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यजुर्वेद अध्याय - 1

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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 15
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृत् जगती,याजुषी पङ्क्ति, स्वरः - निषादः
    2

    अ॒ग्नेस्त॒नूर॑सि वा॒चो वि॒सर्ज॑नं दे॒ववी॑तये त्वा गृह्णामि बृ॒हद् ग्रा॑वासि वानस्प॒त्यः सऽइ॒दं दे॒वेभ्यो॑ ह॒विः श॑मीष्व सु॒शमि॑ शमीष्व। हवि॑ष्कृ॒देहि॒ हवि॑ष्कृ॒देहि॑॥१५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्नेः। त॒नूः। अ॒सि॒। वा॒चः। वि॒सर्ज॑न॒मिति॑ वि॒ऽसर्ज॑नम्। दे॒ववी॑तय॒ इति॑ दे॒वऽवी॑तये। त्वा॒। गृ॒ह्णा॒मि॒। बृ॒हद्ग्रा॒वेति॑ बृ॒हत्ऽग्रा॑वा। अ॒सि॒। वा॒न॒स्प॒त्यः। सः। इ॒दम्। दे॒वेभ्यः॑। ह॒विः। श॒मी॒ष्व॒। श॒मि॒ष्वेति॑ शमिष्व। सु॒शमीति॑ सु॒ऽशमि॑। श॒मी॒ष्व॒। श॒मि॒ष्वेति॑ शमिष्व। हवि॑ष्कृत्। हविः॑कृ॒दिति॒ हविः॑कृत्। आ। इ॒हि॒। हवि॑ष्कृत्। हविः॑कृ॒दिति॒ हविः॑ऽकृत्। आ। इ॒हि॒ ॥१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्नेस्तनूरसि वाचो विसर्जनन्देववीतये त्वा गृह्णामि बृहद्ग्रावासि वानस्पत्यः स इदन्देवेभ्यो हविः शमीष्व सुशमि शमीष्व हविष्कृदेहि हविष्कृदेहि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्नेः। तनूः। असि। वाचः। विसर्जनमिति विऽसर्जनम्। देववीतय इति देवऽवीतये। त्वा। गृह्णामि। बृहद्ग्रावेति बृहत्ऽग्रावा। असि। वानस्पत्यः। सः। इदम्। देवेभ्यः। हविः। शमीष्व। शमिष्वेति शमिष्व। सुशमीति सुऽशमि। शमीष्व। शमिष्वेति शमिष्व। हविष्कृत्। हविःकृदिति हविःकृत्। आ। इहि। हविष्कृत्। हविःकृदिति हविःऽकृत्। आ। इहि॥१५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 15
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    पुनः स यज्ञः कीदृशो भवतीत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    अहं सर्वो जनो यस्य हविषः संस्काराय। बृहद्ग्रावाऽ(स्य)स्ति वानस्पत्यश्च यदिदं देवेभ्यो भवति तं देववीतये गृह्णामि। हे विद्वन्! स त्वं देवेभ्यो विद्वद्भ्यः सुशमिं तद्धविः शमीष्व शमीष्व। ते मनुष्या वेदादीनि शास्त्राणि पठन्ति पाठयन्ति च तानेवेयं वाग् हविष्कृदेहि हविष्कृदेहीत्याह॥१५॥

