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यजुर्वेद अध्याय - 1

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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 23
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - बृहती, स्वरः - मध्यमः
    4

    मा भे॒र्मा॒ संवि॑क्था॒ऽअत॑मेरुर्य॒ज्ञोऽत॑मेरु॒र्यज॑मानस्य प्र॒जा भू॑यात् त्रि॒ताय॑ त्वा द्वि॒ताय॑ त्वैक॒ताय॑ त्वा॥२३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मा। भेः॒। मा। सम्। वि॒क्थाः॒। अत॑मेरुः। य॒ज्ञः। अत॑मेरुः। यज॑मानस्य। प्र॒जेति॑ प्र॒ऽजा। भू॒या॒त्। त्रि॒ताय॑। त्वा॒। द्वि॒ताय॑। त्वा॒। ए॒क॒ताय॑। त्वा॒ ॥२३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मा भेर्मा सँविक्थाऽतमेरुर्यज्ञो तमेरुर्यजमानस्य प्रजा भूयात्त्रिताय त्वा द्विताय त्वैकताय त्वा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मा। भेः। मा। सम्। विक्थाः। अतमेरुः। यज्ञः। अतमेरुः। यजमानस्य। प्रजेति प्रऽजा। भूयात्। त्रिताय। त्वा। द्विताय। त्वा। एकताय। त्वा॥२३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 23
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    निःशङ्कतया सर्वैः स यज्ञोऽनुष्ठातव्य इत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे विद्वन्! त्वमतमेरुः सन् यजमानस्य यज्ञस्यानुष्ठानान्मा भेर्भयं मा कुरु। एतस्मान्मा संविक्था मा विचल। एवं यज्ञं कृतवतस्तेऽतमेरुः प्रजा भूयात्। अहं त्वा तमग्निं यज्ञाय त्रिताय [त्वा] द्विताय [त्वा] एकताय च सुखाय संयौमि॥२३॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधार्थे (भेः) बिभीहि। अत्र लोडर्थे लङ्। बहुलं छन्दसि [अष्टा॰२.४.७३] इति शपो लुक् (मा) निषेधार्थे (सम्) एकीभावे (विक्थाः) चल। ओविजी भयचलनयोरित्यस्माल्लोडर्थे लङ्। लङि मध्यमैकवचने बहुलं छन्दसि [अष्टा॰२.४.७३] इति विकरणाभावश्च (अतमेरुः) न ताम्यति येन यज्ञेन सः। तमुधातोर्बाहुलकादेरुः प्रत्ययः (यज्ञः) इज्यते यस्मिन् सः (अतमेरुः) न ताम्यति यः स यज्ञकर्त्ता मनु्ष्यः (यजमानस्य) यज्ञस्यानुष्ठातुः (प्रजा) सुसंताना यज्ञसंपादिका (भूयात्) भवेत् (त्रिताय) त्रयाणामग्निकर्महविषां भावाय (त्वा) तम् (द्विताय) द्वयोर्वायुवृष्टिजलशुद्ध्योर्भावाय (त्वा) तम् (एकताय) एकस्य सुखस्य भावाय (त्वा) त्वाम्॥ अयं मन्त्रः (शत॰१।१।२।१५-१८) तथा (१।२।३।१-९) व्याख्यातः॥२३॥

    भावार्थः

    ईश्वरः प्रतिमनुष्यमाज्ञापयत्याशीश्च ददाति, नैव केनापि मनुष्येण यज्ञसत्याचारविद्याग्रहणस्य सकाशाद् भेतव्यम्, विचलितव्यं वा। कस्माद् युष्माभिरेतैरेव सुप्रजाः शारीरिकवाचिकमानसानि निश्चलानि (च) सुखानि प्राप्तुं शक्यानि भवन्त्यस्मादिति॥२३॥

