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यजुर्वेद अध्याय - 1

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  • यजुर्वेद - अध्याय 1/ मन्त्र 5
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्ची त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    5

    अग्ने॑ व्रतपते व्र॒तं च॑रिष्यामि॒ तच्छ॑केयं॒ तन्मे॑ राध्यताम्।इ॒दम॒हमनृ॑तात् स॒त्यमुपै॑मि॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑। व्र॒त॒प॒त॒ इति॑ व्रतऽपते। व्र॒तं। च॒रि॒ष्या॒मि॒। तत्। श॒के॒यं॒। तत्। मे॒। रा॒ध्यता॒म्। इ॒दं। अ॒हं। अनृ॑तात्। स॒त्यं। उप॑ ए॒मि॒ ॥५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम् । इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने। व्रतपत इति व्रतऽपते। व्रतं। चरिष्यामि। तत्। शकेयं। तत्। मे। राध्यताम्। इदं। अहं। अनृतात्। सत्यं। उप एमि॥५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 1; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    किंच तद्वाचो व्रतमित्युपदिश्यते॥

    अन्वयः

    हे व्रतपते अग्ने सत्यधर्मोपदेशकेश्वर! अहं यदिदमनृतात् पृथग्वर्त्तमानं सत्यं व्रतमाचरिष्यामि तन्मे मम भवता स्वकृपया राध्यतां संसेध्यतां यदुपैमि प्राप्नोमि यच्चानुष्ठातुं शकेयं तदपि सर्वं राध्यतां संसेध्यताम्॥५॥

    पदार्थः

    (अग्ने) हे सत्योपदेशकेश्वर! (व्रतपते) व्रतानां सत्यभाषणादीनां पतिः पालकस्तत्संबुद्धौ (व्रतम्) सत्यभाषणं सत्यकरणं सत्यमानं च (चरिष्यामि) अनुष्ठास्यामि (तत्) व्रतमनुष्ठातुम् (शकेयम्) यथा समर्थो भवेयम् (तत्) तस्यानुष्ठानं पूर्त्तिश्च (मे) मम (राध्यताम्) संसेध्यताम् (इदम्) प्रत्यक्षमाचरितुं सत्यं व्रतम् (अहम्) धर्मादिपदार्थचतुष्टयं चिकीर्षुर्मनुष्यः (अनृतात्) न विद्यते ऋतं यथार्थमाचरणं यस्मिन् तस्मान्मिथ्याभाषणान्मिथ्याकरणान्मिथ्यामानात् पृथग्भूत्वा (सत्यम्) यद्वेदविद्यया प्रत्यक्षादिभिः प्रमाणैः सृष्टिक्रमेण विदुषां सङ्गेन सुविचारेणात्मशुद्धया वा निर्भ्रमं सर्वहितं तत्त्वनिष्ठं सत्प्रभवं सम्यक् परीक्ष्य निश्चीयते तत्। सत्यं कस्मात् सत्सु तायते सत्प्रभवं भवतीति वा (निरु॰३.१३) (उप) क्रियार्थे (एमि) ज्ञातुं प्राप्तुमनुष्ठातुं प्राप्नोमि॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.१.१.१-६) व्याख्यातः ॥५॥

