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यजुर्वेद अध्याय - 1

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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 4
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
    4

    सा वि॒श्वायुः॒ सा वि॒श्वक॑र्मा॒ सा वि॒श्वधा॑याः। इन्द्र॑स्य त्वा भा॒गꣳ सोमे॒नात॑नच्मि॒ विष्णो॑ ह॒व्यꣳर॑क्ष॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सा। वि॒श्वायु॒रिति॑ वि॒श्वऽआ॑युः। सा। वि॒श्वक॒र्मेति॑ वि॒श्वऽक॑र्मा। सा। विश्वधा॑या॒ इति॑ वि॒श्वऽधा॑याः। इन्द्र॑स्य। त्वा॒। भा॒गं। सोमे॑न। आ। त॒न॒च्मि॒। विष्णो॒ इति॒ वि॒ष्णो॑। ह॒व्यं। र॒क्ष॒ ॥४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सा विश्वायुः सा विश्वकर्मा सा विश्वधायाः । इन्द्रस्य त्वा भागँ सोमेना तनच्मि विष्णो हव्यँ रक्ष ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    सा। विश्वायुरिति विश्वऽआयुः। सा। विश्वकर्मेति विश्वऽकर्मा। सा। विश्वधाया इति विश्वऽधायाः। इन्द्रस्य। त्वा। भागं। सोमेन। आ। तनच्मि। विष्णो इति विष्णो। हव्यं। रक्ष॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अत्र त्रिविधस्य प्रश्नस्य त्रीण्युत्तराण्युपदिश्यन्ते॥

    अन्वयः

    हे विष्णो व्यापकेश्वर! भवता या वाग्धार्य्यते सा विश्वायुः सा विश्वकर्मा सा विश्वधाया अस्ति। तया त्रिविधया गृहीतयैवाहं यमिन्द्रस्य [त्वा तं] भागं यज्ञं सोमेनातनच्मि तं हव्यं यज्ञं त्वं सततं रक्ष॥४॥

    पदार्थः

    (सा) वाक्। वागु वै यज्ञः (शत॰१.१.४.११) (विश्वायुः) पूर्णमायुर्यस्यां सा ग्रहीतव्या (सा) शिल्पविद्यासंपादिका (विश्वकर्मा) विश्वं संपूर्णं क्रियाकाण्डं सिध्यति यया सा (सा) संपूर्णविद्याप्रकाशिका (विश्वधायाः) या विश्वं सर्व जगद्विद्यागुणैः सह दधाति सा। विश्वोपपदे ‘डुधाञ्’ धातोः ‘असुन्’ प्रत्ययः, बाहुलकाण्णिच्च। (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य यज्ञस्य वा। (त्वा) तम्। अत्र पुरुषव्यत्ययः। (भागम्) भजनीयं शुभगुणभाजनं यज्ञम् (सोमेन) शिल्पविद्यया संपादितेन रसेनानन्देन वा (आ) समन्तात् (तनच्मि) संकोचयामि दृढीकरोमि (विष्णो) वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं विश्वं तत्संबुद्धौ परमेश्वर (हव्यम्) पूर्वोक्तयज्ञसम्बन्धि दातुं ग्रहीतुं योग्यं द्रव्यं विज्ञानं वा (रक्ष) पालय॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.५.४.१७-२१) व्याख्यातः ॥४॥

    भावार्थः

    त्रिविधा वाग्भवति। या ब्रह्मचर्य्याश्रमे पूर्णविद्यापठनाय पूर्णायुः करणाय च सेव्यते सा प्रथमा। या गृहाश्रमेऽनेकक्रिययोद्योगसुखप्रापकफला विस्तीर्य्यते सा द्वितीया या च सर्वमनुष्यैः सर्वमनुष्येभ्यः शरीरात्मसुखवर्धनायेश्वरादिपदार्थविज्ञानप्रकाशिका वानप्रस्थसंन्यासाश्रमे खलूपदिश्यते सा तृतीया। न चैनया विना कस्यापि सर्वं सुखं भवितुमर्हति। अनयैव मनुष्यैः पूर्वोक्तो यज्ञोऽनुष्ठातव्यः। व्यापकेश्वरः स्तोतव्यः प्रार्थनीय उपासनीयश्च भवति। अनुष्ठितोऽयं यज्ञो जगति रक्षाहेतुः प्रेम्णा सत्यभावेन प्रार्थितश्चेश्वरस्तान् सर्वदा रक्षति। परन्तु ये क्रियाकुशला धार्मिकाः परोपकारिणा जनाः सन्ति त ईश्वरं धर्मं च विज्ञाय सम्यक् क्रियया साधनेनैहिकं पारत्रिकं च सुखं प्राप्नुवन्ति नेतरे॥४॥

