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यजुर्वेद अध्याय - 1

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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 9
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - विष्णुर्देवता छन्दः - निचृत् त्रिष्टुप्, स्वरः - धैवतः
    2

    अह्रु॑तमसि हवि॒र्धानं॒ दृꣳह॑स्व॒ मा ह्वा॒र्मा ते॑ य॒ज्ञप॑तिर्ह्वार्षीत्। विष्णु॑स्त्वा क्रमतामु॒रु वाता॒याप॑हत॒ꣳरक्षो॒ यच्छ॑न्तां॒ पञ्च॑॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अह्रु॑तम्। अ॒सि॒। ह॒वि॒र्धान॒मिति॑ हविः॒ऽधान॑म्। दृꣳह॑स्व। मा। ह्वाः॒। मा। ते॒। य॒ज्ञप॑ति॒रिति॑ य॒ज्ञऽप॑तिः। ह्वा॒र्षी॒त्। विष्णुः॑। त्वा॒। क्र॒म॒तां॒। उ॒रु। वाता॒य। अप॑हत॒मित्यप॑ऽहतम्। रक्षः॑। यच्छ॑न्ताम्। पञ्च॑ ॥९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अह्रुतमसि हविर्धानं दृँहस्व मा ह्वार्मा यज्ञपतिर्ह्वार्षीत् । विष्णुस्त्वा क्रमतामुरु वातायापहतँ रक्षो यच्छन्तांम्पञ्च ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अह्रुतम्। असि। हविर्धानमिति हविःऽधानम्। दृꣳहस्व। मा। ह्वाः। मा। ते। यज्ञपतिरिति यज्ञऽपतिः। ह्वार्षीत्। विष्णुः। त्वा। क्रमतां। उरु। वाताय। अपहतमित्यपऽहतम्। रक्षः। यच्छन्ताम्। पञ्च॥९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 9
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथ यजमानभौतिकाग्निकृत्यमुपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे ऋत्विक्! त्वं यदग्निना दृंहितमह्रुतं हविर्धानमस्यास्ति तद् दृंहस्व, किन्तु तत्कदाचिन्मा ह्वार्मा त्यजेरिदं ते तव यज्ञपतिर्दृंहतां मा ह्वार्षीन्मा त्यजतु। एवं भवन्तः सर्वे मनुष्याः पञ्चभिरुत्क्षेपणादिभिः कर्मभिर्यदग्नौ हूयते तन्नियच्छन्तां निगृह्णन्तु। यद्द्रव्यं विष्णुर्व्यापनशीलः सूर्य्योऽपहतं रक्षो यथा स्यात्तथोरु वाताय [क्रमताम्] क्रमयति चालयति त्वा तत्सर्वं मनुष्या अग्नौ होमद्वारा यच्छन्तां निगृह्णन्तु॥९॥

    पदार्थः

    (अह्रुतम्) कुटिलतारहितम् (असि) अस्ति। अत्र व्यत्ययः (हविर्धानम्) हविषां धानं स्थित्यधिकरणम् (दृंहस्व) वर्धयस्व वर्धयति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः (मा ह्वाः) मा त्यजेः। अत्र लिङर्थे लुङ् (मा) क्रियार्थे निषेधवाची (ते) तव (यज्ञपतिः) पूर्वोक्तस्य यज्ञस्य पतिः पालकः (ह्वार्षीत्) त्यजतु। अत्र लोडर्थे लुङ् (विष्णुः) व्यापनशीलः सूर्य्यः (त्वा) तद्धोतव्यं द्रव्यम् (क्रमताम्) चालयति। अत्र लडर्थे लोट् (उरु) बहु। उर्विति बहुनामसु पठितम् (निघं॰३।१) (वाताय) वायोः शुद्धये सुखवृद्धये वा (अपहतम्) विनाशितम् (रक्षः) दुर्गन्धादिदुःखजालम् (यच्छन्ताम्) निगृह्णन्तु (पञ्च) पञ्चभिरुत्क्षेपणादिभिः कर्मभिः। उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि (वैशे॰ १।७) अत्र ‘सुपां सुलुग्’ [अष्टा॰७.१.३९] इति’ भिसो लुक्॥ अयं मन्त्रः (शत॰१।१।२।१२-१६) व्याख्यातः॥९॥

