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यजुर्वेद अध्याय - 1

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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 6
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - प्रजापतिर्देवता छन्दः - आर्ची पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
    4

    कस्त्वा॑ युनक्ति॒ स त्वा॑ युनक्ति॒ कस्मै॑ त्वा युनक्ति॒ तस्मै॑ त्वा युनक्ति। कर्म॑णे वां॒ वेषा॑य वाम्॥६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कः। त्वा॒। यु॒न॒क्ति॒। सः। त्वा॒। यु॒न॒क्ति॒। कस्मै॑। त्वा॒। यु॒न॒क्ति॒। तस्मै॑। त्वा॒। यु॒न॒क्ति॒। कर्म्म॑णे। वां॒। वेषा॑य। वा॒म् ॥६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कस्त्वा युनक्ति स त्वा युनक्ति कस्मै त्वा युनक्ति तस्मै त्वा युनक्ति । कर्मणे वाँवेषाय वाम् ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कः। त्वा। युनक्ति। सः। त्वा। युनक्ति। कस्मै। त्वा। युनक्ति। तस्मै। त्वा। युनक्ति। कर्म्मणे। वां। वेषाय। वाम्॥६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    केन सत्यमाचरितुमसत्यं त्यक्तुमाज्ञा दत्तेत्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे मनुष्य! कस्त्वां युनक्ति स त्वां युनक्ति कस्मै त्वां युनक्ति तस्मै त्वां युनक्ति स एव वां कर्मणे नियोजयति। एवं च वां वेषायाज्ञापयति॥६॥

    पदार्थः

    (कः) को हि सुखस्वरूपः (त्वा) क्रियानुष्ठातारं मनुष्यं पुरुषार्थे (युनक्ति) नियुक्तं करोति (सः) परमेश्वरः (त्वा) विद्यादिशुभगुणानां ग्रहणे विद्यार्थिनं विद्वांसं वा (युनक्ति) योजयति। अत्र सर्वत्रान्तर्गतो ण्यर्थः (कस्मै) प्रयोजनाय (त्वा) त्वां सुखमिच्छुकम् (युनक्ति) योजयति (तस्मै) सत्यव्रताचरणाय यज्ञाय (त्वा) धर्मं प्रचारयितुमुद्योगिनम् (युनक्ति) योजयति (कर्मणे) पूर्वोक्ताय यज्ञाय (वाम्) कर्त्तृकारयितारौ (वेषाय) सर्वशुभगुणविद्याव्याप्तये (वाम्) अध्येत्र्यध्यापकौ॥ अयं मन्त्रः (शत॰१।१।१३-२२; १.१.२.१) व्याख्यातः॥६॥

    भावार्थः

    अत्र प्रश्नोत्तराभ्यामीश्वरो जीवेभ्य उपदिशति। कश्चित् कंचित्प्रति ब्रूते। को मां सत्यक्रियायां प्रवर्त्तयतीति सोऽस्योत्तरं ब्रूयात्। ईश्वरः पुरुषार्थक्रियाकरणाय त्वामादिशतीति। एवं कश्चिद्विद्यार्थी विद्वांसं प्रति पृच्छेत् को मदात्मन्यन्तर्यामिरूपतया सत्यं प्रकाशयतीति। स उत्तरं दद्यात् सर्वव्यापको जगदीश्वर इति। कस्मै प्रयोजनायेति केनचित् पृच्छ्यते। सुखप्राप्तये परमेश्वरप्राप्तये चेत्युत्तरं ब्रूयात्। पुनः कस्मै प्रयोजनायेति मां नियोजयतीति पृच्छ्यते। सत्यविद्याधर्मप्रचारायेत्युत्तरं ब्रूयात्। आवां किं करणायेश्वर उपदिशति। यज्ञानुष्ठानायेति परस्परमुत्तरं ब्रूयाताम्। पुनः स किमाप्तय आज्ञापयतीति। सर्वविद्यासुखेषु व्याप्तये तत्प्रचारायेत्युत्तरं ब्रूयात्। मनुष्यैर्द्वाभ्यां प्रयोजनाभ्यां प्रवर्त्तितव्यम्। एकमत्यन्तपुरुषार्थशरीरारोग्याभ्यां चक्रवर्त्तिराज्यश्रीप्राप्तिकरणम्। द्वितीयं सर्वा विद्याः सम्यक् पठित्वा तासां सर्वत्र प्रचारीकरणं चेति। नैव केनचिदपि कदाचित्पुरुषार्थं त्यक्त्वाऽलस्ये स्थातव्यमिति॥६॥

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    विषयः

    केन सत्यमाचरितुमसत्यं त्यक्तुमाज्ञा दत्तेत्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    -(युनक्ति) इस मन्त्र में सर्वत्र 'युनक्ति' पद में प्रयोजक अर्थ के लिए अन्तर्भावित ण्यर्थ है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (१। १। १। १३ तथा १। १। २। १) में की गई है। १।६॥

    सपदार्थान्वयः--हे मनुष्य ! कः को हि सुखस्वरूपः [त्वा]=त्वां क्रियाऽनुष्ठातारं मनुष्यं पुरुषार्थे युनक्ति नियुक्तं करोति ? सः परमेश्वरः [त्वा]=त्वां विद्यादिशुभगुणानां ग्रहणे विद्यार्थिनं विद्वांसं वा युनक्ति योजयति।

