटनाचा हेतु आहे आणि सूर्याच्या किरणांत वास्तव करणारा (असि) आहे. (पृथिवी) हा यज्ञच वायुच्या साथीने देशदेशान्तरापर्यंत जाणारा (असि) आहे. (मातरिश्‍वनः) हा यज्ञच वायूला (धर्मः) शुद्ध करणारा करणारा (असि) आहे. तसेच यज्ञच (परमेण) उत्तम (धाम्ना) स्थानात राहून (दृ ँहस्व) सुखाची वृद्धी करणारा आहे. हे मानवा, तू या यज्ञाचा (ह्वा) त्याग (या) करूं नकोस. (ते) तुझ्या (यज्ञपतिः) यज्ञाचे रक्षण करणार्‍या यजमानाने देखील या यज्ञाचा (माह्वार्षीत) त्याग करू नये.

    भावार्थ

    भावार्थ - आपल्या विद्या व उत्तम क्रिया याद्वारे जी माणसें यज्ञ करतात, त्या यज्ञामुळे पवित्रतेचा प्रसार होतो. पृथिवीचे राज्य संपादित करता येते. वायुरूप प्राणांप्रमाणे राजनीति करता येते. प्रतापाची वृद्धी होते सर्वांचे रक्षण होते. या लोकात आणि परलोकात सुखाची वृद्धी होते, सर्व जण परस्पर स्नेह आणि मृदु-मधुर आचरण करतात आणि कुटिलतेचा त्याग करतात. यज्ञामुळे या श्रेष्ठ गुणांची उत्पत्ती होत असल्यामुळे सर्व मानवांसाठी आवश्यक आहे की त्यानी परोपकार करावा तसेच आपल्या सुखाकरिता विद्या आणि पुरुषार्थच्या साहाय्याने नित्यच अत्यंत प्रीतीचे या यज्ञाचे अनुष्ठान करावे. ॥2॥

    टिप्पणी

    यज् धातूच्या तीन अर्थांवरून ‘यज्ञ’ शब्दाचे तीन अर्थ निघतात. पहिला अर्थ असा - या लोकात व परलोकात सुखाची वृद्धी व्हावी, याकरिता जे जन विद्या, ज्ञान आणि धर्माच्या साहाय्याने वृद्ध म्हणजे अनुभवी व महिमामय झाले आहेत म्हणजे जे थोर-थोर विद्वान् आहेत, त्यांचा सत्कार करणे. दुसरा अर्थ असा-पदार्थांच्या गुणांचे मिश्रण व विरोध या दोन्ही विषयी ज्ञान संपादन करून शिल्पविद्येचे अविष्करण करणें. तिसरा अर्थ असा- विद्वज्जनांची संगत करणे आणि शुभ गुणांचे, तसेच विद्या, सुख, धर्म व सत्याचे नित्य-निरंतर दान करणे. ॥2॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Yajna acts as purifier, makes explicit, true and perfect knowledge, spread in space through the rays of the sun, purifies the air, is the mainstay of the universe, and also adds to our comfort through its office. It behoves us all the learned and their followers not to give up the performance of yajnas.

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    Meaning

    Yajna is sacred. It is the light of the sun, the life of the earth, the breath of air, the holy warmth of life that sustains and sanctifies existence. Go on, expand and raise the joy of life to the heights of heaven. Neglect not yajna. May the Lord of yajna never forsake you.

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    Translation

    You are the purifier of riches. (1) You are heaven; earth you аге as well. (2) You are the warmth of the wind. You are the sustainer of the world. Remain firm in your supreme abode. Don't you forsake, nor may the sacrificer forsake you. (3)