    भावार्थः

    यदा मनुष्याः परस्परं प्रीत्या कुटिलतां विहाय शिक्षकशिष्या भूत्वेमामग्निविद्यां विज्ञानक्रियाभ्यां ज्ञात्वाऽनुतिष्ठन्ति तदा महतीं शिल्पविद्यां संपाद्य शत्रुदारिद्र्यनिवारणपुरःसरं सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्तीति॥९॥

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    विषयः

    अथ यजमान भौतिकाग्निकृत्यमुपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    हे ऋत्विक् ! त्वं यदग्निना दृंहितमह्नुतं कुटिलतारहितं हविर्धानं हविषां धानं स्थित्यधिकरणम् असि=अस्ति, तद् दृंहस्व वर्धयस्व वर्धयति वा किन्तु तत्कदाचिन्मा ह्वाः=मा त्यजेः। इदं ते= तव यज्ञपतिः पूर्वोक्तस्य यज्ञस्य पति:=पालको दृंहताम्, मा ह्वार्षीत्=मा त्यजतु।

    एवं भवन्तः सर्वे मनुष्याः [पञ्च]=पञ्चभिरुत्क्षेपणादिभिः कर्मभिर्यदग्नौ हूयते तन्नियच्छन्ताम्= निगृह्णन्तु।

    यद् द्रव्यं विष्णुः=व्यापनशीलः सूर्योऽपिहतं विनाशितं रक्षः दुर्गन्धाऽऽदिदुःखजालं यथा स्यात्, तथा उरु बहु वाताय वायोः शुद्धये सुखवृद्धये वा [क्रमताम्]=क्रमयति=चालयति।

     त्वा=तत्सर्वं तद्धोतव्यं द्रव्यं मनुष्या अग्नौ होमद्वारा यच्छन्ताम्=निगृह्णन्तु॥ १। ९॥ 

    पदार्थः

    --(अह्नुतम्) कुटिलतारहितम् (असि) अस्ति। अत्र व्यत्ययः (हविर्धानम्) हविषां धानं=स्थित्यधिकरणम् (दृंहस्व) वर्धयस्व वर्धयति वा। अत्र पक्षे व्यत्ययः (मा ह्वाः) मा त्यजेः। अत्र लिङर्थे लुङ् (मा) क्रियार्थे निषेधवाची (ते) तव (यज्ञपतिः) पूर्वोक्तस्य यज्ञस्य पतिः=पालकः (ह्वार्षीत्) त्यजतु। अत्र लोडर्थे लुङ् (विष्णुः) व्यापनशीलः सूर्यः (त्वा) तद्धोतव्यं द्रव्यम् (क्रमताम्) चालयति। अत्र लडर्थे लोट् (उरु) बहु। उर्विति बहुनामसु पठितम्॥ निघं० ३। १॥ (वाताय) वायोः शुद्धये सुखवृद्धये वा (अपहतम्) विनाशितम् (रक्षः) दुर्गन्धादिदुःखजालम् (यच्छन्ताम्) निगृह्वन्तु (पञ्च) पञ्चभिरुत्क्षेपणादिभिः कर्मभिः। उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुंचनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि॥ वैशे० १। ७॥ अत्र सुपां सुलुगिति भिसो लुक्॥ अयं मंत्रः श० १। १। २। १२-१६ व्याख्यातः॥ ९॥

    भावार्थः

    [ हे ऋत्विक् ! त्वं यदग्निना दृंहितमह्रुतं हविर्धानमस्ति, तद् दृंहस्व,  इदं ते यज्ञपतिर्दृंहताम्]