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    विषयः

    निःशंकतया सर्वैः स यज्ञोऽनुष्ठातव्य इत्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    हे विद्वन् ! त्वमतमेरुः न ताम्यति य: स यज्ञकर्ता मनुष्यः सन् यजमानस्य यज्ञस्याऽनुष्ठातुः यज्ञस्याऽनुष्ठानान्मा भेः=भयं मा कुरु न बिभीहि, एतस्मान्मा संविक्थाः=मा विचल

    एवं [यज्ञः]=यज्ञम् इज्यते यस्मिन् सः, कृतवतस्तेऽतमेरुः न ताम्यति येन यज्ञेन स प्रजा सुसन्ताना यज्ञसम्पादिका भूयाद् भवेत्।

    अहं त्वां=तमग्निं यज्ञाय त्रिताय त्रयाणामग्निकर्महविषां भावाय [त्वा] द्विताय द्वयोर्वायुवृष्टिजलशुद्ध- योर्भावाय [त्वा] एकताय एकस्य सुखस्य भावाय सुखाय संयौमि॥१।२३॥

    [ हे विद्वन्! त्वम्यज्ञस्यानुष्ठान्मा भेः=भयं मा कुरु, एतस्मान्मा संविक्थाः मा विचल]

    भावार्थ:--ईश्वरः प्रतिमनुष्यमाज्ञापयत्याशीश्च ददाति--नैव केनापि मनुष्येण यज्ञसत्याचारविद्याग्रहणस्य सकाशाद् भेतव्यं, विचलितव्यं वा।

    [एवं यज्ञं कृतवतस्ते--प्रजा भूयात्, अहं त्वा=तमग्निं यज्ञाय त्रिताय=सुखाय संयौमि]

    कस्मात्? युष्माभिरेतैरेव सुप्रजाशारीरिकवाचिकमानसानि निश्चलानि सुखानि प्राप्तुं शक्यानि  भवन्त्यस्मादिति॥१। २३॥

    पदार्थः

    (मा) निषेधार्थे (भेः) बिभीहि। अत्र लोडर्थे लङ्। बहुलं छन्दसीति शपो लुक् (मा) निषेधार्थे (सम्) एकीभावे (विक्थाः) चल। ओविजी भयचलनयोरित्यस्माल्लोडर्थे लङ्। लङि मध्यमैकवचने बहुलं छन्दसीति विकरणाभावश्च (अतमेरुः) न ताम्यति येन यज्ञेन सः। तमुधातोर्बाहुलकादेरुः प्रत्ययः (यज्ञः) इज्यते यस्मिन् सः (अतमेरुः) न ताम्यति यः स यज्ञकर्ता मनुष्यः (यजमानस्य) यज्ञस्यानुष्ठातुः (प्रजा) सुसन्ताना यज्ञसंपादिका (भूयात्) भवेत् (त्रिताय) त्रयाणामग्निकर्महविषां भावाय (त्वा) तम् (द्विताय) द्वयोर्वायुर्वावृष्टिजलशुद्ध्योर्भावाय (त्वा) तम् (एकताय) एकस्य सुखस्य भावाय (त्वा) त्वाम्॥ अयं मंत्र: श० १।१।२।१५-१८ तथा १।२।३।१-९ व्याख्यातः॥ २३॥

    भावार्थः

    [ हे विद्वन्! त्वम्यज्ञस्यानुष्ठान्मा भेः=भयं मा कुरु, एतस्मान्मा संविक्थाः मा विचल]

    ईश्वरः प्रतिमनुष्यमाज्ञापयत्याशीश्च ददाति--नैव केनापि मनुष्येण यज्ञसत्याचारविद्याग्रहणस्य सकाशाद् भेतव्यं, विचलितव्यं वा।

    [एवं यज्ञं कृतवतस्ते--प्रजा भूयात्, अहं त्वा=तमग्निं यज्ञाय त्रिताय=सुखाय संयौमि]

    कस्मात्? युष्माभिरेतैरेव सुप्रजाशारीरिकवाचिकमानसानि निश्चलानि सुखानि प्राप्तुं शक्यानि  भवन्त्यस्मादिति॥१। २३॥

    भावार्थ पदार्थः

    यज्ञ:=यज्ञसत्याचारविद्याग्रहणम्। त्रिताय=शारीरिक-वाचिक-मानसिक स्थिर-सुखाय॥

    विशेषः

    परमेष्ठी प्रजापतिः। अग्निः=भौतिकोऽग्निः॥ बृहती?। मध्यमः?