    भावार्थः

    ईश्वरेण सर्वमनुष्यैरनुष्ठेयोऽयं धर्म उपदिश्यते। यो न्यायः पक्षपातरहितः सुपरीक्षितः सत्यलक्षणान्वितः सर्वहिताय वर्त्तमान ऐहिकपारमार्थिकसुखहेतुरस्ति स एव सर्वमनुष्यैः सदाचरणीयः। यच्चैतस्माद्विरुद्धो ह्यधर्मः स नैव केनापि कदाचिदनुष्ठेयः। एवं हि सर्वैः प्रतिज्ञा कार्य्या। हे परमेश्वर! वयं वेदेषु भवदुपदिष्टमिमं सत्यधर्ममाचरितुमिच्छामः। येयमस्माकमिच्छा सा भवत्कृपया सम्यक् सिध्येत्। यतो वयमर्थकाममोक्षफलानि प्राप्तुं शक्नुयाम। यथा चाधर्मं सर्वथा त्यक्त्वाऽनर्थकुकामबन्धदुःखफलानि पापानि त्यक्तुं त्याजयितुं च समर्था भवेम। यथा भवान् सत्यव्रतपालकत्वाद् व्रतपतिर्वर्त्तते तथैव वयमपि भवत्कृपया स्वपुरुषार्थेन यथाशक्ति सत्यव्रतपालका भवेम। एवं सदैव धर्मं चिकीर्षवः सत्क्रियावन्तो भूत्वा सर्वसुखोपगताः सर्वप्राणिनां सुखकारकाश्च भवेमेति सर्वैः सदैवेषितव्यम्॥ शतपथब्राह्मणेऽस्य मन्त्रस्य व्याख्यायामुक्तं मनुष्याणां द्विविधमेवाचरणं सत्यमनृतं च तत्र ये वाङ्मनःशरीरैः सत्यमेवाचरन्ति ते देवाः। ये चैवानृतमाचरन्ति ते मनुष्या अर्थादसुरराक्षसाः सन्तीति वेद्यम्॥५॥

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    विषयः

    किंच तद्वाचो व्रतमित्युपदिश्यते॥

    सपदार्थान्वयः

    हे व्रतपते ! व्रतानाम्=सत्यभाषणादीनां पतिः=पालकस्तत्सम्बुद्धौ अग्ने! =सत्यधर्मोपदेशकेश्वर ! अहं धर्माऽऽदिपदार्थचतुष्टयं चिकीर्षुर्मनुष्यो यदिदं प्रत्यक्षमाचरितुं सत्यं व्रतम् अनृतात् न विद्यते ऋतं=यथार्थमाचरणं यस्मिन् तस्मान्मिथ्याभाषणान्मिथ्याकरणान्मिथ्यामानात् (पृथग्भूत्वा) पृथग्वर्त्तमानं सत्यं यद् वेदविद्यया, प्रत्यक्षादिभिः प्रमाणैः, सृष्टिक्रमेण, विदुषां सङ्गेन सुविचारेणाऽऽत्मशुद्धया वा निर्भ्रमं सर्वहितं तत्त्वनिष्ठं सत्प्रभवं सम्यक् परीक्ष्य निश्चीयते तद् व्रतं सत्यभाषणं सत्यकरणं सत्यमानं च आचरिष्यामि अनुष्ठास्यामि। तत् तस्यानुष्ठान पूर्तिश्च मे मम भवता स्वकृपया राध्यताम् संसेध्यताम्, यद् उमि प्राप्नोमि ज्ञातुं प्राप्तुमनुष्ठातुं प्राप्नोमि यच्चाऽनुष्ठातु शकेयं यथा समर्थो भवेयं, तदपि सर्व राध्यताम्=संसेध्यताम्॥ १।५॥