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    विषयः

    अथ त्रिविधस्य प्रश्नस्य त्रीण्युत्तराण्युपदिश्यन्ते॥

    सपदार्थान्वयः

    हे विष्णो != व्यापकेश्वर! वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं विश्वं तत्सम्बुद्धौ, परमेश्वर! भवता या वाग् धार्यते, सा वाग् विश्वायुः पूर्णमायुर्यस्यां सा ग्रहीतव्या, सा शिल्पविद्यासम्पादिका विश्वकर्मा विश्वं=सम्पूर्णं क्रियाकाण्डं सिध्यति यया सा,  सा सम्पूर्णविद्याप्रकाशिका विश्वधायाः या विश्वं सर्वं जगद्विद्यागुणैः सह दधाति सा, अस्ति। तया त्रिविधया गृहीतयैवाहं यमिन्द्रस्य परमेश्वरस्य यज्ञस्य वा भागम्=यज्ञं भजनीयं शुभगुणभाजनं यज्ञं सोमेन शिल्पविद्यया सम्पादितेन रसेनाऽऽनन्देन वा आतनच्मि समन्तात् संकोचयामि= दृढीकरोमि।

    [त्वा] =तं  हव्यम्=यज्ञं पूर्वोक्तयज्ञसम्बन्धि दातुं ग्रहीतुं योग्यं द्रव्यं विज्ञानं वा त्वं सततं रक्ष पालय॥ १।४॥

    पदार्थः

    (सा) वाक्। वाग् वै यज्ञः॥ श० १। १। ४। ११॥ (विश्वायुः) पूर्णमायुर्यस्यां सा ग्रहीतव्या (सा) शिल्पविद्यासंपादिका (विश्वकर्मा) विश्वं संपूर्णं क्रियाकाण्डं सिध्यति यया सा (सा) संपूर्ण विद्याप्रकाशिका (विश्वधायाः) या विश्वं सर्वं जगद्विद्यागुणैः सह दधाति सा। विश्वोपपदे डुधाञ् धातोरसुन्प्रत्ययः बाहुलकाण्णिच्च (इन्द्रस्य) परमेश्वरस्य यज्ञस्य वा (त्वा) तम्। अत्र पुरुषव्यत्ययः (भागम्) भजनीयं शुभगुणभाजनं यज्ञम् (सोमेन) शिल्पविद्यया सम्पादितेन रसेनानन्देन वा (आ) समन्तात् (तनच्मि) संकोचयामि=दृढीकरोमि (विष्णो) वेवेष्टि व्याप्नोति चराचरं विश्वं तत्संबुद्धौ परमेश्वर (हव्यम्) पूर्वोक्तयज्ञसंबन्धि दातुं ग्रहीतुं योग्यं द्रव्यं विज्ञानं वा (रक्ष) पालय॥ अयं मंत्रः श० १।७।१।१७-२१ व्याख्यातः॥ ४

    भावार्थः

    [ सा विश्वायुः]

    त्रिविधा वाग् भवति--या ब्रह्मचर्याश्रमे पूर्णविद्यापठनाय पूर्णायुःकरणाय च सेव्यते सा प्रथमा,

    [ सा विश्वकर्मा]

    या गृहाश्रमेऽनेकक्रिययोद्योगसुखप्रापकफला विस्तीर्यते सा द्वितीया,

    [ सा विश्वधायाः]

    या च सर्वमनुष्यैः सर्वमनुष्येभ्यः शरीरात्मसुखवर्धनायेश्वरादि पदार्थ विज्ञानप्रकाशिका वानप्रस्थ- संन्यासाश्रमे खलूपदिश्यते सा तृतीया, न चैनया विना कस्यापि सर्वं सुखं भवितुमर्हति।

    [तया त्रिविधया गृहीतयैवाहं यमिन्द्रस्य भागं=यज्ञं--आतनच्मि]

    अनयैव मनुष्यैः पूर्वोक्तो यज्ञोऽनुष्ठातव्यः, व्यापकेश्वरः स्तोतव्यः प्रार्थनीय उपासनीयश्च भवति।

    [ त्वा=तं हव्यं=यज्ञं त्वं सततं रक्ष]

    अनुष्ठितोऽयं यज्ञो जगति रक्षणहेतुः, प्रेम्णा सत्यभावेन प्रार्थितश्चेश्वरस्तान् सर्वदा रक्षति।

    [ के सुखं प्राप्नुवन्तीत्याह--]

    परन्तु--ये क्रियाकुशला धार्मिकाः परोकारिणो जनाः सन्ति त ईश्वरं धर्मं च विज्ञाय सम्यक् क्रियया साधनेनैहिकं पारत्रिकं च सुखं प्राप्नुवन्ति, नेतरे॥ १। ४॥

    विशेषः

    परमेष्ठी प्रजापतिः। विष्णु:=व्यापकेश्वरः। अनुष्टुप्। गांधारः॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    जो पूर्वोक्त मन्त्र में तीन प्रश्न कहे हैं, उनके उत्तर अगले मन्त्र में क्रम से प्रकाशित किये हैं॥