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    हिन्दी (4)

    विषय

    निःशंक होकर उक्त यज्ञ सब को करना चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् पुरुषो! तुम (अतमेरुः) श्रद्धालु होकर (यजमानस्य) यजमान के यज्ञ के अनुष्ठान से (मा भेः) भय मत करो और उससे (मा संविक्थाः) मत चलायमान हो। इस प्रकार (यज्ञः) यज्ञ करते हुए तुम को उत्तम से उत्तम (अतमेरुः) ग्लानिरहित श्रद्धावान् (प्रजा) सन्तान (भूयात्) प्राप्त हो और मैं (त्वा) भौतिक अग्नि को उक्त गुणयुक्त तथा (एकताय) सत्य सुख के लिये (द्विताय) वायु तथा वृष्टि जल की शुद्धि तथा (त्रिताय) अग्नि, कर्म और हवि के होने के लिये (संयौमि) निश्चल करता हूं॥२३॥

    भावार्थ

    ईश्वर सब मनुष्यों को आज्ञा और आशीर्वाद देता है कि किसी मनुष्य को यज्ञ, सत्याचार और विद्या के ग्रहण से डरना वा चलायमान कभी न होना चाहिये, क्योंकि मनुष्यों को उक्त यज्ञ आदि अच्छे-अच्छे कार्यों से ही उत्तम-उत्तम सन्तान शारीरिक, वाचिक और मानस विविध प्रकार के निश्चल सुख प्राप्त हो सकते हैं॥२३॥

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    विषय

    निःशंक होकर उक्त यज्ञ सब को करना चाहिए, इस विषय का उपदेश किया है ।।

    भाषार्थ

    हे विद्वान् पुरुष! तू (अतमेरु) आलस्य-रहित करने वाला बनकर (यजमानस्य) यज्ञ करनेवाले यजमान के यज्ञानुष्ठान से (मा भेः) मत डर और यज्ञानुष्ठान से (मासंविक्थाः) विचलित मत हो।

    इस प्रकार (यज्ञम्) यज्ञ करने वाले आपकी (अतमेरु) सदा यज्ञ करने वाली (प्रजा) उत्तम सन्तान वाली प्रजा (भूयात्) हो।

    मैं (त्वा) उस अग्नि को यज्ञ के लिये अर्थात् (त्रिताय) अग्नि, कर्म, और हवि इन तीनों के लिये (द्विताय) वायु और वर्षा जल की शुद्धि इन दोनों के लिये (एक) और एक सुख के लिये (संयौमि) स्थापित करता हूँ॥१।२३॥

    भावार्थ

    ईश्वर प्रत्येक मनुष्य को आज्ञा और आशीर्वाद देता है किसी मनुष्य को यज्ञ, सत्याचार और विद्याग्रहण से डरना वा विचलित नहीं होना चाहिये।

    क्योंकि--तुम इन्हीं शुभ कर्मों से उत्तम सन्तान, शारीरिक, वाचिक और मानसिक स्थिर सुखों को प्राप्त कर सकते हो॥१।२३॥

    भाष्यसार

    . निःशंक भाव से यज्ञानुष्ठान--आलस्य-रहित होकर यज्ञ के अनुष्ठान से मत डर। श्रेष्ठतम कर्म यज्ञ करने से विचलित मत हो।