    पदार्थः

    (अग्नेः) भौतिकस्य (तनूः) शरीरवत्तस्य संयोगेन। विस्तृतो यज्ञः (असि) भवति। अत्र सर्वत्र पुरुषव्यत्ययः (वाचः) वेदवाण्याः (विसर्जनम्) यजमानेन होतृभिश्च हविषस्त्यागो मौनं वा (देववीतये) देवानां विदुषां दिव्यगुणानां वा वीतिर्ज्ञानं प्रापणं प्रजनं व्याप्तिः प्रकाशः। अन्येभ्य उपदेशनं विविधभोगो वा यस्यां तस्यै। वी गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु (त्वा) तमिमं सम्यक् शोधितं हविःसमूहम् (गृह्णामि) स्वीकरोमि (बृहद्ग्रावा) बृहच्चासौ ग्रावा च सः (असि) अस्ति (वानस्पत्यः) यो वनस्पतेर्विकारस्तं हविःसंस्कारार्थम् (सः) त्वं यजमानः (इदम्) यत् प्रत्यक्षं हुतं तत् (देवेभ्यः) विद्वद्भयो दिव्यगुणेभ्यो वा (हविः) संस्कृतं सुगन्ध्यादियुक्तं द्रव्यम् (शमीष्व) दुःखनिवृत्तये सुखसम्पादनार्थं कुरुष्व। शमु उपशमे इत्यस्माद् बहुलं छन्दसि [अष्टा॰२.४.७३] इति श्यनो लुक्। तुरुस्तु शम्यम॰अष्टा॰७।३।९५) इतीडागमः। महीधरेणात्र शपो लुगित्यशुद्धं व्याख्यातम्। (सुशमि) सुष्ठु दुःखं शमितुं शीलं धर्मः पदार्थानां साधुकरणं वा यस्य तत्। शमित्यष्टा॰ ( अष्टा॰ ३।२।१४१) अनेन शमेर्घिनुण्। इदमपि पदमुवटमहीधराभ्यामन्यथैव व्याख्यातम् (शमीष्व) पुनरुच्चारणं हविषोऽत्यन्तसंस्कारद्योतनार्थम् (हविष्कृत्) हविः करोति। अनया वेदवाण्या सा हविष्कृद् वाक् (एहि) अध्ययनेनैवैति प्राप्नोति (हविष्कृत्) अत्र यज्ञसम्पादनाय ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राणां चतुर्विधा वेदाध्ययनसंस्कृता सुशिक्षिता वाग् गृह्यते॥ अयं मन्त्रः (शत॰१।१।४।८-१०) व्याख्यातः॥१५॥

    भावार्थः

    यदा मनुष्या वेदादिशास्त्रद्वारा यज्ञक्रियां फलं च विदित्वा सुसंस्कृतेन हविषा यज्ञं कुर्वन्ति तदा स सुगन्ध्यादिद्रव्यहोमद्वारा परमाणुमयो भूत्वा वायौ वृष्टिजले च विस्तृतः सन् सर्वान् पदार्थानुत्तमान् कुर्वन् दिव्यानि सुखानि सम्पादयति। यश्चैवं सर्वेषां प्राणिनां सुखाय पूर्वोक्तं त्रिविध यज्ञं नित्यं करोति तं सर्वे मनुष्या हविष्कृदेहि हविष्कृदेहीति सत्कुर्य्यः॥१५॥

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    विषयः

    पुनः स यज्ञः कीदृशो भवतीत्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    अहं सर्वो जनो यस्य हविषः संस्काराय बृहद्ग्रावा बृहच्चासौ ग्रावा च सः, असि=भवति, वानस्पत्यः यो वनस्पतेर्विकारस्तं हविःसंस्कारार्थ , यदिदं यत् प्रत्यक्षं हुतं तत् [अग्नेः] भौतिकस्य [तनूः] शरीरवत्तस्य संयोगेन विस्तृतो यज्ञः [वाचः] वेदवाण्याः [विसर्जनम्] यजमानेन होतृभिश्च हविषस्त्यागो मौनं वा देवेभ्यः विद्वद्भ्यो दिव्यगुणेभ्यो वा [असि] भवति तं देववीतये देवानां=विदुषां दिव्यगुणानां वा वीतिः=ज्ञानं, प्रापणं, प्रजनं, व्याप्तिः, प्रकाशः, अन्येभ्य उपदेशनं, विविधभोगो वा यस्यां तस्यै, गृह्णामि स्वीकरोमि।

    हे विद्वन्ः ! स त्वं (त्वं) यजमानः देवेभ्यः=विद्वद्भ्यः दिव्यगुणेभ्यो वा सुशमि सुष्ठु दुःखं शमितुं शीलं, धर्मः, पदार्थानां साधुकरणं वा यस्य तत्, तद्धविः संस्कृतं सुगन्ध्यादियुक्तं द्रव्यं शमीष्व दुःखनिवृत्तये सुखसम्पादनार्थं कुरुष्व शमीष्व पुनरुच्चारणं हविषोऽत्यन्तसंस्कारद्योतनार्थम्।

    ये मनुष्या वेदादीनि शास्त्राणि पठन्ति पाठयन्ति च तानियं वाग् "हविष्कृत् हविः करोति अनया वेद- वाण्या सा हविष्कृद्वाक् एहि अध्ययनेनैवैति=प्राप्नोति, हविष्कृत् अत्र यज्ञसम्पादनाय ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राणां चतुर्विधा वेदाध्ययनसंस्कृता सुशिक्षिता वाग् गृह्यते एहि अध्ययनेनैवैति= प्राप्नोति' इत्याह॥१।१५॥