    Notes

    Vasu, riches, wealth, property. Bright and radiant is also vasu. In legend, vasus are a particular class of gods, usually eight in number, chief of whom is Indra. The sacrifice is also mentioned as vasu, 'यज्ञो वे वसुः' इति श्रुतेः(Satapatha, 1. 7. 1. 9). Dyauh, the sky or heaven. Shining outer space is meant by this term. It is above the midspace (अन्तरिक्ष), which is above the earth (पृथ्वि). In the Veda, sometimes dyauh is mentioned alone, but frequently it comes jointly with prthivi, the earth. The dyauh is considered as father and the prthivi as mother. The former is great and brilliant and the later vast and firm. Prthivi, the earth. From पृथु, to extend. As it extends far and wide, so it is called prthivi or prthvi. Matarisvan, the wind. मातरि अन्तरिक्षे श्वसिति; as it breathes in the midspace, so the wind is called matarisvan. Gharma, warmth, heat, धर्मः अग्नितापयुक्तः शोधकः, purifier with the heat of the fire. - Daya. Gharma is a synonym of yajna also. Pavitram, purifier; a strainer is also called pavitram as it purifies the liquid (milk or soma). Visvadha, sustainer of the world. The word visva means ‘the world’ and also ‘all’. So this word may have two meanings, the sense more or less being the same. Paramena dhamna, supreme abode. Parama the highest. Dhama is abode. धामानि त्रीणि भवन्ति स्थानानि नामानि जन्मानीति च, i. e. dhama has three meanings, an abode, a name, and а life. Drmhasva, remain firm. Hvah, forsake. (Dayananda. ) Yajnapatih, Lord of the sacrifice, i. e. the person performing the sacrifice. Same as yajamana. God also may be called yajnapati, because He is the Lord of the sacrifice.

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    बंगाली (1)

    विषय

    স য়জ্ঞঃ কীদৃশো ভবতীত্যুপদিশ্যতে ॥
    সেই যজ্ঞ কী প্রকার হইবে এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদ্যাযুক্ত মনুষ্য! তুমি যে (বসোঃ) যজ্ঞ (পবিত্রম্) শুদ্ধির হেতু (অসি), (দ্যৌঃ) যাহা বিজ্ঞানালোকের হেতু এবং সূর্য্য-কিরণে স্থির থাকে, যাহা (পৃথিবী) বায়ু সহ দেশদেশান্তরে বিস্তীর্ণ হয়, যাহা (মাতরিশ্বনঃ) বায়ু কে (ধর্মঃ) শুদ্ধকারী, যাহা (বিশ্বধাঃ) সংসারের ধারক তথা যাহা (পরমেণ) উত্তম (ধাম্না) স্থান হইতে (দৃহস্ব) সুখ বৃদ্ধিকারক, এই যজ্ঞকে (মা) না (হ্বাঃ) ত্যাগ করিও । তথা (তে) তোমার (য়জ্ঞপতিঃ) যজ্ঞের রক্ষাকারী যজমানও তাহাকে (মা) না (হ্বার্ষীৎ) ত্যাগ করে । ধাত্বর্থের অভিপ্রায়ে যজ্ঞ শব্দের অর্থ তিন প্রকার হয় অর্থাৎ প্রথম যাহা ইহলোকও পরলোকের সুখের জন্য বিদ্যা, জ্ঞান ও ধর্মের সেবনের ফলে বৃদ্ধ অর্থাৎ বড় বড় বিদ্বান্, তাহাদের সৎকার করা । দ্বিতীয় ভাল প্রকার পদার্থগুলির গুণের সহযোগিতা ও বিরোধিতার জ্ঞান দ্বারা শিল্পবিদ্যা প্রত্যক্ষ করা এবং তৃতীয় নিত্য বিদ্বান্দিগের সমাগম অথবা গুভগুণ, বিদ্যা, সুখ, ধর্ম ও সত্যের নিত্য দান করা ॥ ২ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- মনুষ্যগণ স্বীয় বিদ্যা ও উত্তম ক্রিয়া দ্বারা যে যজ্ঞের সেবন করিয়া থাকে তাহা হইতে পবিত্রতার প্রকাশ, পৃথিবীর রাজ্য, বায়ুরূপী প্রাণতুল্য রাজনীতি, প্রতাপ, সকলের রক্ষা, ইহলোক ও পরলোকের সুখের বৃদ্ধি, পরস্পর কোমলতা পূর্বক ব্যবহার করা এবং কুটিলতা ত্যাগ ইত্যাদি শ্রেষ্ঠ গুণ উৎপন্ন হইয়া থাকে এইজন্য সকল মনুষ্যকে পরোপকার তথা স্বীয় সুখের জন্য বিদ্যা ও পুুরুষকার সহ প্রীতিপূর্বক যজ্ঞের অনুষ্ঠান নিত্য করা আবশ্যক ।

    मन्त्र (बांग्ला)