    कस्मै प्रयोजनाय [त्वा]=त्वां सुखमिच्छुकं युनक्ति योजयति ? तस्मै सत्यव्रताऽऽचरणाय यज्ञाय [त्वा]= त्वां धर्म्मं प्रचारयितुमुद्योगिनं युनक्ति योजयति।

    स एव वां कर्ताकारयितारौ कर्मणे पूर्वोक्ताय (१-२) यज्ञाय नियोजयति, एवं च वाम् अध्येत्रध्यापकौ वेषाय सर्वशुभगुणविद्याव्याप्तये आज्ञापयति॥ १।६॥

    पदार्थः

    (कः) को हि सुखस्वरूपः (त्वा) क्रियानुष्ठातारं मनुष्यं पुरुषार्थे (युनक्ति) नियुक्तं करोति (सः) परमेश्वरः (त्वा) विद्यादिशुभगुणानां ग्रहणे विद्यार्थिनं विद्वांसं वा (युनक्ति) योजयति। अत्र सर्वत्रान्तर्गतो ण्यर्थः प्रयोजनाय (त्वा) त्वां सुखमिच्छुकम् (युनक्ति) योजयति (तस्मै) सत्यव्रताचरणाय यज्ञाय (त्वा) धर्मं प्रचारयितुमुद्योगिनम् (युनक्ति) योजयति (कर्मणे) पूर्वोक्ताय यज्ञाय (वाम्) कर्त्ताकारयितारौ (वेषाय) सर्वशुभगुणविद्याव्याप्तये (वाम् ) अध्येत्र्यध्यापकौ॥ अयं मंत्रः श०। १। १। १३। व्याख्यातः॥ ६॥

    भावार्थः

    [कस्त्वा युनक्ति, स त्वा युनक्ति]

    भावार्थः—अत्र प्रश्नोत्तराम्यामीश्वरो जीवेभ्य उपदिशति--कश्चित्‌ कंचित्‌ प्रति ब्रूते -– को मां प्रवर्त्तयतीति ? सोऽस्योत्तरं' ब्रूयात्--ईश्वर: पुरुषार्थक्रियाकरणाय त्वामादिशतीति। एवं कश्चिद्‌ विद्यार्थी विद्वांसं प्रति पृच्छेत्—को मदात्मन्यन्तर्यामिरूपतया सत्यं प्रकाशयतीति। स उत्तरं दद्यात्‌--सर्वव्पापको जगदीश्वर इति।

     

    [कस्मै त्वा युनक्ति, तस्मै त्वा युनक्ति]

    कस्मै प्रयोजनायेति केनचित् पृच्छयते ? सुखप्राप्तये परमेश्वरप्राप्तये चेत्युत्तरं ब्रूयात्। पुनः कस्मै प्रयोजनाय मां नियोजयतीति पृच्छयते? सत्यविद्याधर्मप्रचारायेत्युत्तरं ब्रूयात्।

    [ स एव वां कर्मणे नियोजयति एवं च वां वेषायाज्ञापयति]

    आवां किं करणायेश्वर उपदिशति ? यज्ञानुष्ठानायेति परस्परमुत्तरं ब्रूयाताम्। पुनः स किमाप्तय आज्ञापयतीति? सर्वविद्यासुखेषु व्याप्तये तत्प्रचारायेत्युत्तरं ब्रूयात्।

    [ कर्मणे, वेषाय]

    मनुष्यैर्द्वाभ्यां प्रयोजनाभ्यां प्रवर्त्तितव्यम्--एकमत्यन्तपुरुषार्थशरीरारोग्याभ्यां चक्रवर्त्तिराज्य- श्रीप्राप्तिकरणम्। द्वितीयं--सर्वा विद्याः सम्यक् पठित्वा तासां सर्वत्र प्रचारीकरणं चेति। नैव केन- चिदपि कदाचित्पुरुषार्थं त्यक्त्वाऽऽलस्ये स्थातव्यमिति॥ १।६॥

    भावार्थ पदार्थः

    कः=ईश्वरः। युनक्ति आदिशति। कस्मै=कस्मै प्रयोजनाय। तस्मै=सुखप्राप्तये, परमेश्वरप्राप्तये च, सत्यविद्याधर्मप्रचाराय। कर्मणे=यज्ञानुष्ठानाय, अत्यन्तपुरुषार्थशरीरारोग्याभ्यां चक्रवर्त्तिराज्यश्रीप्राप्तिकरणाय। वेषाय=सर्वविद्यासुखेषु व्याप्तये, सर्वा विद्याः सम्यक् पठित्वा तासां सर्वत्र प्रचारीकरणाय॥

    विशेषः

    परमेष्ठी प्रजापतिः। प्रजापति:=परमेश्वरः॥ आर्चीपंक्तिः। पंचम:॥

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    हिन्दी (5)