    पदार्थः

    (अग्नेः) भौतिकस्य (तनूः) शरीरवत्तस्य संयोगेन विस्तृतो यज्ञः (असि) भवति। अत्र सर्वत्र पुरुषव्यत्ययः (वाचः) वेदवाण्याः (विसर्जनम्) यजमानेन होतृभिश्च हविषस्त्यागो मौनं वा (देववीतये) देवानां=विदुषां दिव्यगुणानां वा वीतिर्ज्ञानं प्रापणं प्रजनं व्याप्तिः प्रकाशः, अन्येभ्य उपदेशनं विविधभोगो वा यस्यां तस्यै। वी गतिव्याप्तिप्रजनकांत्यसनखादनेषु (त्वा) तमिमं सम्यक् शोधितं हवि:समूहम् (गृह्णामि) स्वीकरोमि (बृहद्ग्रावा) बृहच्चासौ ग्रावा च सः (असि) अस्ति (वानस्पत्यः) यो वनस्पतेर्विकारस्तं हविःसंस्कारार्थम् (सः) त्वं यजमानः (इदम्) यत् प्रत्यक्षं हुतं तत् (देवेभ्यः) विद्वद्भ्यो दिव्यगुणेभ्यो वा (हविः) संस्कृतं सुगंध्यादियुक्तं द्रव्यम् (शमीष्व) दुःखनिवृत्तये सुखसम्पादनार्थं कुरुष्व। शमु उपशमे इत्यस्माद्बहुलं छन्दसीति श्यनो लुक्। तुरुस्तुशम्यमः०॥ अ०७। ३।९५॥ इतीडागमः। महीधरेणात्र शपो लुगित्यशुद्धं व्याख्यातम्। (सुशमि) सुष्ठु दुःखं शमितुं शीलं धर्मः पदार्थानां साधुकरणं वा यस्य तत्। शमित्यष्टा०॥अ०३।२।१४१॥ अनेन शमेर्घिनुण्। इदमपि पदमुवटमहीधराभ्यामन्यथैव व्याख्यातम् (शमीष्व) पुनरुच्चारणं हविषोऽत्यन्तसंस्कारद्योतनार्थम् (हविष्कृत्) हविः करोति अनया वेदवाण्या सा हविष्कृद्वाक् (एहि) अध्ययनेनैवैति प्राप्नोति (हविष्कृत्) अत्र यज्ञसंपादनाय ब्राह्मणक्षत्रियवैश्यशूद्राणां चतुर्विधा वेदाध्ययनसंस्कृता सुशिक्षिता वाग् गृह्यते॥ अयं मंत्रः श० १। १। ४। ८-१७ व्याख्यातः॥१५॥

    भावार्थः

    [अहं यदिदं [अग्नेः] [तनूः] [वाचः] [विसर्जनम्] देवेभ्यः [असि] तं देववीतये गृह्णामि; हे विद्वन्! स त्वं देवेभ्यः--सुशमि तद्धविः शमीष्व]

    यदा मनुष्या वेदादिशास्त्रद्वारा यज्ञक्रियां फलं च विदित्वा सुसंस्कृतेन हविषा यज्ञं कुर्वन्ति तदा स सुगन्ध्यादि द्रव्यहोमद्वारा परमाणुमयो भूत्वा, वायौ वृष्टिजले च विस्तृतः सन्, सर्वान् पदार्थानुत्तमान् कुर्वन् दिव्यानि सुखानि सम्पादयति।%3

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    हिन्दी (4)