    বসোঃ॑ প॒বিত্র॑মসি॒ দ্যৌর॑সি পৃথি॒ব্য᳖সি মাত॒রিশ্ব॑নো ঘ॒র্মো᳖ऽসি বি॒শ্বধা॑ऽ অসি । প॒র॒মেণ॒ ধাম্না॒ দৃꣳহ॑স্ব॒ মা হ্বা॒র্মা তে॑ য়॒জ্ঞপ॑তির্হ্বার্ষীৎ ॥ ২ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    বসোঃ পবিত্রমিত্যস্য ঋষিঃ স এব । য়জ্ঞো দেবতা । স্বরাডার্ষী ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ । ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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    उर्दू (1)

    Vishay

    وِدّیا- پُرشارتھ اور پریم کے ساتھ یگیّہ انوشٹھان

    Padarth

    : ہے وِدّیا یُکت منش! تو جو(وسوہ) یگیہ(پوترم) شدھی کا ہیتو(اسی) ہے(دیئو) جو پرکاش کا ہیتو اور سُوریہ کی کرنوں میں ستھر ہونے والا(اسی) ہے جو(پرتھوی) وایو کےساتھ دیش دیشانتروں میں پھیلنے والا(اسی) ہے جو(ماترشوہ) وایو کو شُدھ کرنے والا(اسی) ہے جو(وشودھاہ) سنسار کا دھارن کرنے والا(اسی) ہے تتھا جو(پرسین دھامنا) اُتم ستھان سے(درنگ سہو) سُکھ کا بڑھانے والا ہے۔ اس یگیّہ کا(ماہواه) مت تیاگ کر تتھا یگیّہ کی رکھشا کرنے والا یجمان بھی اس کو نہ تیاگے۔