    विषय

    किसने सत्य करने और असत्य छोड़ने की आज्ञा दी है, सो अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    (कः) कौन सुख स्वरूप (त्वा) तुझको अच्छी-अच्छी क्रियाओं के सेवन करने के लिये (युनक्ति) आज्ञा देता है। (सः) सो जगदीश्वर (त्वा) तुम को विद्या आदिक शुभ गुणों के प्रकट करने के लिये विद्वान् वा विद्यार्थी होने को (युनक्ति) आज्ञा देता है। (कस्मै) वह किस-किस प्रयोजन के लिये (त्वा) मुझ और तुझ को (युनक्ति) युक्त करता है, (तस्मै) पूर्वोक्त सत्यव्रत के आचरण रूप यज्ञ के लिये (त्वा) धर्म के प्रचार करने में उद्योगी को (युनक्ति) आज्ञा देता है, (सः) वही ईश्वर (कर्मणे) उक्त श्रेष्ठ कर्म करने के लिये (वाम्) कर्म करने और कराने वालों को नियुक्त करता है, (वेषाय) शुभ गुण और विद्याओं में व्याप्ति के लिये (वाम्) विद्या पढ़ने और पढ़ाने वाले तुम लोगों को उपदेश करता है॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में प्रश्न और उत्तर से ईश्वर जीवों के लिये उपदेश करता है। जब कोई किसी से पूछे कि मुझे सत्य कर्मों में कौन प्रवृत्त करता है? इसका उत्तर ऐसा दे कि प्रजापति अर्थात् परमेश्वर ही पुरुषार्थ और अच्छी-अच्छी क्रियाओं के करने की तुम्हारे लिये वेद के द्वारा उपदेश की प्रेरणा करता है। इसी प्रकार कोई विद्यार्थी किसी विद्वान् से पूछे कि मेरे आत्मा में अन्तर्यामिरूप से सत्य का प्रकाश कौन करता है? तो वह उत्तर देवे कि सर्वव्यापक जगदीश्वर। फिर वह पूछे कि वह हमको किस-किस प्रयोजन के लिये उपदेश करता और आज्ञा देता है? उसका उत्तर देवे कि सुख और सुखस्वरूप परमेश्वर की प्राप्ति तथा सत्य विद्या और धर्म के प्रचार के लिये। मैं और आप दोनों को कौन-कौन काम करने के लिये वह ईश्वर उपदेश करता है? इसका परस्पर उत्तर देवें कि यज्ञ करने के लिये। फिर वह कौन-कौन पदार्थ की प्राप्ति के लिये आज्ञा देता है? इसका उत्तर देवें कि सब विद्याओं की प्राप्ति और उनके प्रचार के लिये। मनुष्यों को दो प्रयोजनों में प्रवृत्त होना चाहिये अर्थात् एक तो अत्यन्त पुरुषार्थ और शरीर की आरोग्यता से चक्रवर्त्ती राज्यलक्ष्मी की प्राप्ति करना और दूसरे सब विद्याओं को अच्छी प्रकार पढ़ के उनका प्रचार करना चाहिये। किसी मनुष्य को पुरुषार्थ को छोड़ के आलस्य में कभी नहीं रहना चाहिये॥६॥

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    विषय

    किसने सत्य ग्रहण करने और असत्य छोड़ने की आज्ञा दी है, सो इस मन्त्र में उपदेश किया है।।

    भाषार्थ

    हे मनुष्य! (कः) कौन सुखस्वरूप (त्वा) कर्म का अनुष्ठान करने वाले तुझ मनुष्य को पुरुषार्थ करने की (युनक्ति) आज्ञा देता है? (सः) वह परमेश्वर ही (त्वा) विद्यादि शुभ गुणों के ग्रहण करने के लिए तुझ विद्यार्थी वा विद्वान् को (युनक्ति) आज्ञा देता है।

    (कस्मै) किस प्रयोजन के लिए (त्वा) तुझ सुख को इच्छुक विद्यार्थी को वह (युनक्ति) आज्ञा देता है? (तस्मै) सत्याचरणस्वरूप यज्ञ करने के लिए (त्वा) धर्मप्रचार में पुरुषार्थी तुझको वह ( युनक्ति) आज्ञा देता  है।और वही ईश्वर (वाम्) कर्म करने और कराने वालों को (कर्मणे) पूर्वोक्त यज्ञकर्म करने के लिए आज्ञा देता है तथा (वाम्) विद्या पढ़ने-पढ़ाने वाले लोगों को (वेषाय) सब शुभ गुण एवं विद्याप्राप्ति के लिए आज्ञा देता है॥ १॥६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में प्रश्न-उत्तर के द्वारा ईश्वर जीवों को उपदेश करता है--कोई किसी से पूछता है--मुझे सत्यकर्म में कौन प्रवृत्त करता है? वह इसका उत्तर देवे--ईश्वर पुरुषार्थ एवं कर्म करने के लिए तुझे आदेश देता है। इसी प्रकार कोई विद्यार्थी विद्वान से पूछे--कौन मेरी आत्मा में अन्तर्यामी रूप से सत्य को प्रकाशित करता है? विद्वान उत्तर देवे--सर्वव्यापक जगदीश्वर। 
    कोई पूछता है कि किस प्रयोजन के लिए सत्य को प्रकाशित करता है? उसको उत्तर देवे--सुख और परमेश्वर की प्राप्ति के लिए। फिर कोई पूछता है कि वह किस प्रयोजन के लिए मुझे आज्ञा देता है? उसको उत्तर देवे--सत्य विद्या और धर्म का प्रचार करने के लिए।
    हम दोनों को क्या करने के लिए ईश्वर उपदेश करता है? इसका परस्पर उत्तर देवें कि यज्ञ करने के लिये। फिर वह किस पदार्थ की प्राप्ति के लिये आज्ञा देता है? उसको उत्तर देवे कि सब विद्या और सब सुखों की प्राप्ति के लिए तथा उनके प्रचार के लिए। 
    मनुष्यों को दो प्रयोजनों के लिए प्रवृत्त होना चाहिये, पहला--अत्यन्त पुरुषार्थ और शरीर की आरोग्यता से चक्रवर्त्तिराज्य-रूपी लक्ष्मी की प्राप्ति करना। दूसरा--सब विद्याओं को अच्छी प्रकार पढ़कर उनका सर्वत्र प्रचार करना। किसी मनुष्य को कभी भी पुरुषार्थ छोड़कर आलस्य में नहीं पड़े रहना चाहिये॥१।६॥