    पदार्थ

    हे (विष्णो) व्यापक ईश्वर! आप जिस वाणी का धारण करते हैं, (सा) वह (विश्वायुः) पूर्ण आयु की देने वाली (सा) वह (विश्वकर्मा) जिससे कि सम्पूर्ण क्रियाकाण्ड सिद्ध होता है और (सा) वह (विश्वधायाः) सब जगत् को विद्या और गुणों से धारण करने वाली है। पूर्व मन्त्र में जो प्रश्न है, उसके उत्तर में यही तीन प्रकार की वाणी ग्रहण करने योग्य है, इसी से मैं (इन्द्रस्य) परमेश्वर के (भागम्) सेवन करने योग्य यज्ञ को (सोमेन) विद्या से सिद्ध किये रस अथवा आनन्द से (आ तनच्मि) अपने हृदय में दृढ़ करता हूं तथा हे परमेश्वर! (हव्यम्) पूर्वोक्त यज्ञ सम्बन्धी देने-लेने योग्य द्रव्य वा विज्ञान की (रक्ष) निरन्तर रक्षा कीजिये॥४॥

    भावार्थ

    तीन प्रकार की वाणी होती है अर्थात् प्रथम वह जो कि ब्रह्मचर्य में पूर्ण विद्या पढ़ने वा पूर्ण आयु होने के लिये सेवन की जाती है। दूसरी वह जो गृहाश्रम में अनेक क्रिया वा उद्योगों से सुखों की देने वाली विस्तार से प्रकट की जाती और तीसरी वह जो इस संसार में सब मनुष्यों के शरीर और आत्मा के सुख की वृद्धि वा ईश्वर आदि पदार्थों के विज्ञान को देने वाली वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में विद्वानों से उपदेश की जाती है। इस तीन प्रकार की वाणी के विना किसी को सब सुख नहीं हो सकते, क्योंकि इसी से पूर्वोक्त यज्ञ तथा व्यापक ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करना योग्य है। ईश्वर की यह आज्ञा है कि जो नियम से किया हुआ यज्ञ संसार में रक्षा का हेतु और प्रेम सत्यभाव से प्रार्थित ईश्वर विद्वानों की सर्वदा रक्षा करता है, वही सब का अध्यक्ष है, परन्तु जो क्रिया में कुशल धार्मिक परोपकारी मनुष्य हैं, वे ही ईश्वर और धर्म को जानकर मोक्ष और सम्यक् क्रियासाधनों से इस लोक और परलोक के सुख को प्राप्त होते हैं॥४॥

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    विषय

    अब तीन प्रकार के प्रश्नों के तीन उत्तरों का उपदेश किया जाता है ।।

    भाषार्थ

    हे (विष्णो)! चराचर जगत् में व्यापक ईश्वर! आप जिस वाणी को धारण करते हैं (सा) वह वाणी (विश्वायुः) पूर्ण आयु को देने वाली होने से ग्राह्य है (सा) वह शिल्पविद्यायुक्त होने से (विश्वकर्मा) सब कर्मकाण्ड को सिद्ध करने वाली है और (सा) वह सब विद्याओं की प्रकाशक होने से (विश्वधायाः) सब जगत् का विद्यादि गुणों से धारण-पोषण करने वाली है।

    उस तीन प्रकार की वाणी को ग्रहण करने से ही मैं जिस (इन्द्रस्य) परमेश्वर वा यज्ञ के (भागम्) सेवनीय एवं शुभ गुणों के स्थान यज्ञ को (सोमेन) शिल्पविद्या से सिद्ध किये रस वा आनन्द से (आतनच्मि) सब ओर से अपने हृदय में दृढ़ करता हूँ।

    (त्वा) उस (हव्यम्) यज्ञ एवं पूर्वोक्त यज्ञ-संबंधी देने वा ग्रहण करने योग्य द्रव्य अथवा विज्ञान की आप (रक्ष) सदा रक्षा कीजिए॥१॥४॥

    भावार्थ

    तीन प्रकार की वाणी होती है--प्रथम वह जो ब्रह्मचर्याश्रम में पूर्ण विद्या पढ़ने एवं पूर्ण आयु करने के लिए सेवन की जाती है,

    दूसरी वह जो गृहाश्रम में अनेक क्रियाओं से उद्योग के सुखदायक फलों वाली विस्तृत की जाती है,

    औरतीसरी वह जो सब मनुष्यों के द्वारा सब मनुष्यों के लिए शरीर और आत्मा की सुखवृद्धि के लिए ईश्वरादि पदार्थों के विज्ञान को प्रकाशित करने वाली वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम में उपदेश की जाती है, और इसके बिना किसी को भी सब सुख प्राप्त नहीं हो सकते

    इस उक्त तीन प्रकार की वाणी से ही मनुष्य पूर्वोक्त यज्ञ का अनुष्ठान करें और इसी से व्यापक ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करना योग्य है।

    इस प्रकार सेवित यह यज्ञ जगत् में रक्षा का हेतु होता है, प्रेम और सच्ची भावना से प्रार्थना करने पर ईश्वर प्रार्थी की सदा रक्षा करता है।

    परन्तु जो कर्मकुशल, धार्मिक, परोपकारी लोग हैं वे ईश्वर और धर्म को जानकर ठीक कर्म और साधन से इस लोक और परलोक के सुखों को प्राप्त करते हैं, दूसरे नहीं॥ १।४॥

    भाष्यसार

    १. ईश्वर--चर और अचर जगत् में व्यापक होने से यहां ईश्वर को विष्णुकहा गया है। और परमैश्वर्य वाला होने से इन्द्रभी बतलाया है। वह विश्वायु, विश्वकर्मा, विश्वधायानामक तीन प्रकार की वाणियों को धारण करने वाला है।