     भावार्थ:--यदा मनुष्याः परस्परं प्रीत्या कुटिलतां विहाय, शिक्षकशिष्या भूत्वा इमामग्निविद्यां विज्ञान क्रियाभ्यां ज्ञात्वाऽनुतिष्ठन्ति, तदा महतीं शिल्पविद्यां सम्पाद्य,

    [ अपहतं रक्षः]

    शत्रुदारिद्र्यनिवारणपुरःसरं सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्तीति॥ १। ९॥

    भावार्थ पदार्थः

    रक्षः=शत्रुः, दारिद्र्यम्॥

    विशेषः

    परमेष्ठी प्रजापतिः। विष्णुः=सूर्यः॥ निचृत् त्रिष्टुप्ः धैवतः॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब यजमान और भौतिक अग्नि के कर्म का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे ऋत्विग् मनुष्य! तुम जो अग्नि से बढ़ा हुआ (अह्रुतम्) कुटिलतारहित (हविर्धानम्) होम के योग्य पदार्थों का धारण करना है, उस को (दृंहस्व) बढ़ाओ, किन्तु किसी समय में (मा ह्वाः) उस का त्याग मत करो तथा यह (ते) तुम्हारा (यज्ञपतिः) यजमान भी उस यज्ञ के अनुष्ठान को (मा ह्वार्षीत्) न छोड़े। इस प्रकार तुम लोग (पञ्च) एक तो ऊपर की चेष्टा होना, दूसरा नीचे को, तीसरा चेष्टा से अपने अङ्गों को संकोचना, चौथा उनका फैलाना, पांचवां चलना-फिरना आदि इन पांच प्रकार के कर्मों से हवन के योग्य जो द्रव्य हो उसको अग्नि में (यच्छन्ताम्) हवन करो। (त्वा) वह जो हवन किया हुआ द्रव्य है, उस को (विष्णुः) जो व्यापनशील सूर्य्य है, वह (अपहतम्) (रक्षः) दुर्गन्धादि दोषों का नाश करता हुआ (उरु वाताय) अत्यन्त वायु की शुद्धि वा सुख की वृद्धि के लिये (क्रमताम्) चढ़ा देता है॥९॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य परस्पर प्रीति के साथ कुटिलता को छोड़कर शिक्षा देने वाले के शिष्य होके विशेष ज्ञान और क्रिया से भौतिक अग्नि की विद्या को जानकर उस का अनुष्ठान करते हैं, तभी शिल्पविद्या की सिद्धि के द्वारा सब शत्रु दारिद्र्य और दुःखों से छूटकर सब सुखों को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार विष्णु अर्थात् व्यापक परमेश्वर ने सब मनुष्यों के लिये आज्ञा दी है, जिसका पालन करना सबको उचित है॥९॥

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    विषय

    अब यजमान और भौतिक अग्नि के कर्म का उपदेश किया जाता है।

    भाषार्थ

    हे ऋत्विक्! तू जो अग्नि से बढ़ा हुआ (अह्नुतम्) कुटिलता रहित (हविर्धानम्) हवियों का आधार यज्ञ (असि) है , उसे (दृंहस्व) बढ़ा, किन्तु उसे किसी काल में भी (मा हाः) मत छोड़। और इसे (ते) तेरा (यज्ञपतिः) यजमान भी (मा ह्वार्षीत्) न छोडे़। 

    इस प्रकार सब मनुष्य [पञ्च] उत्क्षेपणादि पाँच कर्मों के द्वारा अग्नि में हवन करने योग्य द्रव्यों को (नि+यच्छन्ताम्) ग्रहण करें। उस हवन किए हुए द्रव्य को (विष्णुः) व्यापनशील सूर्य (अपहतं रक्षः) दुर्गन्ध आदि दुःखरूप जाल का नाश करके (उरु) अत्यधिक (वाताय) वायु की शुद्धि के लिए (क्रमताम्) आकाश में फैलाता है।