    . यज्ञ का फल--यज्ञ के अनुष्ठान से उत्तम सन्तान की प्राप्ति होती है। अग्नि, कर्म, हवि की सिद्धि, वायु और वर्षा-जल की शुद्धि और सुख की प्राप्ति होती है॥

    विशेष

        परमेष्ठी प्रजापतिः। अग्निः = भौतिकोऽग्निः।। बृहती । मध्यमः।

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    विषय

    अभय, अनुद्वेग

    पदार्थ

    पिछले मन्त्र में वर्णित वह व्यक्ति जिसका सवितादेव के द्वारा ठीक परिपाक होता है, सदा निर्भय होता है। उसमें दैवी सम्पत्ति का विकास होता है, जिसका प्रारम्भ ‘अभयम्’ से होता है, अतः कहते हैं कि १. ( मा भेः ) = तू डर मत। वस्तुतः जो प्रभु का भय रखता है, वह संसार में अभय होकर विचरता है। प्रभु से न डरनेवाला सभी से डरता है और प्रभु से डरनेवाला निडर रहता है। ( मा संविक्थाः ) = [ विज् भय-चलन ] तू उद्वेग से कम्पित मत हो। ठीक मार्ग पर चलनेवाले को किसी प्रकार का कम्पन नहीं होता। 

    २. ( यज्ञः ) = तेरा यज्ञ ( अतमेरुः ) = कभी श्रान्त होनेवाला न हो, अर्थात् तेरी यज्ञीय भावना सदा क्रियामय बनी रहे। 

    ३. उस ( यजमानस्य ) = सृष्टि-यज्ञ को रचनेवाले प्रभु की ( प्रजा ) = सन्तान ( अतमेरुः भूयात् ) = उत्तम कर्मों के करने में थक न जाए। जो व्यक्ति प्रभु के बने रहते हैं, वे थकते नहीं। प्रकृति के उपासक थक जाते हैं। वह विलासमय जीवन के कारण क्षीणशक्ति हो जाते हैं।

    प्रभु कहते हैं कि मैं ( त्वा ) = तुझे ( त्रिताय ) = [ त्रीन् तनोति ] ज्ञान, कर्म व भक्ति के विस्तार के लिए प्रेरित करता हूँ और क्योंकि ज्ञानपूर्वक कर्म करने को ही भक्ति कहते हैं, अतः ( द्विताय त्वा ) = तुझे इन ज्ञान और कर्म का ही विस्तार करने के लिए कहता हूँ। आवश्यक कर्मों की प्रेरणा का आधार ज्ञान ही है, अतः ( एकताय त्वा ) = मैं तुझे ज्ञान के विस्तार के लिए प्रेरणा देता हूँ। ‘क्रियावानेष ब्रह्मविदां वरिष्ठः’ = ब्रह्मज्ञानियों में क्रियावान् ही श्रेष्ठ होता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — हम अभय व निरुद्वेग हों। हमारा यज्ञ विश्रान्त न हो। हम आलसी न बनें। हम ज्ञान-कर्म व भक्ति तीनों के विस्तारक बनें। ज्ञानपूर्वक कर्म को ही भक्ति मानें। ज्ञान वही है जो हमें क्रियावान् बनाए।