    पदार्थः

    (अग्ने) हे सत्योपदेशकेश्वर ! (व्रतपते) व्रतानां सत्यभाषणादीनां पतिः=पालकस्तत्संबुद्धौ (व्रतम्) सत्यभाषणं सत्यकरणं सत्यमानं च (चरिष्यामि) अनुष्ठास्यामि (तत्) व्रतमनुष्ठातुम् (शकेयम्) यथा समर्थो भवेयम् (तत्) तस्यानुष्ठानं पूर्त्तिश्च (मे) मम (राध्यताम्) संसेध्यताम् (इदम्) प्रत्यक्षमाचरितुं सत्यं व्रतम् (अहम्) धर्मादिपदार्थचतुष्टयं चिकीषुर्मनुष्यः (अनृतात्) न विद्यते ऋतं यथार्थमाचरणं यस्मिन् तस्मान्मिथ्याभाषणान् मिथ्याकरणान्मिथ्यामानात्पृथग्भूत्वा (सत्यम्) यद्वेदविद्यया प्रत्यक्षादिभिः प्रमाणैः सृष्टिक्रमेण विदुषां संगेन सुविचारेणात्मशुद्धया वा निर्भ्रमं सर्वहितं तत्त्वनिष्ठं सत्प्रभवं सम्यक् परीक्ष्य निश्चीयते तत्। सत्यं कस्मात् सत्सु तायते सत्प्रभवं भवतीति वा॥ निरु० ३। १३॥ (उपि) क्रियार्थे (एम) ज्ञातुं प्राप्तुमनुष्ठातुं प्राप्नोमि॥ अयं मन्त्रः श० १। १। १। २-४ व्याख्यातः॥५॥

    भावार्थः

     [हे-अग्ने! =सत्यधर्मोपदेशकेश्वर ! अहं यदिदमनृतात् पृथग्वर्तमानं सत्यं व्रतमाचरिष्यामि]

    ईश्वरेण सर्वमनुष्यैरनुष्ठेयोऽयं धर्म उपदिश्यतेयो न्यायः, पक्षपातरहितः सुपरीक्षितः, सत्यलक्षणान्वितः, सर्वहिताय वर्त्तमान, ऐहिकपारमार्थिकसुखहेतुरस्ति स एव धर्मः सर्वमनुष्यैः सदाचरणीयः। यश्चैतस्माद् विरुद्धो ह्यधर्मः स नैव केनापि कदाचिदनुष्ठेयः। एवं हि सर्वैः प्रतिज्ञा कार्या--

    [ तन्मे=मम भवता स्वकृपया राध्यताम्=संसेध्यताम्]

    हे परमेश्वर ! वयं वेदेषु भवदुपदिष्टमिमं सत्यधर्ममाचरितुमिच्छामः। येयमस्माकमिच्छा सा

    भवत्कृपया सम्यक् सिध्येत्।

    [ यदुपैमि=प्राप्नोमि यच्चानुष्ठातुं शकेयं तदपि सर्वं राध्यताम् ]

    यतो वयमर्थकाममोक्षफलानि प्राप्तुं शक्नुयाम, यथा चाधर्म सर्वथा त्यक्त्वाऽनर्थकुकामबन्ध दुःख- फलानि पापानि त्यक्तुं त्याजयितुं च समर्था भवेम।

    [ व्रतपते!]

    यथा भवान् सत्यव्रतपालकत्वाद् व्रतपतिर्वर्तते तथैव वयमपि भवत्कृपया स्वपुरुषार्थेन यथाशक्ति सत्यव्रत पालका भवेम।

    एवं सदैव धर्म चिकीर्षवः सत्क्रियावन्तो भूत्वा सर्वसुखोपेताः सर्वप्राणिनां सुखकारकाश्च भवेमेति सर्वैः सदैवेष्टितव्यम्॥

    [ देवासुरभेदमाह--]

    शतपथब्राह्मणेऽस्य मन्त्रस्य व्याख्यायामुक्तं--मनुष्याणां द्विविधमेवाचरणं सत्यमनृतं च, तत्र ये वाङ्मनःशरीरै: सत्यमेवाचरन्ति ते देवाः। ये चैवानृतमाचरन्ति ते मनुष्या अर्थादसुरराक्षसाः सन्तीति वेद्यम्॥१।५॥

    विशेषः

    परमेष्ठी प्रजापतिः। अग्निः= ईश्वरः॥ आर्चीत्रिष्टुप्। धैवतः॥

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    हिन्दी (7)