    (त्वा) उस होम के योग्य द्रव्य को सब मनुष्य होम के द्वारा (यच्छन्ताम्) ग्रहण करें॥१॥९॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य परस्पर प्रीति से कुटिलता को छोड़ कर, शिक्षक और शिष्य बन कर इस अग्नि-विद्या को विज्ञान और क्रिया से जानकर, आचरण करते हैं, तब महान् शिल्पविद्या को सिद्ध करके—

     शत्रु और दरिद्रता को दूर भगाकर सब सुखों को प्राप्त करते हैं॥१॥९॥

    भाष्यसार

    १. यजमान का कृत्य--कुटिलता को छोड़कर यज्ञ को बढ़ाये, यज्ञ को कभी न छोडे़। पाँच कर्मों से अग्नि में होम किये द्रव्य को ग्रहण करे।

    २. पंच कर्म--अत्क्षेपण=ऊपर को चेष्टा करना। अवक्षेपण=नीचे को चेष्टा करना। आकुंचनम्=सिकोड़ना। प्रसारणम्=फैलाना। गमन=चलना॥

    ३. भौतिक अग्नि (सूर्य) का कृत्य--व्यापनशील होने से सूर्य का नाम विष्णु है। सूर्य होम किये हुए द्रव्य को दुर्गन्ध आदि दुःखों को नष्ट करने, वायु की शुद्धि और सुखवृद्धि के लिये आकाश में फैलाता है॥

    विशेष

    परमेष्ठी प्रजापतिः। विष्णुः=सूर्यः। निचृत्। त्रिष्टुप्ः  धैवतः।।

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    विषय

    पाँच का नियमन

    पदार्थ

    प्रभु उपासक को प्ररेणा देते हैं कि — 

    १. ( अह्रुतम् असि ) = तू कुटिलता से रहित है। ‘सर्वं जिह्मं मृत्युपदमार्जवं ब्रह्मणः पदम्’—सब प्रकार की कुटिलता मृत्यु का मार्ग है, सरलता ही ब्रह्म-प्राप्ति का मार्ग है। यहाँ ‘अह्रुतम्’ आदि पदों में नपुंसकलिङ्ग का प्रयोग इसलिए है कि ये बातें ‘पति-पत्नी’ दोनों के लिए हैं। केवल पति के लिए निर्देश होने पर पुल्लिङ्ग का प्रयोग मिलता है, केवल पत्नी के लिए निर्देश होने पर स्त्रीलिङ्ग होगा, सामान्य निर्देश में नपुंसक दिखेगा। 

    २. ( हविर्धानम् ) = तू हवि का आधान करनेवाला है, यज्ञशील है। यज्ञ करके बचे हुए हव्य पदार्थों का ही तू सेवन करनेवाला है। तू सदा यज्ञशेष = ‘अमृत’ का ही ग्रहण करता है। 

    ३. ( दृंहस्व ) = इस अमृत-सेवन से तू दृढ़ बन। पवित्र भोजन तुझे दृढ़ शरीरवाला ही नहीं, दृढ़ मनवाला भी बनाएगा। 

    ४. ( मा ह्वाः ) = तू कभी कुटिलता न कर। 

    ५. ( ते ) = तेरे विषय में ( यज्ञपतिः ) = सब यज्ञों का रक्षक वह प्रभु ( मा ह्वार्षीत् ) = प्रेरणारूप सरल उपाय को छोड़कर अन्य उपाय का अवलम्बन न करे। ‘साम’ की असफलता में ही ‘दान-भेद-दण्ड’ आवश्यक हुआ करते हैं। 

    ६. ( विष्णुः ) = तेरे हृदय में स्थित सर्वव्यापक प्रभु ( त्वा क्रमताम् ) = तुझे सञ्चालित करे। वस्तुतः हृद्देश में स्थित हुआ-हुआ प्रभु ही सबका सञ्चालन कर रहा है। 