    भाष्यसार

    ईश्वर--यहां सुखस्वरूप होने से ईश्वर को ‘कः’ नाम से कहा गया है। ‘क’ को ही प्रजापति कहते हैं। वह प्रजापति ईश्वर ही मनुष्य को सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने की आज्ञा देता है। 
    ‘‘सत्य को ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये’’ (आर्य समाज का चौथा नियम) ॥

    विशेष

    परमेष्ठी प्रजापतिः। प्रजापतिः =परमेश्वरः।। आर्चीपंक्तिः। पञ्चमः।। 

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    विषय

    आदेशक कौन ?

    पदार्थ

    गत मन्त्र में सत्य के व्रत लेने का उल्लेख है। प्रस्तुत मन्त्र में कहते हैं कि प्रभु ही सदा सत्य बोलने की प्रेरणा दे रहे हैं। 

    १. ( कः ) = वे सुखस्वरूप प्रभु ( त्वा ) = तुझे ( युनक्ति ) = सत्य बोलने के लिए प्रेरित करते हैं, क्योंकि सत्य ही मानव जीवन को स्वर्गमय बनाता है। ( सः ) = वे सदा से प्रसिद्ध प्रभु ( त्वा ) = तुझे ( युनक्ति ) = इस सत्य के लिए प्रेरित कर रहे हैं। 

    २. ( कस्मै ) = सुख-प्रप्ति के लिए वे प्रभु ( त्वा ) = तुझे ( युनक्ति ) = कर्मों में व्यापृत करते हैं, ( तस्मै ) = उस उत्कृष्ट लोक की प्राप्ति के लिए वे ( त्वा ) = तुझे ( युनक्ति ) = सत्य में प्रेरित करते हैं। सत्य से ‘प्रेय व श्रेय’ दोनों की ही साधना होती है। वैशेषिक दर्शन के शब्दों में सत्य ही ‘अभ्युदय व निःश्रेयस’ को सिद्ध करता है, अतः सत्य ही धर्म है।

    ३. ( वाम् ) = हे पति व पत्नी! आप दोनों को वे प्रभु ( कर्मणे ) = कर्म के लिए प्रेरित कर रहे हैं। निरन्तर कर्म में लगे रहना ही ‘सत्य’ है, आलस्य व अकर्मण्यता ‘असत्य’ है। आत्मा का अर्थ ‘अत सातत्यगमने’ = निरन्तर गमन है। क्रिया ही आत्मा का अध्यात्म व स्वभाव है। क्रिया गई और आत्मत्व नष्ट हुआ।

    ४. ( वेषाय ) = [ विष्लृ व्याप्तौ ] व्याप्ति के लिए, व्यापक बनने के लिए, उदार मनोवृत्ति को धारण करने के लिए वे प्रभु ( वाम् ) = आपको प्ररेणा देते हैं। संकुचित मनोवृत्ति में असत्य का समावेश हो जाता है, विशालता में ही पवित्रता व सत्य की स्थिति है।

    एवं, मन्त्र के पूर्वाद्ध में कहा है कि [ क ] सुखस्वरूप, सदा से प्रसिद्ध, स्वयम्भू, सत्यस्वरूप परमात्मा ही सत्य ही प्रेरणा दे रहे हैं तथा [ ख ] वे प्रभु सत्य की प्रेरणा इस लोक को सुखमय बनाने तथा परलोक को सिद्ध करने के लिए दे रहे हैं। मन्त्र के उत्तरार्द्ध में कहा है कि इस सत्य की प्रतिष्ठा के लिए क्रियाशीलता व उदारता को अपनाना आवश्यक है।

    भावार्थ

    भावार्थ — [ क ] प्रभु सत्य की प्रेरणा दे रहे हैं [ ख ] इसी से दोनों लोकों का कल्याण सिद्ध होता है, [ ग ] सत्य की प्रतिष्ठा के लिए हम क्रियाशील व उदार बनें।