    Bhavarth

    منُش لوگ اپنی وِدّیا اور اُتم کریا سے جس یگیّہ کا سیون کرتے ہیں۔اس سے پوّترتا کا پرکاش- پرتھوی کا راجیہ وایو روپی پران کے تُلیہ راجیہ نیتی۔ پرتاپ سب کی رکھشا- اس لوک اور پرلوک میں سُکھ کی وردھی پرسپر کوملتا سے ورتنا اور کُٹلتا کا تیاگ اتیادی شریشٹھ گُن اُتپن ہوتے ہیں۔ اس لئے سب منُشوں کو پروپکار تتھا اپنے سُکھ کے لئے وِدّیا اور پُرشارتھ کے ساتھ پریتی پوروک یگیّہ کا انوشٹھان کرنا چاہیئے۔ یگیّہ کی مہما: "جہاں پہلے منتر میں یگیّہ کو شریشٹھتم کرم کہہ کر اس کے لئے پریرنا دیگئی ہے وہاں دُوسرے اس منتر میں یگیّہ کیا ہے؟ کس پرکار کا ہوتا ہے__ اس شیرشک سے رِشی دیانند نے__________ اپنے منتر بھاشیہ میں سپشٹ رُوپ سے یگیہ پر روشنی ڈالتے ہوئے اسے "وسو" ارتھات بسانے والا کہا ہے۔ وسو نام ایشور کا بھی ہے- اور یگیّہ نام بھی ایشور کا آیا ہے- اس یگیّہ سوروپ پرماتما نے سرشٹی کو بنایا۔ مانو اور پشُو آدی پرانیوں کو جنگل پربتوں اور اُن کے لئے پرتھوی کو دُودھ گھی دینے والے گئو آدی کو سب کے کلیان کے لئے رِگ یجُر سام اور اتھروَید کے دوارہ گیان کرم اُپاسنا آدی تین ودیاؤں کو(دیکھو یجر وید ادھیائے 31) شرمد بھگوت گیتا کے تیسرے ادھیائے میں بھی مہاراج کرشن نے یہ صاف لکھا ہے کہ شرشٹی کے آرمبھ میں اس پرجاپتی پرماتما نے یگیہ کے ساتھ پرجاؤں کو پیدا کیا اور ساتھ ہی یہ بھی آدیش دیا کہ اس یگیّہ کے کرنے سے تم بڑھو سُکھ ایشوریہ سے سمردھ بنو یہ یگیّہ تمھاری اِچھاؤں کو کامناؤں کو پُورا کرنے والی کام دھینو ہے۔ 2- یگیّہ شُدھی کرنے والا ہے اگنی ہوتر یا ہون اس کا پرتیک ہے۔ یگیّہ شبد کا ویاپک اور وشال ارتھ پاٹھک پڑھ چکے ہیں۔ان ارتھوں کو جو شاستروں نے دیا ہے یتن پوروک پڑھیں- اور یگیّہ سے اپار لابھ پراپت کریں۔ اگنی ہوتر سے جل وایو کی شدھی تو ہوتی ہی ہے اور شُدھ پوّترہونے سے ہی روشنی یا پرکاش ہوتا ہے۔ رِشی دیانند نے اگنی ہوتر آدی یگیوں کی لوپ ہوگئی مریادا پھر سے جیوت جاگرت کرنے کے لئے اس کے وگیان کو پرگٹ کرنے کے لئے بہت کچھ لکھا ہے۔ جیسے یگیّہ سے جو بھاپ اُٹھتی ہے وہ ہوا اور بارش کے پانی کو سب قسم کی خرابیوں سے پاک و صاف کرکے جو خوشبودار بنا کر سب جگت کو سُکھ دیتی ہے۔ جو خوشبودار وغیرہ چیزوں کو سے ملی ہوئی ہوا ہون کے ذریعے آکاش میں چڑھتی ہے وہ بارش کے پانی کو صاف کر دیتی ہے۔ صاف پانی اور ہوا کے ذریعے اناج وغیرہ پودے بھی نہایت صاف ہو جاتے ہیں۔ اس طرح ہر روز خوشبو کے زیادہ ہونے سے دنیا میں سُکھ دنبدن زیادہ بڑھتا ہے۔ یہ فائدہ آگ میں ہون کرنے کے بغیر دُوسری طرح سے ہونا ناممکن ہے۔(رِگ وید آدی بھاشیہ بُھومکا) اسی لئے یہ یگیّہ جہاں ماتر شوہ ارتھات پران وایو کو شُدھ کرتا ہے اس لئے یہ وشو دھاہ یا وشودھارک ارتھات سب پرانیوں کا پران جیون ہے۔ابھی پچھلے دِنوں آسٹریا کی راجدھانی وی آنا کی خبر تھی کہ وہاں لوگ گیس پروف لباس پہننے لگ گئے ہیں- اور آکسیجن ساتھ رکھتے ہیں جس سے روزمّرہ گاڑی موٹر ہوائی جہاز وغیرہ کے لاکھوں کی تعداد میں آنے جانے سے نکلی ہوئی تیل پٹرول کی گیسوں سے اور سگرٹ کے بکثرت اندھا دُھند استعمال سے دنیا کے بڑے بڑے شہروںکی وایو بدبودار ہوکر منُش سماج کی ہلاکت اور کینسر آدی بیماریوں کا کارن ہو رہی ہے۔ اس لئے لوگ پریشان ہیں- اور کوئی راستہ دکھائی نہیں دے رہا لیکن آغاز دنیا میں وید آدی ست شاستروں کے ویاکھیان کرنے والوں رِشیوں نے تو بڑی کرپا کرکے وایو اور جل کو شدھ کرنے اور سب کو سُکھی جیون دینے کے لئے اس اگنی ہوتر کو مہا یگیّہ کہہ کر گھریلو جیون میں نتیہ کرم ارتھات روزمرہ کا اتینت ہی ضروری کرم بتلادیا۔ جس میں ناغہ کرنا بھی پاپ مانا گیا۔ پھر اس منتر کے بھاوارتھ میں کتنی ہی امولیہ باتوں کا ذکر ہے۔ یگیّہ کرم کے دوارہ ہی پرتھوی کے راجیہ کی پراپتی۔ پرسپر کوملتا- ارتھات پیار نرملتا نردوشتا کا برتاؤ چھل کپٹ آدی کُٹلتا کا تیاگ۔ پھر راجیہ نیتی کو پران تُلیہ ماننے کے لئے رشی نے لکھا ہے-اگر اس سے لاپرواہ رہیں گے تو نتیجہ صاف ہے-کہ چور اُچکے ادھرمی پاپی ہی لیڈ- چودھری ایک راجیہ ادھیکاری بن کر پرجا کے سُکھ کو نشٹ بھرشٹ کردیں گے۔ جیسا کہ لاقانونی کا ورتمان ہو رہا ہے۔ لیکن یہ سب کچھ یگیّہ بھاؤ سے ہی ہو_ ارتھات سب کی رکھشا پالن اور سیوا کے لئے۔ اِس لئے منتر کا دیوتا بھی یگیّہ ہے۔

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