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    विषय

    राजा और पुरुष को कार्यभार उठाने के लिये निर्भय होने का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे पुरुष ! ( मा भे: ) तू मत डर । ( मा संविक्थाः ) तू उद्विग्न मत हो । ( यज्ञः ) गृहस्थ रूप यज्ञ ( अतमेरुः ) सदा ग्लानिरहित, अनथक, सदा बलवान् रहे। और ( यजमानस्य ) यज्ञशील पुरुष की (प्रजा) प्रजा, सन्तान भी ( अतमेरुः ) कभी ग्लानियुक्त, मलिन, निर्बल न ( भूयात्) हो । हे गृहपते ! (त्वा ) तुझ को मैं ( त्रिताय ) तीन वेदों में पारंगत और ( द्विताय ) दो वेद में पारंगत और ( एकताय ) एक वेद में पारंगत पुरुष के लिये ( संयौमि ) नियुक्त करता हूं अथवा त्रित=माता, पिता और गुरु के निमित्त, द्वित=माता, पिता और एकत= केवल परमात्मा की सेवा में नियुक्त करता हूँ । राजा को भी ऐसा ही उपदेश है । तू भय मत कर, उद्विग्न मत हो । राष्ट्रमय यज्ञ ग्लानिरहित हो। राजा, प्रजा 'ग्लानिरहित' सदा प्रसन्न रहें । त्रित अर्थात् शत्रु, मित्र और उदासीन तीनों के लिये, द्वित अर्थात् सन्धि, विग्रह और एक अर्थात् एक चक्रवर्ती राज्य के लिये तुझे नियुक्त करता हूं । अथवा प्रजा में विद्यमान त्रित अर्थात् उत्तम, मध्यम, अधम या तीन वर्ण के लिये द्वित अर्थात् स्त्री पुरुष, पति पत्नी, एकत अर्थात् एकान्त सेवी मोक्षार्थी लोगों के हित के लिये नियुक्त 
    करता हूं ।। शत० १।२।७।१-३१ ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

     पुरोडाशः त्रितद्वितैकताः अग्निर्वा देवता । बृहती । मध्यमः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ईश्वर सर्व माणसांना अशी आज्ञा करतो व आशीर्वाद देतो की कोणत्याही माणसाने यज्ञ, सत्याचरण व विद्येचे ग्रहण यात आळस करू नये. विचलित होऊ नये. अशा प्रकारचे यज्ञ इत्यादी उत्तम कर्म केल्याने चांगली संताने आणि शारीरिक, वाचिक, मानसिक इत्यादी निश्चल सुख प्राप्त होऊ शकते.

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    विषय

    सर्वांनी निःशंक होऊन पूर्वोक्त यज्ञ अवश्य करावा, पुढील मंत्रात याविषयी उपदेश केला आहे-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे विद्यावान मनुष्यांनो, तुम्ही (अतमेरुः) श्रद्धावान होऊन (यजमानस्य) यजमानाद्वारे आयोजित या यज्ञाच्या अनुष्ठानापासून (मा भेः) कोणत्याही प्रकारे भीती बाळगूं नका म्हणजे भय किंवा संकोच मानूं नका. या यज्ञापासून (मा संविक्थाः) विचलित होऊं नका. उक्त प्रकारे, (यज्ञः) यज्ञ करीत गेल्याने तुम्हाला उत्तमोत्तम (अतमेरुः) ग्लानिरहित व श्रद्धावान (प्रजा) संतती (भूयात्) लाभो. मी परमेश्‍वर (त्वा) त्या भौतिक अग्नीला (एकताय) (द्विताय) (त्रिताय) निर्मळ प्राप्ती सुखाकरितां, वायु आणि जल या दोन्हीच्या शुद्धीकरिता आणि तीन प्रकारच्या यज्ञामधे हव्य पदार्थांचा प्राप्तीकरिता (संयौमि) तुमच्याशी संयुक्त करीत आहे अर्थात् यज्ञाकरिता तुम्हांस अग्नी हव्य आदी पदार्थांचे दान करीत आहे. ॥23॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ईश्‍वर सर्व मानवांना आज्ञा व आशीर्वाद देऊन उपदेश करीत आहे की कोणीही विद्याग्रहणापासून भीती मानून दूर राहू नये. तसेच या सत्कार्यांपासून विचलित होऊ नये. कारण की वर्णित यज्ञादी श्रेष्ठकर्मांमुळेच सर्व माणसांना उत्तम संतती प्राप्त होते आणि यज्ञामुळेच शारीरिक, वाचिक मानसिक सुखांची निश्‍चल रुपाने प्राप्ती होणे शक्य आहे. ॥23॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Be fearless and do not waver as to the performance of yajna. Let the offspring of the performer of this yajna be excellent, faithful and free from weakness. We whole heartedly take recourse to yajnas for the realisation of the one Lord, for the purification of air and water and for getting the blessings of mother, father and preceptor.