    ७. ( उरु वाताय ) = [ वा गतिगन्धनयोः ] तेरा जीवन विशाल क्रियाशीलता के द्वारा सब बुराइयों के गन्धन = हिंसन के लिए हो। 

    ८. ( रक्षः अपहतम् ) = सब राक्षसी वृत्तियाँ नष्ट कर दी जाएँ, और 

    ९. ( पञ्च ) = पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँचों कर्मेन्द्रियाँ तथा पाँचों प्राण ( यच्छन्ताम् ) = वश में किये जाएँ। वस्तुतः प्राण-निरोध इन्द्रियों के मलों का दहन करके उन्हें पवित्र व दीप्त करनेवाला होता है। इस प्रकार प्राण-निरोध इन्द्रिय-निरोध का साधन हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम कुटिलता से दूर हों। इसके लिए प्राण-निरोध द्वारा इन्द्रिय-नैर्मल्य को सिद्ध करें और हमारा जीवन अन्तःस्थित प्रभु की प्ररेणा से सञ्चालित हो।

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    विषय

    दुष्टों का दमन ।

    भावार्थ

    हे यज्ञ ! प्रजापते ! तू ( अण्हुतम् ) कुटिलता से रहित ( हविर्धानम् )अन्न और ज्ञान का आधार और उसका आश्रयस्थान है । हे यजमान ! यज्ञशील पुरुष ! तू ( दृंहस्व ) ऐसे यज्ञ को सदा बढ़ा । ( मा  हाः ) तू उसको त्याग मत कर हे यज्ञ ! ( ते ) तेरा ( यज्ञपति; ) यज्ञ पालक, स्वामी पुरुष ( मा ह्वार्षीत् ) तुझे त्याग न करे । हे यज्ञ ! ( वा ) तुझे ( विष्णुः ) व्यापक सूर्य या परमेश्वर ( क्रमताम् ) शासन करता, तुझे रचता और तुझ पर अधिष्ठाता रूप से विद्यमान है । वह इस ब्रह्माण्ड रूप शकट या महान् यज्ञ में शासक है। वह ही ( उरु वाताय ) महान् जीवनप्रद वायु और प्राणियों के प्राण समष्टि के संचालन करने के लिये विद्यमान है । ( रक्षः ) जीवन के विघ्न करने हारा दुष्ट हिंसक ( उपहृतम् ) मार दिया जाय । ( पंच ) पांचों अंगुलियां जिस प्रकार किसी पदार्थ को पकड़ती हैं उसी प्रकार पांचों जन यज्ञ में एकत्र होकर ( यच्छन्ताम् ) दुष्टों का निग्रह करें और जीवनोपयोगी सुखों का संग्रह करें । लोग अन्न सम्पादक यज्ञ को बढ़ावें, उसको कभी न त्यागें । व्यापक सूर्य सर्वत्र फेले; जिससे खूब वायु बहे और रक्षोगण, जीवननाशक पदार्थ नष्ट हों और पांचों जन मिल कर उन राक्षसों का दमन करें ॥ शत० १।१।२।१२-१२ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अनो व्रीहियवादयो रक्षो हविर्विष्णुश्च देवताः । त्रिष्टुप् ॥ धैवतः स्वरः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जेव्हा माणसे कुटिलता सोडून परस्पर प्रेमाने वागतात व विद्वान लोकांचे शिष्य बनतात, विशेष ज्ञान व कर्माद्वारे भौतिक अग्नीची विद्या जाणतात आणि त्याचे अनुष्ठान करतात तेव्हा शिल्पविद्येची सिद्धी होऊन शत्रू, दारिद्र्य व दुःख नष्ट होते आणि त्यांना सर्व सुख मिळते. याप्रमाणे विष्णू अर्थात व्यापक परमेश्वराने सर्व माणसांना आज्ञा दिलेली आहे, तिचे पालन करणे योग्य ठरते.