    विषय

    उक्त यज्ञ किस प्रकार का होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    मैं सब जनों के सहित जिस हवि अर्थात् पदार्थ के संस्कार के लिये (बृहद्ग्रावा) बड़े-बड़े पत्थर (असि) हैं और (वानस्पत्यः) काष्ठ के मूसल आदि पदार्थ (देवेभ्यः) विद्वान् वा दिव्यगुणों के लिये उस यज्ञ को (देववीतये) श्रेष्ठ गुणों के प्रकाश और श्रेष्ठ विद्वान् वा विविध भोगों की प्राप्ति के लिये (प्रतिगृह्णामि) ग्रहण करता हूं। हे विद्वान् मनुष्य! तुम (देवेभ्यः) विद्वानों के सुख के लिये (सु, एमि) अच्छे प्रकार दुःख शान्त करने वाले (हविः) यज्ञ करने योग्य पदार्थ को (शमीष्व) अत्यन्त शुद्ध करो। जो मनुष्य वेद आदि शास्त्रों को प्रीतिपूर्वक पढ़ते वा पढ़ाते हैं, उन्हीं को यह (हविष्कृत्) हविः अर्थात् होम में चढ़ाने योग्य पदार्थों का विधान करने वाली जो कि यज्ञ को विस्तार करने के लिये वेद के पढ़ने से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की शुद्ध सुशिक्षित और प्रसिद्ध वाणी है, सो प्राप्त होती है॥१५॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य वेद आदि शास्त्रों के द्वारा यज्ञक्रिया और उसका फल जान के शुद्धि और उत्तमता के साथ यज्ञ को करते हैं, तब वह सुगन्धि आदि पदार्थों के होम द्वारा परमाणु अर्थात् अति सूक्ष्म होकर वायु और वृष्टि जल में विस्तृत हुआ सब पदार्थों को उत्तम कर के दिव्य सुखों को उत्पन्न करता है। जो मनुष्य सब प्राणियों के सुख के अर्थ पूर्वोक्त तीन प्रकार के यज्ञ को नित्य करता है, उस को सब मनुष्य हविष्कृत् अर्थात् यह यज्ञ का विस्तार करने वाला, यज्ञ का विस्तार करने वाला उत्तम मनुष्य है, ऐसा वारम्वार कहकर सत्कार करें॥१५॥

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    विषय

    उक्त यज्ञ किस प्रकार का होता है, इस विषय का उपदेश किया है।

    भाषार्थ

    मैं--सब लोगों की भाँति हवि के संस्कार के लिये जो (बृहद्ग्रावा) बड़ा पत्थर (असि) है और (वानस्पत्यः) जो हवि के संस्कारके लिये दारुमय मूसल है और जो (इदम्) यह प्रत्यक्ष होम किया (अग्नेः) भौतिक अग्नि के (तनूः) शरीर के तुल्य विस्तृत यज्ञ है एवं (वाचः) वेदवाणी से (विसर्जनम्) यजमान वा होता के द्वारा हवि का त्याग वा मौन धारण है वह (देवेभ्यः) विद्वानों की सेवा अथवा दिव्यगुणों की प्राप्ति के लिये (असि) होता है उसे (देववीतये) विद्वानों वा दिव्य गुणों के ज्ञान, प्राप्ति, उत्पत्ति, व्याप्ति, प्रकाश, दूसरों को उपदेश और विधि भोगों के लिये (गृह्णामि) ग्रहण करता हूँ।

    हे विद्वान् (सः) यजमान! तू (देवेभ्यः) विद्वानों का दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिये (सुशमि) दुःख को शान्त करने वाले शील, धर्म और साधुकरण से युक्त उस (हविः) शुद्ध सुगन्धित के द्रव्य को (शमीष्व) दुःखनिवृत्ति और सुखसिद्धि के लिये संस्कृत कर (शमीष्व) दो बार कथन हवि के अत्यन्त संस्कार का द्योतक है।

    जो लोग वेदादि शास्त्रों को पढ़ते और पढ़ाते हैं उनको यह वाणी (हविष्कृत) हवि को सिद्ध करने वाली वेदवाणी (एहि) अध्ययन से प्राप्त होती है, (हविष्कृत) यज्ञ की सिद्धि के लिये ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की चार प्रकार की वेदाध्ययन से शुद्ध और सुशिक्षित वाणी (एहि) अध्ययन से प्राप्त होती है ‘‘यह उपदेश किया है’’॥१।१५॥

    भावार्थ

    जब मनुष्य वेदादि शास्त्रों के द्वारा यज्ञ की क्रिया और उसके फल को जानकर विशुद्ध हवि से यज्ञ करते हैं तबवह सुगन्धि आदि द्रव्य होम से परमाणु रूप होकर वायु और वृष्टि-जल में फैलकर, सब पदार्थों को उत्तम बनाकर दिव्य सुखों को सिद्ध करता है। जो इस प्रकार सब प्राणियों के सुख के लिए पूर्वोक्त तीन प्रकार के यज्ञ को नित्य करता है उसका सब लोग ‘‘हविष्कृदेहि हविष्कृदेहि’’ (यज्ञकर्त्ता, आइये! यज्ञकर्त्ता, आइये!) ऐसा कहकर सत्कार करें॥ १। १५॥