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    विषय

    सर्वनियोजक प्रभु ।

    भावार्थ

    [ प्रश्न ] हे पुरुष ! तू जानता है कि ( त्वा ) तुझको कार्यों में ( कः ) कौन ( युनक्ति ) प्रेरित करता है ? [उत्तर ] हे पुरुष ! (त्वा ) तुझको (सः) वह परमेश्वर ही ( युनक्ति ) उत्तम कार्य और सन्मार्ग में प्रेरित करता है । [ प्र० ] ( त्वा ) तुझ को वह परमेश्वर ( करमै ) किस  प्रयोजन के लिये ( युनक्ति ) नियुक्त करता है ? [ उ० ] ( त्वा ] (त्वा) तुझ को वह परमेश्वर (तस्मै ) उस उस , उत्तम २ कार्य सम्पादन के लिये ( युनक्ति )नियुक्त करता है ।हेस्त्रीपुरुषो!   और गुरुशिष्यो ! वह परमेश्वर (वाम ) तुम दोनों को ( कर्मणे ) उत्तम कर्म करने के लिये प्रेरित करता है । और वह ( वाम् ) तुम दोनों को ( वेषाय ) सर्वशुभगुणों के प्राप्त करने और पूर्ण जीवन प्राप्त करने के लिये या सर्व व्यापक परमात्मा को प्राप्त करने के लिये ( युनक्ति ) नियुक्त करता है । शत० १ । १ । १ । ११-२२ ।। १ । १ । २ । १ ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    स्रुक् शूर्पश्च् प्रजापतिर्वा देवता । आर्ची पंक्ति: ! पंचमः स्वरः ॥

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    विषय

    सर्वनियोजक प्रभु ।

    भावार्थ

    [ प्रश्न ] हे पुरुष ! तू जानता है कि ( त्वा ) तुझको कार्यों में ( कः ) कौन ( युनक्ति ) प्रेरित करता है ? [उत्तर ] हे पुरुष ! (त्वा ) तुझको (सः) वह परमेश्वर ही ( युनक्ति ) उत्तम कार्य और सन्मार्ग में प्रेरित करता है । [ प्र० ] ( त्वा ) तुझ को वह परमेश्वर ( करमै ) किस  प्रयोजन के लिये ( युनक्ति ) नियुक्त करता है ? [ उ० ] ( त्वा ) तुझ को वह परमेश्वर (तस्मै ) उस उस , उत्तम २ कार्य सम्पादन के लिये ( युनक्ति ) नियुक्त करता है ।हे स्त्रीपुरुषो! और गुरुशिष्यो ! वह परमेश्वर ( वाम ) तुम दोनों को ( कर्मणे ) उत्तम कर्म करने के लिये प्रेरित करता है । और वह (वाम्) तुम दोनों को (वेषाय ) सर्वशुभगुणों के प्राप्त करने और पूर्ण जीवन प्राप्त करने के लिये या सर्व व्यापक परमात्मा को प्राप्त करने के लिये ( युनक्ति ) नियुक्त करता है । शत० १ । १ । १ । ११-२२ ।। १ । १ । २ । १ ॥ 

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    स्रुक् शूर्पश्च प्रजापतिर्वा देवता । आर्ची पंक्ति: । पंचमः स्वरः ॥

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    या मंत्रात ईश्वराने प्रश्नोत्तर रूपाने जीवाला उपदेश केलेला आहे. जर एखाद्याने प्रश्न विचारला की, मला सत्याने वागण्यास कोण प्रवृत्त करते? तर त्याने उत्तर दिले पाहिजे की, अर्थात प्रजापती परमेश्वर वेदांद्वारे उपदेश करून पुरुषार्थाने सत्यकर्म करण्याची प्रेरणा देतो. याचप्रकारे एखाद्या विद्यार्थ्याने एखाद्या विद्वानास विचारावे की माझ्या आत्म्यामध्ये सत्याचा प्रकाश कोण करतो? तर त्याने उत्तर द्यावे की सर्वव्यापक ईश्वरच अन्तःकरणात प्रकाश पाडतो. पुन्हा त्याने प्रश्न विचारावा की तो आम्हाला कोणकोणत्या उद्दिष्टांसाठी उपदेश करतो व आज्ञा देतो? तर असे उत्तर दिले पाहिजे की, सुखासाठी व सुखस्वरूप परमेश्वराची प्राप्ती, सत्यविद्या व धर्मप्रचार यासाठी. आपल्या दोघांना (प्रश्नोत्तर करणाऱ्यांना) कोणकोणते कार्य करण्यासाठी ईश्वर उपदेश करतो? तर त्याचे असे उत्तर द्यावे की सत्याचरणरूपी यज्ञ करण्यासाठी व विद्या प्राप्त करण्यासाठी आणि त्यांचा प्रसार व्हावा यासाठी. माणसांसमोर दोन उद्दिष्टे हवीत. एक असा की अत्यंत पुरुषार्थाने व निरोगी शरीराने चक्रवर्ती राज्याची प्राप्ती करणे आणि दुसरा उद्देश असा की सर्व विद्या चांगल्या प्रकारे शिकून त्यांचा प्रचार व प्रसार करणे. कोणत्याही माणसाने पुरुषार्थ सोडून आळशी राहता कामा नये.

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    विषय

    त्याचे ग्रहण आणि असत्याचा त्याग करण्याची आज्ञा कुणी दिली, पुढील मंत्रात या विषयी कथन केले आहे.