    २. तीन प्रकार की वाणी-- इस अध्याय के तृतीय मन्त्र में जो जिज्ञासु विद्वान् से प्रश्न किया गया था कि तू किस वाणी को प्राप्त करना चाहता है,उसका इस मन्त्र में उत्तर दिया गया है। विश्वायु, विश्वकर्मा और विश्वधाया नामक तीन प्रकार की वाणी जिज्ञासु विद्वान् के लिए कामधेनु है। इनकी विस्तृत व्याख्या महर्षि ने इस मन्त्र के भावार्थ में की है।

    ३. यज्ञ--परम ऐश्वर्य को देने वाला होने से यहाँ यज्ञ को इन्द्रकहा गया है। सेवन करने योग्य और सब गुणों का भाजन (पात्र) होने से इसे भागतथा दान-आदान क्रिया वाला होने से इसे हव्यभी कहा गया है।

     ४. सोम--शिल्पविद्या से सिद्ध रस वा आनन्द।

    ५. ईश्वर-प्रार्थना--हे विष्णु परमेश्वर! आप विश्वायु, विश्वकर्मा और विश्वधाया नामक तीन प्रकार की वाणी को धारण करने वाले हो। मैं तीन प्रकार की वाणी को ग्रहण करके सोम से यज्ञ का अनुष्ठान करता हूँ। कृपा करके आप मेरे यज्ञ की रक्षा कीजिये।

    विशेष

    परमेष्ठी प्रजापतिः।विष्णुः=व्यापकेश्वरः। अनुष्टुप् । गान्धारः।।

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    विषय

    वेदवाणी

    पदार्थ

    १. जिस वेदवाणी के दोहन का पिछले मन्त्र में वर्णन है ( सा ) = वह वेदवाणी ( विश्वायुः ) = ‘विश्वम् आयुः यस्याः’ = सम्पूर्ण जीवन का वर्णन करनेवाली है, जीवन के किसी भी पहलू को उसमें छोड़ा नहीं गया। ब्राह्मण आदि वर्ण और ब्रह्मचर्य आदि आश्रमों के कर्त्तव्यों का इस वाणी में उल्लेख है, पति-पत्नी, भाई-भाई, भाई-बहिन, पिता-पुत्र, आचार्य-शिष्य, ग्राहक-दुकानदार, राजा-प्रजा सभी के कर्त्तव्यों का वर्णन वहाँ मिलता है। 

    २. ( सा विश्वकर्मा ) = यह वेदवाणी सभी के कर्मों का वर्णन करती है। अधिकारों पर यह बल नहीं देती। वस्तुतः जीवन को सुन्दर बनाने के लिए आवश्यक है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने कर्त्तव्य पर बल दे और अधिकार की चर्चा न करे। इसी को दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहते हैं कि —‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ [ गीता ]। तुम्हारा अधिकार कर्म का ही है, फल का नहीं।

    ३. इस कर्त्तव्यभावना को जागरित करने के लिए ( सा विश्वधायाः ) = यह वेदवाणी सम्पूर्ण ज्ञान-दुग्ध को पिलानेवाली है [ विश्व+धेट् पाने ]। इसमें सब सत्यविद्याओं का ज्ञान दिया गया है। यह व्यापक ज्ञान देनेवाली है। वेदवाणी का नाम ‘गौ’ भी है, ज्ञान इसका दूध है। अपने ज्ञान-दुग्ध से यह सबका पालन व धारण करती है। वेदवाणी का वर्णन करके प्रभु कहते हैं कि ( इन्द्रस्य भागम् त्वा ) = परमैश्वर्यशाली मुझ प्रभु के ही अंश = छोटेरूप तुझे ( सोमेन ) = सोम के द्वारा ( आतनच्मि ) = [ तंच् ] टंच बना देता हूँ — बिल्कुल ठीक-ठाक कर देता हूँ। आहार का अन्तिम सार ही यह वीर्य है। इसके द्वारा प्रभु हमारे शरीर को स्वस्थ बनाते हैं। सोमरक्षा से हमारे मनों में ईर्ष्या-द्वेष उत्पन्न नहीं होता। सोमरूप ज्ञानाङ्गिन के ईंधन को पाकर हमारा मस्तिष्क दीप्त हो उठता है। एवं, सोम से मनुष्य का शरीर, मन व मस्तिष्क सभी कुछ ठीक-ठीक हो जाता है।

    ४. उल्लिखित त्रिविध उन्नति करनेवाला यह त्रिविक्रम ‘विष्णु’ बनता है। इस विष्णु से प्रभु कहते हैं कि ( हे विष्णो ) = व्यापक उन्नति करनेवाले जीव! ( हव्यम् रक्ष ) = तू अपने जीवन में सदा यज्ञ की रक्षा करना, अपने जीवन से कभी यज्ञ को विलुप्त न होने देना। ‘पुरुषो वाव यज्ञः’ पुरुष है ही यज्ञरूप। यज्ञ से ही तू उस यज्ञरूप प्रभु की उपासना कर पाएगा।