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    विषय

    आतां यजमानाच्या कर्त्तव्याविषयी आणि भौतिक अग्नीविषयी पुढील मंत्रात कथन केले आहे.

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - ऋत्विक् जनहो, तुम्ही वृद्धी पावलेल्या अशा यज्ञाग्नीत (अह्रुतम्) कुटिलतारहित, स्वच्छ (हविर्धानम्) होम करण्यास योग्य असे पदार्थ टाकून त्यांचे गुण (दृंहस्व) अधिक वाढवा. कधीही (माह्वाः) या हवनीय पदार्थांचा त्याग करूं नका. तसेच (ते) तुमच्या (यज्ञपतिः) यजमानाने देखील यज्ञाच्या अनुष्ठान-कार्याचा (मा ह्वार्षीत) केव्हांही त्याग करूं नये. (ऋत्विक् व यजमान यांनी सदैव होम करावा) या प्रकारच्या कर्मांनी हवन करण्यास योग्य अशा द्रव्यांची अग्नीत आहुति देत जावी. ते पाच कर्म म्हणजे - (उत्क्षेपणम्, अवक्षेपणम्, आकुंचनम्, प्रसारणम्, गमनम्) वा उचलणें, चलणें-फिरणे, या पाच क्रियांद्वारे हवनीय पदार्थ यमाग्नीत (यच्छन्ताम्) सोडावेत. (विष्णुः) व्यापनशील सूर्य (त्वा) त्या हवनीय द्रव्यातील दुर्गन्धादि दोषांचा नाश करीत (उरुवाताय) आत्यंतिक वायु-शुद्धीकरिता आणि सुखाच्या वृद्धि करितो (क्रमताम्) त्या हव्य पदार्थांना उन्नती करतो म्हणजे त्यांचे गुण वाढवितो. ॥9॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जेव्हां माणसें परस्पर प्रेमभाव वाढवीत, कुटिलतेचा त्याग करतात, शिक्षण-विद्या देणार्‍याचे शिष्य होऊन विशेष ज्ञान आणि क्रियाद्वारे भौतिक अग्नीच्या महत्त्वास जाणून घेतात आणि त्याप्रमाणे अनुष्ठान करतात, तेव्हांच शिल्पविद्येची प्रगती/प्राप्ती होते. सर्व शत्रू, दारिद्य्र आणि दुःखांपासून युक्ती आणि सर्व सुखांची प्राप्ती होते. विष्णूने म्हणजे व्यापक परमेश्‍वराने सर्व मनुष्यांकरिता ही आज्ञा केली आहे. या आज्ञेचे पालन करणें सर्वांना उचित आहे, हितकारी आहे. ॥9॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O Ye men, increase the store of goods acquired by honest and fair means to be used in the service of humanity. May your life, be constantly dedicated to this principle. May the spiritually minded people, also, not give up this humanitarian work. May your lives be constantly consecrated to the performance of five daily duties. The heat of the sun destroys dirt and odour, and draws substances consigned to fire, in their atomic form for the purification of air.

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    Meaning

    Lord of yajna, Vishnu, yajna is simple, straight and natural. Bless and increase the materials of yajna. Neglect not yajna, 0 man. May the master of yajna never forsake it. Lord Vishnu, the sun, expands yajna to space to purify the air, to cleanse the environment of evil and pollution. Apply your mind and senses to purify the yajna (and augment its power).