    भाष्यसार

    १. यज्ञ--होम किये हुए द्रव्य को अग्नि के संयोग से परमाणु बनाकर वायु और वृष्टिजल में विस्तृत करने वाला है, यजमान और होता लोग इसमें हवि का त्याग करते हैं, एवं वाणी का त्याग अर्थात् मौन आचरण करते हैं, यह यज्ञ विद्वानों और दिव्यगुणों का ज्ञापक, प्रापक, उत्पादक, व्यापक, प्रकाशक, उपदेशक तथा विविध भोगों का प्रदायक है। दुःखों को शान्त करने वाला, पदार्थों में दिव्यगुणों का आधान करने वाला और सब सुखों को सम्पादक है॥

    २. वाणी--वेद-मन्त्र उच्चारण करके यज्ञ में हवि दी जाती है। वह वेदवाणी हविष्कृत्वाक् कहलाती है। और वह वेद के अध्ययन से प्राप्त होती है। यह वाणी ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र पात्र के भेद से चार प्रकार की है। इन चारों वर्णों को यह वाणी अध्ययन से ही यज्ञसिद्धि के लिए प्राप्त होती है। जो नित्य यज्ञ करता है, उसका उक्त चारों वर्ण, हविष्कृत् आइये, हविष्कृत् आइये’ ऐसा कहकर उसका सत्कार करते हैं।

    विशेष

    परमेष्ठी प्रजापतिः। यज्ञः=स्पष्टम्। निचृज्जगती । निषादः स्वरः। हविष्कृदिति याजुषी पंक्तिश्छन्दः। पंचमः स्वरः।।

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    विषय

    समाजसेवी का स्वरूप

    पदार्थ

    अदिति के सम्पर्क में रहकर अपने जीवन को सुन्दर बनानेवाला व्यक्ति अपना ठीक परिपाक करके लोकहित के कार्यों में प्रवृत्त होता है। इसे प्रभु निम्नरूप से प्रेरणा देते हैं—

    १. ( अग्नेः ) = अग्नि का ( तनूः असि ) = तू विस्तारक है। तूने अपने जीवन में शरीर को पूर्ण स्वस्थ बनाकर उत्साह से परिपूर्ण किया है। ‘अग्नि’ उत्साह का प्रतीक है। आलसी को ‘अनुष्णकः’ कहते हैं। प्रभु का सच्चा स्तोता शारीरिक स्वास्थ्य के कारण अग्नि की भाँति चमकता है। 

    २. ( वाचो विसर्जनम् ) = तू मेरी इस वेदवाणी का चारों ओर [ वि ] दान करनेवाला है [ सर्जन = दान ]। सर्वत्र विचरता हुआ तू इस वेदवाणी का प्रचार करता है। 

    ३. ( देववीतये ) = दिव्य गुणों के प्रजनन—उत्पन्न करने के लिए मैं ( त्वा ) = तुझे ( गृह्णामि ) = ग्रहण करता हूँ, अर्थात् जैसे एक राष्ट्रपति भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए मन्त्रियों का ग्रहण करता है, उसी प्रकार प्रभु इस यज्ञमय जीवनवाले व्यक्ति का ग्रहण इसलिए करते हैं कि यह लोक में दिव्य गुणों का प्रचार करनेवाला बने। 

    ४. ( बृहद् ग्रावा असि ) = तू विशाल हृदयवाला और वेदवाणियों का उच्चारण करनेवाला है [ गृ ]। उपदेष्टा को सदा विशाल हृदय होना चाहिए। संकुचित हृदयवाला होने पर वह शास्त्रों की व्याख्या भी ठीक नहीं करता, वह तो उनका प्रतारण ही करता है।

    ५. ( वानस्पत्यः ) = तू वनस्पति का ही प्रयोग करनेवाला है, मांस पर अपना पालन-पोषण करनेवाला नहीं है। 

    ६. ( सः ) = वह तू ( देवेभ्यः ) = दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए ( इदं हविः ) = इस हविरूप भोजन को ही ( शमीष्व ) = शान्ति देनेवाला बना, अर्थात् तेरा भोजन यज्ञशेष रूप तो हो ही साथ ही वह भोजन सौम्य हो, जो तेरे स्वभाव को शान्त बनाता हुआ तुझमें दिव्य गुणों की वृद्धि का कारण बने। ( सुशमि ) [ हविः ] = इस उत्तम शान्ति देनेवाले सौम्य भोजन को ( शमीष्व ) = शान्ति देनेवाला बना। तेरा भोजन ‘हविः’ हविरूप तो हो ही ( सुशमि ) = उत्तम शान्ति देनेवाला भी हो। 