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - प्रश्‍नः- (कः) कोण (त्याम्) तुला चांगले, प्रशंसनीय कर्म करण्याची (युनक्ति) आज्ञा देतो? उत्तरः-(सः) तो जगदीश्‍वर (त्वा) तुला तुझ्यातील विद्या आदी शुभ गुणांच्या प्रकटीकरणासाठी, ज्ञानवान होण्यासाठी अथवा विद्यार्थी होण्यासाठी (युनक्ति) आज्ञा देतो. प्रश्‍नः- तो (कस्मै) कोण-कोणत्या प्रयोजनासाठी (त्वा) तुला आणि मलाही (युनक्ति) प्रवृत्त करतो? उत्तरः- (तस्मै) पूर्वी सांगितलेल्या सत्य व्रताचे जे आचरण म्हणजेच यज्ञ, त्यासाठी (त्वा) धर्म-प्रचारासाठी उद्युक्त असलेल्या तुला (युनक्ति) आज्ञा देतो (सः) तोच ईश्‍वर (कर्म्मणे) पूर्वोक्त श्रेष्ठ कर्म करण्यासाठी (वाम्) दोघांना म्हणजे श्रेष्ठ कर्म करणार्‍याला आणि करवून घेणार्‍याला आज्ञा देतो, नियुक्त करतो. तोच ईश्‍वर (वेषाय) शुभ गुरांच्या आणि विद्यांच्या प्रसारासाठी (वां) विद्या शिकणार्‍या आणि शिकविणार्‍या अशा तुम्हां दोघांना प्रेरित करतो. तुम्हांस श्रेष्ठ कर्म करण्याची आज्ञा देतो. ॥6॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात प्रश्‍नोत्तराच्या रूपाने परमेश्‍वराने जीवांना उपदेश केला आहे. उदाहरणार्थ-कोणी कोणाला विचारतो-‘कोण मला सत्कर्म करण्यासाठी प्रवृत्त करतो?’ तेव्हां उत्तर या प्रमाणे द्यावे ‘तो प्रजापति म्हणजे परमेश्‍वरच तुम्हांला वेदाच्या उपदेशाच्या माध्यमातून पुरुषार्थ करण्याची आणि उत्तम चांगले कर्म करण्याची प्रेरणा देतो. त्याचप्रमाणे एक विद्यार्थी कोणा विद्वानास प्रश्‍न विचारतो-‘कोण आहे जो अंतर्यामीरूपाने माझ्या आत्म्यामधे सत्याचा प्रकाश करतो?’ तेव्हां विद्वानांने उत्तर द्यावे ‘सर्वव्यापक जगदीश्‍वर सत्याचा प्रकाश देतो? नंतर प्रश्‍नकर्त्त्याने पुन्हा विचारावे ‘तो परमेश्‍वर आम्हांला कोण-कोणत्या प्रयोजनाासाठी उपदेश करतो आणि आज्ञा देतो?’ त्याचे उत्तर या प्रमाणे द्यावे-‘सुखाच्या प्राप्तीकरिता, सुखस्वरूप परमेश्‍वराच्या प्राप्तीकरीता आणि सत्य-विद्या व सत्य-धर्माच्या प्रसाराकरिता? प्रश्‍नः- तो ईश्‍वर मला आणि तुम्हांला कोणते कर्म करण्यासाठी उपदेश देतो? त्याचे उत्तर परस्पर असे द्यावे की-‘यज्ञ करण्यासाठी.’ प्रश्‍नः- तो कोण-कोणत्या पदार्थांच्या प्राप्तीसाठी आज्ञा करतो? त्याचे उत्तर याप्रमाणे द्यावे की ‘सर्व विद्यांच्या प्रपातीसांठी आणि त्यांच्या प्रचारासाठी.’ - माणसाने दोन उद्दिष्टांकरिता प्रवृत्त व्हावे-एक म्हणजे उत्पन्न पुरुषार्थ करणे व शरीर निरोगी ठेवून चक्रवर्ती राज्यपदाची प्राप्ती करणे. दुसरे उद्दिष्टे म्हणजे सर्व विद्या चांगल्या प्रकारे अवगत करून त्यांचा प्रचार-प्रसार करणें. कोणाही माणसाने पुरुषार्थाचा त्याग करून आलस्याचे ग्रहण कदापी करू नये. ॥6॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Who prompts you to do good deeds? It is He, the Great Lord Who guides us on the path of virtue. Why does He do so ? For the performance of noble, virtuous deeds and the fulfilment of the vow of organisers, the teacher and the taught to be constantly engaged in doing good deeds and achieving fine qualities and true knowledge.

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    Meaning

    Who enjoins you? He enjoins you. Unto what does he enjoin you? Unto That/Himself (yajna) does He enjoin you. He enjoins you for karma (action) knowledge and virtue (through yajna).

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    Translation

    Who appoints you? He appoints you. For what does he appoint you? For that he appoints you. (1) Both of you, for work as well as dressing up and finish. (2)

    Notes

    Karmane, for work. Vesaya, for dressing up and finish, i. e. accomplishment. According to the traditionalists, here the ladle and the winnowing basket are addressed with the word vam, but to us, here man and his wife are exhorted to work and accomplish.