    विषय

    उक्त वाणी का व्रत क्या है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।

    पदार्थ

    हे (व्रतपते) सत्यभाषण आदि धर्मों के पालन करने और (अग्ने) सत्य उपदेश करने वाले परमेश्वर! मैं (अनृतात्) जो झूंठ से अलग (सत्यम्) वेदविद्या, प्रत्यक्ष आदि प्रमाण, सृष्टिक्रम, विद्वानों का संग, श्रेष्ठ विचार तथा आत्मा की शुद्धि आदि प्रकारों से जो निर्भ्रम, सर्वहित, तत्त्व अर्थात् सिद्धान्त के प्रकाश करनेहारों से सिद्ध हुआ, अच्छी प्रकार परीक्षा किया गया (व्रतम्) सत्य बोलना, सत्य मानना और सत्य करना है, उसका (उपैमि) अनुष्ठान अर्थात् नियम से ग्रहण करने वा जानने और उसकी प्राप्ति की इच्छा करता हूं। (मे) मेरे (तत्) उस सत्यव्रत को आप (राध्यताम्) अच्छी प्रकार सिद्ध कीजिये जिससे कि (अहम्) मैं उक्त सत्यव्रत के नियम करने को (शकेयम्) समर्थ होऊं और मैं (इदम्) इसी प्रत्यक्ष सत्यव्रत के आचरण का नियम (चरिष्यामि) करूंगा॥५॥

    भावार्थ

    परमेश्वर ने सब मनुष्यों को नियम से सेवन करने योग्य धर्म का उपदेश किया है, जो कि न्याययुक्त, परीक्षा किया हुआ, सत्य लक्षणों से प्रसिद्ध और सब का हितकारी तथा इस लोक अर्थात् संसारी और परलोक अर्थात् मोक्ष सुख का हेतु है, यही सब को आचरण करने योग्य है और उससे विरुद्ध जो कि अधर्म कहाता है, वह किसी को ग्रहण करने योग्य कभी नहीं हो सकता, क्योंकि सर्वत्र उसी का त्याग करना है। इसी प्रकार हमको भी प्रतिज्ञा करनी चाहिये कि हे परमेश्वर! हम लोग वेदों में आप के प्रकाशित किये सत्यधर्म का ही ग्रहण करें तथा हे परमात्मन्! आप हम पर ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे हम लोग उक्त सत्यधर्म का पालन कर के अर्थ, काम और मोक्षरूप फलों को सुगमता से प्राप्त हो सकें। जैसे सत्यव्रत के पालने से आप व्रतपति हैं, वैसे ही हम लोग भी आप की कृपा और अपने पुरुषार्थ से यथाशक्ति सत्यव्रत के पालनेवाले हों तथा धर्म करने की इच्छा से अपने सत्कर्म के द्वारा सब सुखों को प्राप्त होकर सब प्राणियों को सुख पहुंचाने वाले हों, ऐसी इच्छा सब मनुष्यों को करनी चाहिये॥५॥

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    विषय

    उस वाणी का क्या व्रत है, यह उपदेश किया है।।

    भाषार्थ

    हे (व्रतपते!) सत्यभाषणादि  व्रतों के पालक! (अग्ने!) सत्य धर्म के उपदेशक ईश्वर! (अहम्) धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करने की इच्छा वाला मैं जो (इदम्) इस सत्यव्रत को (अनृतात्) मिथ्याभाषण, मिथ्या आचरण, मिथ्या बात को मानने से अलग होकर (सत्यम्) जो वेदविद्या, प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों, सृष्टिक्रम, विद्वानों का संग, श्रेष्ठ विचार और आत्म-शुद्धि के द्वारा जो भ्रान्ति से रहित, सबका हितकारक, तत्त्वनिष्ठ, सत्प्रभाव है और जो अच्छी प्रकार परीक्षा करके निश्चय किया जाता है, जो (व्रतम्) सत्यभाषण, सत्याचरण, सत्य मानना रूप व्रत है, उसका (चरिष्यामि) पालनकरूँगा, (तत् मे) मेरे उस व्रत का अनुष्ठान और पूरा होना आपकी कृपा से (राध्यताम्) सिद्ध हो। जिसे (उपैमि) जानने, प्राप्त करने और आचरण में लाने के लिए (शकेयम्) समर्थ होऊं, (तत्) वह व्रत भी सब आपकी कृपा से (राध्यताम्) सिद्ध होवे॥१।५॥