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    Meaning

    Fear not, be firm in faith. Yajna is an act of faith. May the yajaman’s children and other people be faithful. Keep it up for three: fire, action and the materials; for the purification of air and rain; and for the sole aim of happiness and well-being.

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    Translation

    Don't be frightened; don’t waver. (1)May the sacrificer be not depressing and the offspring of the sacrificer also be not languid. (2) I dedicate you for trinity. (3) You for duality. (4) You for unity. (5)

    Notes

    Atameruh, तमु ग्लानो;तमेरु, оne that is depressed. Atameru, not depressed. Trita, trinity. An ancient vedic deity. According to legend, once the fire deity, being frightened due to some reasons hid himself in the waters. Other deities searched for and caught him. He discharged his semen in the waters and from that were born Trita,Dvita and Ekata, the deities. They accompanied other deities and were allowed share in the offerings. Dvita, duality. Ekata, unity.

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    बंगाली (1)

    विषय

    নিঃশঙ্কতয়া সর্বৈঃ স য়জ্ঞোऽনুষ্ঠাতব্য ইত্যুপদিশ্যতে ॥
    নিঃশঙ্ক হইয়া উক্ত যজ্ঞ সকলকে করা উচিত, এই বিষয়ে উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে বিদ্বান্ পুরুষগণ! তোমরা (অতমেরুঃ) শ্রদ্ধালু হইয়া (য়জমানস্য) যজমানের যজ্ঞের অনুষ্ঠান হইতে (মা ভেঃ) ভয় করিও না এবং তাহা হইতে (মা সংবিক্থা) পলায়ন করিও না । এই প্রকার (য়জ্ঞঃ) যজ্ঞ করিয়া তোমাদিগের উত্তম হইতে উত্তম (অতমেরুঃ) গ্লানিরহিত শ্রদ্ধাবান্ (প্রজা) সন্তান (ভূয়াৎ) প্রাপ্ত হউক এবং আমি (ত্বা) ভৌতিক অগ্নিকে উক্ত গুণযুক্ত তথা (একতায়) সত্য সুখ হেতু (দ্বিতীয়) বায়ু তথা বৃষ্টি জলের শুদ্ধি তথা (ত্রিতায়) অগ্নি কর্ম এবং হবি হওয়ার জন্য (সংয়ৌমি) স্থির করি ॥ ২৩ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- ঈশ্বর সকল মনুষ্যদিগকে আজ্ঞা ও উপদেশ প্রদান করিতেছেন যে, কোনও মনুষ্যকে যজ্ঞ, সদাচার এবং বিদ্যা গ্রহণে ভীত বা পলায়নপর কখনও হওয়া উচিত নহে । কেননা মনুষ্যদিগের উক্ত যজ্ঞাদি ভাল ভাল কর্ম দ্বারাই উত্তমোত্তম সন্তান, শারীরিক, বাচিক ও মানসিক বিবিধ প্রকারের নিশ্চল সুখ প্রাপ্ত হইতে পারে ॥ ২৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    মা ভে॒র্মা সংবি॑ক্থা॒ऽঅত॑মেরুর্য়॒জ্ঞোऽত॑মেরু॒র্য়জ॑মানস্য প্র॒জা ভূ॑য়াৎত্রি॒তায়॑ ত্বা দ্বি॒তায়॑ ত্বৈক॒তায়॑ ত্বা ॥ ২৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    মা ভের্মেত্যস্যর্ষিঃ স এব । অগ্নির্দেবতা । বৃহতী ছন্দঃ । মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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