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    बंगाली (1)

    विषय

    কেন সত্যমাচরিতুমসত্যং ত্যক্তুমাজ্ঞা দত্তেত্যুপদিশ্যতে ॥
    কে সত্য করার ও অসত্য ত্যাগ করার আজ্ঞা প্রদান করিয়াছেন উহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে উপদেশ করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- (কঃ) কে (ত্বাম্) তোমাকে ভাল-ভাল ক্রিয়া সেবন করিবার জন্য (য়ুনক্তি) আজ্ঞা প্রদান করেন? (সঃ) সেই জগদীশ্বর (ত্বা) তোমাকে বিদ্যাদি শুভ গুণসকল প্রকাশ করিবার জন্য বিদ্বান্ অথবা বিদ্যার্থী হওয়ার জন্য (য়ুনক্তি) আজ্ঞা প্রদান করেন । (কস্মৈ) তিনি কোন্ কোন্ প্রয়োজন হেতু (ত্বা) আমাকে ও তোমাকে (য়ুনক্তি) যুক্ত করেন (তস্মৈ) পূর্বোক্ত সত্যব্রত আচরণ রূপ যজ্ঞ হেতু (ত্বা) ধর্ম প্রচার করিতে উদ্যোগী যে জন তাহাকে (য়ুনক্তি) আজ্ঞা প্রদান করেন । (সঃ) সেই ঈশ্বর (কর্ম্মণে) উক্ত শ্রেষ্ঠ কর্ম করিবার (বাম্) কর্ম করে যে জন এবং কর্ম করায় যে জন তাহাদেরকে নিযুক্ত করেন (বেষায়) শুভ গুণ ও বিদ্যাগুলিতে ব্যাপ্তি হেতু (বাম্) বিদ্যা পঠন ও পাঠনকারী তোমাদিগকে উপদেশ প্রদান করেন ॥ ৬ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে প্রশ্ন ও উত্তর সহ ঈশ্বর জীবদের জন্য উপদেশ প্রদান করেন । যখন কেউ কাহাকে জিজ্ঞাসা করে যে, আমাকে সত্য কর্মে কে প্রবৃত্ত করেন? ইহার উত্তর এমন দিবেন যে, প্রজাপতি অর্থাৎ পরমেশ্বরই পুরুষার্থ এবং ভাল ভাল ক্রিয়াগুলি করিতে তোমার জন্য বেদ দ্বারা উপদেশের প্রেরণা করিয়া থাকেন । সেইরূপ কোনও বিদ্যার্থী কোনও বিদ্বানের নিকট জিজ্ঞাসা করে যে, আমার আত্মায় অন্তর্য্যামী রূপ হইয়া সত্যের প্রকাশ কে করেন? তাহার উত্তর দিবেন যে, সর্বব্যাপক জগদীশ্বর । পুনরায় সে জিজ্ঞাসা করে যে, তিনি আমাদিগকে কী কী প্রয়োজন হেতু উপদেশ করেন এবং আজ্ঞা প্রদান করেন? তাহার উত্তর দিবেন যে, সুখ ও সুখস্বরূপ পরমেশ্বরের প্রাপ্তি তথা সত্য বিদ্যা ও ধর্ম প্রচারের জন্য । আমি ও আপনি উভয়কে কোন্ কোন্ কাজ করিবার জন্য সেই ঈশ্বর উপদেশ করিতেছেন? ইহার পরস্পর উত্তর দিবেন যে, যজ্ঞ করিবার জন্য । পুনরায় তিনি কোন্ কোন্ পদার্থ প্রাপ্তি হেতু আজ্ঞা প্রদান করেন, ইহার উত্তর দিবেন যে, সব বিদ্যার প্রাপ্তি এবং তাহার প্রচারের জন্য । মনুষ্যের দুটি প্রয়োজনে প্রবৃত্ত হওয়া উচিত অর্থাৎ প্রথম অত্যন্ত পুরুষার্থ এবং শরীরের আরোগ্যতা বলে চক্রবর্ত্তী রাজ্যলক্ষ্মী প্রাপ্ত করা এবং দ্বিতীয় সব বিদ্যাকে ভাল ভাবে পড়িয়া তাহার প্রচার করা কর্ত্তব্য । কোনও মনুষ্যের পুরুষার্থ ত্যাগ করিয়া আলস্যে কখনও থাকা উচিত নয় ॥ ৬ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    কস্ত্বা॑ য়ুনক্তি॒ স ত্বা॑ য়ুনক্তি॒ কস্মৈ॑ ত্বা য়ুনক্তি॒ তস্মৈ॑ ত্বা য়ুনক্তি ।
    কর্ম॑ণে বাং॒ বেষা॑য় বাম্ ॥ ৬ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    কস্ত্বেত্যস্য ঋষিঃ স এব । প্রজাপতির্দেবতা । আর্চীপংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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    उर्दू (1)

    Vishay

    کِس لئے بنایا ہم کو منُش پرمیشور نے؟

    Padarth

    (کاہ) کون(سُکھ سوروپ) (تو آم) تجھ کو اچھی اچھی کریاؤں کے سیون کرنے کے لئے(نیکتی) آگیا دیتا ہے؟ (سہ) وہ جگدیشور(توآ) تجھ کو وِدّیا آدی شبھ گُنوں کے پرگٹ کرنے کے لئے ودوان یا ودیارتھی ہونے کو(نیکتی) آگیا دیتا ہے(کسمئی توآ) وہ کس کس پریوجن کے لئے مجھ کو اور تجھ کو نیکتی یکت کرتا ہے جوڑتا ہے(تسمئی توآ نیکتی) پوروکت ستیہ برت کے آچرن[جو پہلے منتر میں کہا گیا ہے] روپ یگیّہ کے لئے دھرم کے پرچار کرنے میں اُدیوگی [پُرشارتھی منش] کو آگیا دیتا ہے۔ (سہ) وہی پرمیشور(کرمنے) اُکت شریشٹھ کرم[ستیہ برت آچرن یگیّہ اور دھرم کا وستار] کرنے کے لئے(وام) کرم کرنے اور کرانے والوں کو نیکت[مقرر] کرنا ہے(ویشائے) شُبھ گُن اور ودیاؤں میں ویاپتی کے لئے[عبور حاصل کرنے کو] (وام) وِدّیا پڑھنے اور پڑھانے والے تم کو اُپدیش کرتا ہے۔