    भावार्थ

    भावार्थ — वेदवाणी सम्पूर्ण जीवन का विचार करती है, कर्मों पर बल देती है, ज्ञान-दुग्ध का पान कराती है। सोम से हम पूर्ण स्वस्थ बनकर प्रभु के ही छोटे रूप बनते हैं। व्यापक उन्नति करते हुए हम हव्य की रक्षा करें, अर्थात् हमारा जीवन सदा यज्ञमय हो।

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    विषय

    विश्वकत्री और विश्वधात्री परमेश्वरी शक्ति ।

    भावार्थ

    'काम् अधुक्ष्:' इस प्रश्न का उत्तर देते हैं । (सा) वह परमेश्वरी शक्ति जिसका प्रकाश वेद द्वारा किया है वह (विश्व-आयुः) समस्त संसार का जीवन रूप है। (सा) वह परमेश्वरी शक्ति ( विश्व-कर्मा ) विश्व को रचने वाली , सब का निर्माण करने वाली है । (सा) वह परमेश्वरी शक्ति ( विश्व- धायाः ) समस्त जगत् को अपना परम रस पान कराने और सब को धारण पोषण करने हारी है । हे यज्ञ ! ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर के ( भागम् ) भजन करने योग्य , सेवनीय स्वरूप (त्वा) तुझ को ( सोमेन ) सोम , सर्वप्रेरक , सर्वोत्पादक आनन्द रस से ( आतनच्मि ) दृढ करता हूं । हे (विष्णो ) सर्वव्यापक परमेश्वर ! आप ( हव्यम् ) इस आत्मा के ग्रहण करने योग्य विज्ञान और समर्पण करने योग्य आत्मा की ( रक्ष ) रक्षा करो । शत० १।७।१ । १७-२१ ॥ 
     
     

    टिप्पणी

    ४—सोमेनातनच्मि  इति काण्व०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौरिन्द्रो विष्णुश्च देवताः । अनुष्टुप् । गान्धारः स्वरः ॥

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    विषय

    विश्वकर्त्री और विश्वधात्री परमेश्वरी शक्ति ।

    भावार्थ

    'काम् अधुक्ष्:' इस प्रश्न का उत्तर देते हैं । (सा) वह परमेश्वरी शक्ति जिसका प्रकाश वेद द्वारा किया है वह (विश्व-आयुः) समस्त संसार का जीवन रूप है। (सा) वह परमेश्वरी शक्ति ( विश्व-कर्मा ) विश्व को रचने वाली , सब का निर्माण करने वाली है । (सा) वह परमेश्वरी शक्ति ( विश्व-धायाः ) समस्त जगत् को अपना परम रस पान कराने और सब को धारण पोषण करने हारी है । हे यज्ञ ! ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्यवान् परमेश्वर के ( भागम् ) भजन करनेयोग्य सेवनीय स्वरूप (त्वा) तुझ को ( सोमेन ) सोम , सर्वप्रेरक , सर्वोत्पादक आनन्द रस से ( आतनच्मि ) दृढ करता हूं । हे (विष्णो ) सर्वव्यापक परमेश्वर ! आप ( हव्यम् ) इस आत्मा के ग्रहण करने योग्य विज्ञान और समर्पण करने योग्य आत्मा की ( रक्ष ) रक्षा करो । शत० १।७।१। १७-२१ ॥ 
     
     

    टिप्पणी

    ४—सोमेनातनच्मि  इति काण्व०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गौरिन्द्रो विष्णुश्च देवताः । अनुष्टुप् । गान्धारः स्वरः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    वाणी ही तीन प्रकारची असते. प्रथम वाणी अर्थात ब्रह्मचर्यपूर्वक पूर्णविद्या प्राप्त करून दीर्घायू बनण्यासाठी स्वीकारली जाते ती. दुसरी वाणी म्हणजे गृहस्थाश्रमात विविध प्रकारची कामे करून सुख मिळवण्यासाठी विस्तारपूर्वक प्रकट केली जाते ती व तिसरी वाणी म्हणजे ईश्वराला जाणण्यासाठी वानप्रस्थ व संन्यासी विद्वान ज्या वाणीचा उपदेश करतात ती. (ज्यामुळे या जगातील सर्व माणसांची शरीरे व आत्मे यांचे सुख वाढते. ) या तिन्ही प्रकारच्या वाणीशिवाय कुणालाही सुख मिळू शकत नाही त्यामुळे याद्वारेच पूर्वोक्त यज्ञ व सर्वव्यापक ईश्वराची स्तुती, प्रार्थना व उपासना करणे योग्य आहे. ईश्वराची अशी आज्ञा आहे की, या नियमानुसार केलेल्या यज्ञाने जगात माणसांचे रक्षण होते. प्रेमाने व सत्याने प्रार्थना केल्यामुळे ईश्वर विद्वानांचे रक्षण करतो कारण तोच सर्वांच्या मुख्य अधिष्ठाता आहे; पण जी माणसे कर्मकुशल, धार्मिक व परोपकारी असतात तीच ईश्वर व धर्म यांना जाणून सम्यक साधनांनी मोक्षप्राप्ती करून इहलोक व परलोकाचे सुख प्राप्त करतात.