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    Translation

    O Lord, you are the receiver of oblations free from crookedness. Be steady. Do not totter; nor may this sacrificer forsake you. (1) Let the all pervading Lord approach уоu. (2) For abundant wind. (3) May the demons be driven away. (4) Let it be grasped by the five. (5)

    Notes

    Ahrutam, not crooked. ह्वृ कोटिये। Havirdhanam, depository of oblations; place of sacrifice; earth; place of Soma-pressing; a cart in which Soma plants are carried, The word havirdhana is used to denote all these meanings. One who receives oblations is also havirdhana. Visnu, विष्णु व्यापको यज्ञ-Uvata; व्यापनशील-Dауа; all-pervading Lord is also Visnu. Vatayn, Vata is wind. Apahatarm, driven away. Yacchantam, may grasp; may grant. Five, these may be five fingers or five sense-organs, or five elements.

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    बंगाली (1)

    विषय

    অথ য়জমানভৌতিকাগ্নিকৃত্যমুপদিশ্যতে ॥
    এখন যজমান ও ভৌতিক অগ্নির কর্মের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে ঋত্বিগ্ মনুষ্য ! তোমাকে অগ্নি হইতে বৃদ্ধি প্রাপ্ত (অহ্রুতম্) কুটিলতা রহিত (হবির্ধানম্) হোমের যোগ্য পদার্থকে ধারণ করিতে হইবে । তাহাকে (দৃংহস্ব) বৃদ্ধি কর কিন্তু কোনও সময় (মা হ্বাঃ) উহা ত্যাগ করিও না । ইহা (তে) তোমার (য়জ্ঞপতি) যজমান ও সেই যজ্ঞানুষ্ঠানকে (মা) (হ্বার্ষীৎ) পরিত্যাগ না করে । এই প্রকার তোমরা (পঞ্চ) প্রথম উপর দিকে চেষ্টিত হওয়া, দ্বিতীয় নিম্নদিকে, তৃতীয় চেষ্টা দ্বারা নিজ অঙ্গ-সকলের সংকোচন করা, চতুর্থ তাহাদিগের বিস্তার করা এবং পঞ্চম চলন-বলন ইত্যাদি পাঁচ প্রকার কর্ম দ্বারা হবন যোগ্য যে দ্রব্য উহাকে অগ্নিতে (য়চ্ছন্তাম্) হবন কর । (ত্বা) সেই যে হবন কৃত দ্রব্য তাহাকে (বিষ্ণুঃ) ব্যাপনশীল সূর্য্য (অপহতম্, রক্ষঃ) দুর্গন্ধাদি দোষগুলির নাশ করিয়া (উরুবাতায়) অত্যন্ত বায়ুশুদ্ধি অথবা সুখবৃদ্ধি হেতু (ক্রমতাম্) চালনা করে ॥ ঌ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যখন মনুষ্য পরস্পর প্রীতি সহ কুটিলতা ত্যাগ করিয়া শিক্ষা প্রদানকারীর শিষ্য হইয়া বিশেষ জ্ঞান ও ক্রিয়া দ্বারা ভৌতিক অগ্নির বিদ্যা জ্ঞাত হইয়া তাহার অনুষ্ঠান করে, তখনই শিল্পবিদ্যার সিদ্ধি দ্বারা সকল শত্রু দারিদ্র্য ও দুঃখ হইতে মুক্ত হইয়া সর্ব সুখ প্রাপ্ত করে । এই প্রকার বিষ্ণু অর্থাৎ ব্যাপক পরমেশ্বর সর্ব মনুষ্যদিগকে আজ্ঞাও প্রদান করিয়াছেন, যাহার পালন করা সকলের কর্তব্য ॥ ঌ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অহ্রু॑তমসি হবি॒র্ধানং॒ দৃꣳহ॑স্ব॒ মা হ্বা॒র্মা তে॑ য়॒জ্ঞপ॑তির্হ্বার্ষীৎ ।
    বিষ্ণু॑স্ত্বা ক্রমতামু॒রু বাতা॒য়াপ॑হত॒ꣳ রক্ষো॒ য়চ্ছ॑ন্তাং॒ পঞ্চ॑ ॥ ঌ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অহ্রুতমসীত্যস্য ঋষিঃ স এব । বিষ্ণুর্দেবতা । নিচৃৎত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ।

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