    ७. ( हविष्कृत् ) = इस प्रकार अपने जीवन को हवि का रूप देनेवाले! तू ( एहि ) = मेरे समीप आ। ( हविष्कृत् ) = हविरूप भोजन करनेवाले जीव! तू ( एहि ) = मेरे समीप आ। प्रभु का सामीप्य उसे ही प्राप्त होता है जो अपने जीवन को लोकहित के लिए अर्पित कर देता है और इस लोकहित—परार्थ की वृत्ति को सिद्ध करने के लिए भोजन का हविरूप होना आवश्यक है। भोजन की पवित्रता से ही मन की पवित्रता सिद्ध होती है।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम यज्ञशिष्ट तथा सौम्य भोजनों के द्वारा अपने में दिव्य गुणों की वृद्धि करें और लोकहित के कार्यों में व्यापृत होते हुए वेदवाणी का प्रसार करें।

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    विषय

    अन्न आदि उत्पत्ति का उपदेश |

    भावार्थ

     हे प्रजा के पालक यज्ञमय प्रजापते ! राजन् ! तू ( अग्नेः तनूः असि) अग्नि का स्वरूप है। अग्नि के समान साक्षात् अग्रणी और दुष्टों का तापकारी है । ( वाच: विसर्जनम् ) वेद आदि वाणियों और स्तुतियुक्त वाणियों के त्याग करने, भेंट करने का स्थान है । (त्वा) तुझ को हम प्रजाजन (देववीतये) देव, विद्वानों के रक्षा के निमित्त (गृह्णामि ) स्वीकार करते हैं । तू (वानस्पत्यः ) वनस्पति अर्थात् काष्ट के बने मूसल के समान शत्रुनाशक और ( बृहद्ग्रावा असि ) बड़ा भारी ग्रावा पाषाण के समान शत्रु के दलन करने वाला है। (इदम्) यह ( देवेभ्यः )देव विद्वान् पुरुषों के उपकार के लिये ( हविः ) ग्रहण करने योग्य अन्न या भोग्य पदार्थ है ! (सः) वह तू राजा उसको ( शमीष्व ) शान्तिदायक रूप में तैयार कर । ( सुशमि ) उत्तम रीति से दुःखशमन करने के लिये ( शमीष्व) उसको उत्तम रीति से तैयार कर । हे  ( हविष्कृत ) अन्न आदि पदार्थों के तैयार करने वाले सत्पुरुष ! तू ( एहि ) आ । हे ( हविष्कृत एहि ) अन्न आदि पदार्थों को तैयार करने वाले पुरुष ! तू आ ॥ शत० १।१।४।८-१३ ॥ 
     

    टिप्पणी

    टिप्पणी १५ --- ० ' वृहन्यात्रासि'०, ०शभि हव्यं “ शमीष्व०' इति काण्व० । यज्ञो देवता । द० । 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हविर्मुसलं वाक् पत्नी च यज्ञो वा देवता ( १ ) निचृत् जगती, निषादः ( २ ) याजुषी पंक्तिः । पञ्चमः स्वरः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    जेव्हा माणसे वेदशास्त्रानुसार यज्ञक्रियेचे फळ जाणून शुद्ध रीतीने उत्तम यज्ञ करतात. तेव्हा होमात अर्पण केलेल्या सुगंधी वस्तूंचे परमाणू अतिसूक्ष्म होऊन वायू व वृष्टिजलात मिसळून सर्व पदार्थांना उत्तम बनवितात व दिव्य सुख उत्पन्न करतात. तसेच जो मनुष्य पूर्वोक्त (१) इहलोक व परलोक सुखाची विद्या, (२) शिल्पविद्येचे प्रात्यक्षिक, (३) विद्वानाचा संग असे तीन प्रकारचे यज्ञ करतो त्या माणसाला सर्वांनी हविष्कृत अर्थात यज्ञविस्तार करणारा उत्तम माणूस समजून त्याचा स्वीकार करावा.