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    विषय

    पूर्वोक्त मंत्रात तीन प्रश्‍न विचारले आहेत. पुढील मंत्रामधे त्या प्रश्‍नांची उत्तरें क्रमाने दिली आहेत.

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (विष्णो) हे व्यापक परमेश्‍वरा, आपण ज्या वाणीचे धारण करणारे आहात (सा) ती वाणी (विश्‍वायुः) पूर्ण आयुष्य देणारी आहे. (सा) ती विश्‍वकर्मा) ज्याच्या साहाय्याने यज्ञाचे संपूर्ण क्रिया-कांड सिद्ध होतात अशी आहे तसेच ती (विश्‍वधायाः) संपूर्ण जगाला विद्या आणि गुणांद्वारे धारण करणारी आहे. पूर्वीच्या मंत्रात (क्र.3) जो प्रश्‍न केला आहे, त्याचे उत्तर हे की हीच तीन प्रकारची वाणी म्हणजे विश्‍वायुः, विश्‍वकर्मा, आणि विश्‍वधायाः, ग्रहण करण्यास योग्य आहे. (इन्द्रस्य) मी त्या परमेश्‍वराच्या (भागम्) सेवन करण्यास योग्य अशा त्या यज्ञाला (सोमेन) विशिष्ट प्रकारच्या विद्या आणि पद्धतीद्वारे तयार केलेल्या रसाने अथवा हृदयास आनंदाने दृढ करीत आहे. तसेच हे परमेश्‍वर, आपण (हव्यम्) पूर्वोत्त्स यज्ञविषयक देण्या-घेण्यास पात्र अशा द्रव्याचे किंवा विज्ञानाचे (रक्ष) निरंतर रक्षण करा. ॥4॥

    भावार्थ

    भावार्थ - वाणी तीन प्रकारची आहे. पहिल्या प्रकारची ती की जिचा ब्रह्मचर्याश्रमात पूर्ण विद्या प्राप्त करण्यासाठी आणि दीर्घ आयु मिळविण्यासाठी उपयोग केला जातो. (विश्‍वायुः) दूसरी वाणी ती की जिचा गृहस्थाश्रमामधे अनेक क्रिया अथवा उद्योगादी द्वारे सुख-प्राप्तीकरिता प्रयोग केला जातो आणि जिचा प्रयोग विस्ताराने भरपूर केला जातो. (विश्‍वकर्मा) तिसर्‍या प्रकारची वाणी ती की जी या संसारात सर्व माणसांच्या शरीर आणि आत्म्याच्या सुखात वृद्धी करते. किंवा जी ईश्‍वरादी पदार्थाच्या विज्ञानाचे दान करणारी आहे आणि ज्या वाणीचा उपयोग वानप्रस्थाश्रमात व संन्यासाश्रमात विद्वान् मंडळी करीत असतात. (विश्‍वधायाः) या तीन प्रकारच्या वाणीशिवाय कोणाला कोणतेही सुख प्राप्त होत नाही. कारण की याच वाणीद्वारे पूर्वोक्त यज्ञाची पूर्तता आणि व्यापक ईश्‍वराची स्तुती, प्रार्थना आणि उपासना करणे उचित आहे. ईश्‍वराचा हा आदेश आहे की नियम व पद्धतीप्रमाणे केलेला यज्ञ या जगात सुखाचा हेतु होत असतो. प्रेमाने आणि आंतरिक सत्य भावनेने प्रार्थित परमेश्‍वर सदैव विद्वानांचे रक्षण करतो. तोच सर्वांचा अध्यक्ष आहे. जे जे कर्म-कुशल धार्मिक परोपकारी मनुष्य आहेत, तेच ईश्‍वरास आणि खर्‍या धर्मास जाणतात आणि मोक्ष व सम्यक् क्रिया-साधनांद्वारे या लोकात तसेच परलोकात सुख प्राप्त करतात. ॥4॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Vedas are the true source of knowledge and their study enables us to enjoy the full span of life. They contain the detailed instructions concerning various duties. May we through His grace be firmly convinced of the utility of industrial achievements, and may He, the Omnipresent Lord protect our yajnas and the knowledge and means thereof.

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    Meaning

    Yajna: it is the life of the world. It is the science and structure of the universe. It is the law and sustenance of the system. It is the very act of the Lord of Creation. I stand by it fast and firm with the light of knowledge and the joy of life.