    Bhavarth

    اِس منتر میں سوال اور جواب سے ایشور جیووں کے لئے اُپدیش کرتا ہے۔ جب کوئی کسی سے پُوچھے کہ مجھے ستیہ کرموں میں کون لگاتا ہے۔ پرورت کرتا ہے[پریرنا دیتا ہے] اس کا اُتر ایسا دے کہ پرجاپتی ارتھات پرمیشور ہی پرشارتھ اور اچھی اچھی کریاؤں کے کرنے کی تمہارے لئے وید کے دوارہ اُپدیش کی پریرنا کرتا ہے۔ اسی پرکار کوئی ودیارتھی کِسی وِدوان سے پُوچھے کہ میرے آتما میں انتریامی روپ سے ستیہ پرکاش کون کرتا ہے؟ تو وہ اُتر دیوے کہ سرویاپک جگدیشور پھر وہ پُوچھے کہ وہ ہم کو کس کس پروچں کے لئے اُپدیش کرتا اور آگیا دیتا ہے؟ اس کا اُتر دیوے کہ سُکھ اور سُکھ سوروپ پرمیشور کی پراپتی تتھا ستیہ وِدّیا اور دھرم کے پرچار کے لئے۔ میں آپ دونوں کو کون کون کام کرنے کے لئے وہ ایشور اُپدیش کرتا ہے۔ اس کا پرسپر اُتر دیویں کہ یگیّہ کرنے کے لئے پھر وہ کس کس پدارتھ کی پراپتی کے لئے آگیا دیتا ہے؟ اس کا اُتر دیویں کہ سب ودیاؤں کی پراپتی اور ان کے پرچار کے لئے منشیوں کو دو پریوجنوں میں پرورت ہونا چاہیئے۔ ارتھات ایک تو اتینت پرشارتھ اور شریر کی آروگیتا سے چکرورتی راجیہ لکشمی کو حاصل کرنا اور دُوسرے سب ودیاؤں کو اچھی پرکار پڑھ کر اُن کا وچا کرنا کسی منُش کو پرشارتھ چھوڑ کر آلسیہ میں کبھی نہیں رہنا چاہیئے۔ سُکھ شانتی کیلئے دھرم کی آوشکتا: کتنا سندر، مہتوپورن اور سپشٹ اُپدیش ہے وید رِچا کا۔ اس سُکھ سوروپ پِتا پرمیشور نے یہ سندر مانوَ شریر اُتم اُتم کرموں کے لئے دیا ہے۔ شبھ گُنوں کے پرکاش اور وِدّیا کے پرسار کے لئے دیا ہے جس سے اُس کا یہ سارا وشال پریوار سدا خوشحال رہے۔ جیسے ایک اچھا پِتا اپنے پریوار کو سُکھی بنانے کے لئے سمجھاتا بجھاتا رہتا ہے۔ اپنی سنتانوں کو پریوجن بتلایا۔ اس پرم پربُھو نے منُش جیون کا ستیہ آچرن یگیہ کرموں کا پھیلا دھرم کا پرچار اور وستار اس لئے اگر کوئی سنسار میں پھیلے بوئے دُکھ کلیش جہالت پاکھنڈ اور بُرائیوں کو دیکھ کر گھبرا کر لوگوں کو تلقین کرتا ہے کہ دھرم تو افیون ہے زہر تو نیسدیہہ وہ کوئی نیک رہنمائی نہیں کر رہا اور نہ ہی انسانیت کی خدمت بلکہ دُکھ اور جہالت سے تڑپتے ہوئے لگوں کو ایک چھوٹے سے گڑھے سے نکال کر ایک کشٹ اور کلیشوں سے بھرے ہوئے گہرے اور اندھے کنویں میں پھیکنے کا پریاس ہو رہا ہے جس سے وہ کبھی نکل ہی نہیں سکتے۔ دھرم آچرن ارتھات ستیہ نیائے وِدّیا اور یگیّہ کرم جو کہ ازلی اور ابدی ہے۔ جس کو دھارن کر منُش سماج کروڑوں ورش تک سُکھ اور شانتی کا گہوارہ بن کے رہا۔ اس سے چھڑا ایک نئے انجانے راستے پر چلانافی الواقعی گمراہ کرنے کے متراوف ہوگا۔ وہ کارل مارکس کا راستہ ہو یا کسی دوسرے کا۔ یہ ایک ایسیغلطی ہوگی جو کہ اس خوبصورت دنیا کو دوزخ بنا دیگی۔ ہم دیکھ رہے ہیں پربھو کو بُھول کر کس طرح ساڑپھونک- لوٹ مار اور ہنسا کا مارگ ہر طرف پھیل رہا ہے کیا اس سے سُکھ شانتی مل جائے گی؟

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