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    विषय

    उक्त यज्ञ कोणत्या प्रकारचा आहे, पुढीलमंत्रात याविषयी कथन केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हवि म्हणजे हव्य पदार्थांचे संस्कार, शुद्धी व स्वच्छता करण्यासाठी जे (बृहद्ग्रावासि) मोठे-मोठे प्रस्तर (असि) आहेत, तसेच त्यासाठी जे (वानस्पत्य।) काष्ठनिर्मित मुसळ आदी वस्तू आहेत त्या वस्तूंचे मी ग्रहण करतो (दवेभ्यः) विद्वज्जनांसाठी अथवा पदार्थातील दिव्य गुणांना प्रकट करण्यासाठी, तसेच (देववीतये) श्रेष्ठ गुणांच्या प्रकटनासाठी, श्रेष्ठ विद्वानांसाठी किंवा विविध भोगाच्या प्राप्तीसाठी (प्रतिगृह्णामि) मी या यज्ञाचे ग्रहण करतो. (या उद्दिष्टांच्या प्राप्तीसाठी यज्ञाचे अनुष्ठान करतो) हे विद्वज्जन हो, (देवेभ्यः) विद्वानांच्या सुखाकरिता (सुशमि) तसेच दुःखास पूर्णपणे शांत करण्याकरिता (हविः) यज्ञीय पदार्थांना (शमीष्व) (शमीष्व) अत्यंत शुद्ध करा जे लोक श्रद्धेने व प्रेमाने वेदादी शास्त्रांचे पठन व पाठन करतात, त्यांना हवि (हविष्कृत्) अर्थात होमात आहुत करण्यास योग्य अशा पदार्थांचे ज्ञान करून देणारी वाणी प्राप्त होते. यज्ञाच्या विस्तारासाठी या वारीचे ज्ञान आवश्यक असून वेदपठनाने ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आणि शूद्र या सर्वांना ही शुद्ध, सुसंस्कृत आणि प्रसिद्ध वाणी प्राप्त होते. ॥15॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जेंव्हा माणसें वेदादी शास्त्रांद्वारे यज्ञ-क्रिया आणि त्याचे फळ यांचे ज्ञान संपादित करून शुद्ध आणि उत्तम प्रकारे यज्ञ करतात, तेंव्हा सुगंधित पदार्थ होमाद्वारे परमाणुरुप म्हणजे अती सुक्ष्म होतात आणि वायु व वृष्टि-जलामधे प्रसृत होऊन सर्व पदार्थांना उत्तम करतात आणि दिव्य उत्पत्ती करतात. जो माणूस प्राणिमात्राच्या सुखासाठी नित्यच पूर्वोक्त तीन प्रकारचे यज्ञ करतो, त्याला सर्व जण ‘हविष्कृत्, हविष्कृत्’ ‘हा यज्ञाचे प्रसार करणारा, यज्ञाचा विस्तार करणारा उत्तम मनुष्य आहे, असे वारंवार म्हणतात. अशा हविष्कृत् मनुष्याचा सर्वांनी अवश्य सत्कार करावा. ॥15॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O yajna, thou art the body of the fire. Thou art performed with the recitation of vedic verses, I perform thee for the acquisition of noble qualities. Thou art a great cloud, the fosterer of herbs, Cleanse this oblation, the assuager of mental pain, for the happiness of the learned. Cleanse it well. Those who read and teach the Vedas, become acquainted with the Vedic lore, inspiring us for the performance of yajnas.

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    Meaning

    Yajna is the metaphor of Agni in fire, wood and soma stone, speaking in the divine voice. I do it for the gods to receive the gift of divine bliss. Prepare, prepare the holy food for the fire. Offer it to the gods and receive the divine bliss. Come, come fragrance of life, from the flames of yajna-fire.

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    Translation

    You are the fire embodied and the source of speech. I take you up for satisfaction of Nature's bounties. (1) You are a big cloud nourisher of vegetation. (2) Now prepare oblation for Nature's bounties. (3) Prepare it carefully. О offerer of oblations, come; O offerer of oblations, come here. (4)

    Notes

    Agneh tanuh, body of the fire, the fire embodied. Visarjanam, विसृज् to release; visarjanam is the release. Releaser or the source of the speech is meant here. Devavitaye, वीतिः तर्पणम्i. e. enjoyment or satisfaction. Devas are the bounties of Nature such as the sun, air, the moon, clouds etc. Grava, is the stone, generally used for crushing Soma stalks or for husking rice. Sometimes the word is used in dual number as gravanau, two stones, i. e. mortar and pestle. According to Uvata a wooden pestle is meant by grava vanaspatyah, But according to Yaska, grava is one of the names of cloud. (Nigh I. 10). So we have translated grava as cloud, beneficial for vegetation. Havih, whatever is offered to the sacrificial fire is havih, i. e. the oblation or the offering, संस्कृत सुगन्ध्यादियुक्त द्रव्यम् (Dayananda). In a wider sense of the sacrifice, whatever a seeker gives up for others is havih. Samisva, दुःखनिवृत्तये सुखसम्पादनार्थं कुरुथ्व, i. e. prepare it for removing distress and bringing happiness (Dayananda). Haviskrt, one who offers the oblations, as well as he,who prepares them.