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    Translation

    That cow is the longevity of all. (1) She is the acıivity of all. (2) She is the nourisher of all as well. (3) The share of the resplendent Lord,I hereby curdle with the herbal juice for you. (4) О omnipresent Lord,protect the materials of sacrifice. (5)

    Notes

    Visvayuh, life of all, i. e. bestower of full life-span. Visvakarma, karma is activity. Visva is all. Performer of all actions. Atanacmi, दध्यर्थ कठिनीकरोमि।- Mahidhara. I curdle with Soma. i. e. herbal juice. Visvadhaya, nourisher of all. Dhaya is derived from दुधाञ् धारणपोषणयोः to sustain or to nourish. Soma, is the herbal juice. Soma is a creeper or plant noted for its exhilarating extract. The plant was cut into small pieces, crushed with two stones i. e. pestle and mortar, pressed for filtration, and stored in large vessels. Soma juice was offered in sacrifices. It was consumed after mixing it with milk, cures or honey.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অত্র ত্রিবিধস্য প্রশ্নস্য ত্রীণ্যুত্তরাণ্যুপদিশ্যন্তে ॥
    যে পূর্বোক্ত মন্ত্রে তিন প্রশ্ন বলা হইয়াছে তাহাদের উত্তর পরবর্ত্তী মন্ত্রে ক্রম পূর্বক প্রকাশিত করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (বিষ্ণো) ব্যাপক ঈশ্বর ! আপনি যে বাণী ধারণ করেন (সা) উহা (বিশ্বায়ুঃ) পূর্ণ আয়ু প্রদাত্রী (সা) উহা (বিশ্বকর্মা) দ্বারা সম্পূর্ণ ক্রিয়াকান্ড সিদ্ধ হয় এবং (সা) উহা (বিশ্বধায়াঃ) সব জগৎকে বিদ্যা ও গুণ দ্বারা ধারণ করে । পূর্ব মন্ত্রে যে প্রশ্ন করা হইয়াছে তাহার উত্তরে এখানে তিন প্রকার বাণী গ্রহণ করা উচিত । ইহা দ্বারা আমি (ইন্দ্রস্য) পরমেশ্বরের (ভাগম্) সেবনীয় যজ্ঞকে (সোমেন) বিদ্যা দ্বারা সিদ্ধকৃত রস অথবা আনন্দ দ্বারা (আ তনচ্মি) স্বীয় হৃদয়ে দৃঢ় করি তথা হে পরমেশ্বর ! (হব্যম্) পূর্বোক্ত যজ্ঞ সম্পর্কীয় নেওয়ার – দেওয়ার যোগ্য দ্রব্য বা বিজ্ঞানের (রক্ষ) নিরন্তর রক্ষা করুন ॥ ৪ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- তিন প্রকার বাণী হইয়া থাকে অর্থাৎ প্রথম যাহা ব্রহ্মচর্য্যে পূর্ণ বিদ্যা পাঠ বা পূর্ণ আয়ু প্রাপ্ত হেতু সেবন করা হয় । দ্বিতীয় যাহা গৃহাশ্রমে অনেক ক্রিয়া বা প্রচেষ্টা দ্বারা সুখ প্রদানকারী বিস্তারপূর্বক প্রকাশ করা হয় এবং তৃতীয় যাহা এই সংসারে সব মনুষ্যদিগের শরীর ও আত্মার সুখবৃদ্ধি অথবা ঈশ্বরাদি পদার্থ সকলের বিজ্ঞান প্রদাতা বানপ্রস্থ ও সন্ন্যাস আশ্রমে বিদ্বান্দিগের দ্বারা উপদেশ দেওয়া হয় । এই তিন প্রকার বাণী ছাড়া কাহারও সব সুখ প্রাপ্ত হইতে পারে না কেননা ইহা দ্বারা পূর্বোক্ত যজ্ঞ তথা ব্যাপক ঈশ্বরের স্তুতি, প্রার্থনা এবং উপাসনা করা উচিত । ঈশ্বরের আজ্ঞা এই – যে নিয়ম দ্বারা কৃত যজ্ঞ সংসারে রক্ষার হেতু এবং প্রেম, সত্যভাব দ্বারা প্রার্থিত ঈশ্বর বিদ্বান্দিগের সর্বদা রক্ষা করেন তিনিই সকলের অধ্যক্ষ কিন্তু যাঁহারা ক্রিয়া-কুশল, ধার্মিক, পরোপকারী মনুষ্য আছেন তাঁহারাই ঈশ্বর ও ধর্ম জানিয়া মোক্ষ ও সম্যক্ ক্রিয়া সাধনগুলির দ্বারা ইহলোক ও পরলোকের সুখ প্রাপ্ত হইয়া থাকেন ॥ ৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    সা বি॒শ্বায়ুঃ॒ সা বি॒শ্বক॑র্মা॒ সা বি॒শ্বধা॑য়াঃ ।
    ইন্দ্র॑স্য ত্বা ভা॒গꣳ সোমে॒নাऽऽ ত॑নচ্মি॒ বিষ্ণো॑ হ॒ব্যꣳ র॑ক্ষ ॥ ৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    সা বিশ্বায়ুরিত্যস্য ঋষিঃ স এব । বিষ্ণুর্দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    গান্ধারঃ স্বরঃ ॥

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    उर्दू (1)

    Vishay

    ایشور اور دھرم کو کون جان سکتے ہیں

    Padarth

    ہے(وشنو) ویاپک ایشور! آپ جس بانی کو دھارن کرتے ہیں وہ(وشو آیو) پُورن آیو کو دینے والی(سا) وہ(وشو کرما) جس سے کہ سمپُورن کریا کانڈ سِدّھ ہوتا ہے- اور(سا) وہ (وشو دھاباہ) سب جگت کو وِدّیا اور گُنوں سے دھارن کرنے والی ہے۔ پہلے کے منتر میں جو پرشن ہے اُس کے اُتر میں بھی تین پرکار کی بانی گرہن کرنے یوگیہ ہے۔ اسی سے میں(اندرسیہ) پرمیشور کے(بھاگم) سیون کرنے یوگیہ یگیّہ کو(سویمن) وِدّیا سے سِدّھ کئے رس اتھوا آنند سے(آتنچمی) اپنے ہردیہ میں درڑھ کرتا ہوں۔تتھا ہے پرمیشور پوورکت یگیّہ سمبندھی دینے لینے یوگیہ درویہ(پدارتھ) یا وگیان کی (رکھش) نرنتر رکھشا کیجیئے۔

    Bhavarth

    تین پرکار کی بانی ہوتی ہے- ارتھات پرتھم وہ جو کہ برہمچریہ میں پُورن وِدّیا پڑھنے یا پُورن آیو ہونے کے لئے سیون کی جاتی ہے۔دوسری وہ جو گرہ آشرم میں انیک کریا یا اُدیوگوں سے سُکھوں کو دینے والی وِستار سے پرگٹ کی جاتی ہے- اور تیسری وہ جو اس سنسار میں سب منشیوں کی شریر اور آتما کے سُکھ کی وردھی یا ایشوریہ آدی پدارتھوں کے وگیان کو دینے والی بان پرستھ اور سنیاس آشرم میں وِدوانوں سے اُپدیش کی جاتی ہے اس تین پرکار کی بانی کے بنا کسی کو سب سُکھ نہیں ہوسکتے کیونکہ اسی سے پوروکت یگیّہ تتھا ویاپک ایشور کی ستُوتی پرارتھنا اور اُپاسنا کرنا یوگیہ ہے۔ ایشور کی یہ آگیا ہے کہ جو نیم سے کیا ہوا یگیّہ سنسار میں رکھشا کا ہیتو اور پریم ستیہ بھاؤ سے پرارتھنا کیا ہوا ایشور وِدوانوں سرودا رکھشا کرتا ہے۔ وہی سب کا ادھیکش ہے پرنتو جو کریا میں کُشل دھارمک پروپکاری منُش ہے وہ ہی ایشور اور دھرم کو جان کر موکش اور سمیک کریا سادھنوں سے اس لوک اور پرلوک کےسُکھ کو پراپت ہوتے ہیں۔ تین پرکار کی بانی: پچھلے منتر بھاشیہ ایک مہتو پورن بات اُپدیش کی دی گئی تھی پرشن کے روپ میں۔ یہ کہ اے وِدوان پرش یا جاننے کی اِچھیا کرنے والے منش! وید کی شریشٹھ بانیوں میں سے تو کس کس بانی کے ابھیپرائے یعنی مطلب کو جاننا چاھتا ہے؟ بانی کا ارتھ یہاں وشے یا وِدّیا ہے جو انیک ہیں۔ اگنت ہیں۔ اس میں کوئی سندیہہ نہیں- اور یہ ہیں سب کے سب شریشٹھ ہمارے کلیان کے لئے لیکن انسان کے لئے یہ ممکن کہاں ہے- کہ وہ سمپورن گیان وِشے یا ودیاؤں کو حاصل کرسکے یا اس پر عبور پاسکے۔اس لئے سوال کے طور پر پیش کرکے آج کے اس اگلے منتر میں پرشن کے اس اُتر کو کھول کر بتلا دیا گیا ہے- کہ ہمارے لئے مُکھیہ یا اتی آوشیک تین وشے یا ودیائیں ہیں یا تین پرکار کی بانی- ایک سے برہمچریہ آشرم نیتی یا ویوہار کو جیون میں ڈھالنا دوسرے سے گرہستھ آشرم کے سد ویوہار اور وِدّیا کے جانکر اسے سورگ آشرم بنانا اور تیسرے بان پرستھ اور سنیاس آشرم سے سنسار کے انیہ پدارتھوں دھنوں اور سمبندھوں وغیرہ سے وِرکت ہوکر شریر اور آتما کا بل بوڑھا پرمیشور کے گیان وگیان کو پراپت ہوکر سوئیم آنندت ہونا اور سب کو آنند کی سِدّھی کرانا سپشٹ ہے کہ ان تین ودیاؤں سے ہی ویکتی پریوار سماج اور راشٹر سبھی سُکھی ہو سکتے ہیں ویوہار اور پرمارتھ- لوک اور پرلوک کا سُدھار ہو سکتا ہے-انیتها نہیں۔ آج کی دنیا کی روزمرہ بڑھتی جاتی مصیبتوں اور پریشانیوں کا واحد حل یہی ہے جو وید منتروں نے پیش کیا ہے پاٹھک گن منتر کے بھاوارتھ کو رشی کے شبدوں میں باربار پڑھتے ہوئے منن کریں اور ہو سکے تو رِگ وید آدی بھاشیہ بھومیکا میں کرم کانڈ کے اندر یگیہ وشے اور برہمچریہ آدی چاروں آشرموں کے وشے وستار کو دھیان پوروک پڑھ کر گہرائی سے اس پر وچار کرنے کی کریا کریں۔

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