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    बंगाली (1)

    विषय

    পুনঃ স য়জ্ঞঃ কীদৃশো ভবতীত্যুপদিশ্যতে ॥
    উক্ত যজ্ঞ কী প্রকার হয় এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ- আমি সর্ব জনের সহিত যে হবি অর্থাৎ পদার্থের সংস্কার হেতু (অসি) আছে (বৃহদ্গ্রাবাসি) বড়-বড় পাথর এবং (বানস্পত্যঃ) কাষ্ঠের মূসলাদি পদার্থ (দেবেভ্যঃ) বিদ্বান্ বা দিব্যগুণ- সমূহের জন্য সেই যজ্ঞকে (দেববীতয়ে) শ্রেষ্ঠ গুণের প্রকাশ এবং শ্রেষ্ঠ বিদ্বান্ বা বিবিধ ভোগ প্রাপ্তি হেতু (প্রতিগৃহ্নামি) গ্রহণ করিয়া থাকি । হে বিদ্বান্ মনুষ্য ! তুমি (দেবেভ্যঃ) বিদ্বান্দিগের সুখের জন্য (সু এমি) ভাল মত দুঃখ শান্ত করিবার (হবিঃ) যজ্ঞ করিবার যোগ্য পদার্থকে (শমীষ্ব) অত্যন্ত শুদ্ধ কর । যে মনুষ্য বেদাদি শাস্ত্রকে প্রীতিপূর্বক পাঠ করেন বা করান তাহাকেই এই (হবিষ্কৃত) হবিঃ অর্থাৎ হোমে আহুতি দিবার যোগ্য পদার্থসকলের বিধানকারী যাহা যজ্ঞকে বিস্তার করিবার জন্য বেদ পঠন দ্বারা ব্রাহ্মণ, ক্ষত্রিয়, বৈশ্য ও শূদ্রের শুদ্ধ, সুশিক্ষিত ও প্রসিদ্ধ বাণী উহা প্রাপ্ত হয় ॥ ১৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যখন মনুষ্য বেদাদি শাস্ত্র দ্বারা যজ্ঞক্রিয়া এবং তাহার ফল জানিয়া শুদ্ধি ও উত্তমতা সহ যজ্ঞ করেন তখন সে সুগন্ধি ইত্যাদি পদার্থ সকলের হোম দ্বারা পরমাণু অর্থাৎ অত্যন্ত সূক্ষ্ম হইয়া বায়ু ও বৃষ্টিজলে বিস্তৃত হইয়া সকল পদার্থকে উত্তম করিয়া দিব্য সুখ উৎপন্ন করে । যে মনুষ্য সর্ব প্রাণিদিগের সুখের অর্থ পূর্বোক্ত তিন প্রকার যজ্ঞ নিত্য করে তাহাকে সকল মনুষ্য হবিষ্কৃত অর্থাৎ এই যজ্ঞের বিস্তারকারী – উত্তম মনুষ্য এইরূপ বারংবার বলিয়া সৎকার করিবে ॥ ১৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অ॒গ্নেস্ত॒নূর॑সি বা॒চো বি॒সর্জ॑নং দে॒ববী॑তয়ে ত্বা গৃহ্ণামি বৃ॒হদ্গ্রা॑বাসি বানস্প॒ত্যঃ সऽ ই॒দং দে॒বেভ্যো॑ হ॒বিঃ শ॑মীষ্ব সু॒শমি॑ শমীষ্ব । হবি॑ষ্কৃ॒দেহি॒ হবি॑ষ্কৃ॒দেহি॑ ॥ ১৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্নেস্তনূরিত্যস্য ঋষিঃ স এব । য়জ্ঞো দেবতা । নিচৃজ্জগতী ছন্দঃ ।
    নিষাদঃ স্বরঃ । হবিষ্কৃদিতি য়াজুষী পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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