    भावार्थ

    ईश्वर सब मनुष्यों के पालन करने योग्य धर्म का उपदेश करता है--जो न्याय, पक्षपातरहित, सुपरीक्षित, सत्य लक्षणों से युक्त, सर्वहितकारी, इस लोक और परलोक के सुख का हतु है, वहीधर्म सब मनुष्यों के सदा आचरण करने योग्य है और जो इससे विरुद्ध अधर्म है उसका आचरण कभी किसी को नहीं करना चाहिये। इस प्रकार सब प्रतिज्ञा करें--
     हे परमेश्वर! हम वेदों में आप से उपदिष्ट इस सत्यधर्म का आचरण करना चाहते हैं। यह हमारी इच्छा आपकी कृपा से अच्छी प्रकार सिद्ध होवे। 
    जिससे--हम अर्थ, काम, मोक्ष-रूप फलों को प्राप्त कर सकें और जिससे अधर्म को सर्वथा छोड़ कर अनर्थ, कुकाम, बन्ध रूप दुःख फल वाले पापों को छोड़ने और छुड़ाने में समर्थ होवें। 
    जैसे आप सत्यव्रतों के पालक होने से व्रतपति हैं वैसे ही हम भी आपकी कृपा से, अपने पुरुषार्थ से यथाशक्ति सत्यव्रत के पालक बनें। 
    इस प्रकार सदा धर्म के इच्छुक, शुभ कर्म करने वाले होकर सब सुखों से युक्त और सब प्राणियों को सुख देने वाले बनें। ऐसी इच्छा सब सदा किया करें। 
    शतपथ ब्राह्मण में इस मन्त्र की व्याख्या में कहा है--मनुष्यों का दो प्रकार का ही आचरण है, एक सत्य और दूसरा अनृत। जो वाणी, मन और शरीर से सत्य का ही आचरण करते हैं वे देव कहलाते हैं और जो मिथ्या आचरण करते हैं वे मनुष्य अर्थात् असुर एवं राक्षस हैं॥१।५॥

    भाष्यसार

     ईश्वर--सत्य-भाषण आदि सत्य व्रतों का पालक होने से यहाँ ईश्वर को ‘व्रतपति’तथा सत्य धर्म का उपदेश करने वाला होने से ‘अग्नि’कहा गया है। 
    २. अनृत--मिथ्या बोलना, मिथ्या करना और मिथ्या मानना। 
    ३. सत्य--वेदविद्या, प्रत्यक्ष आदि प्रमाण, सृष्टिक्रम, विद्वानों के संग, सुविचार और आत्म-शुद्धि से भ्रान्तिरहित, तत्त्वनिष्ठ, सत्प्रभव ज्ञान का परीक्षापूर्वक निश्चय करना। 
    ४. व्रत--सत्य बोलना,सत्य करना और सत्य मानना। 
    ५. ईश्वर-प्रार्थना--हे व्रतपते अग्ने परमेश्वर! मैं अनृत से अलग रहकर सत्य व्रत का पालन करूँगा। आपकी कृपा से मेरे इस व्रत का पालन और पूर्ति सिद्ध होवे तथा जिसे मैं जानने, प्राप्त करने और अनुष्ठान करने में समर्थ हो सकूं ,वह सब आपकी कृपा से सिद्ध होवे।
     

    अन्यत्र व्याख्यात

    महर्षि ने ‘अग्ने व्रतपते॰’मन्त्र की ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका (वेदोक्तधर्म-विषय) में इस प्रकार से व्याख्या की हैः—
    १.    इस मन्त्र का अभिप्राय यह है कि सब मनुष्य लोग ईश्वर के सहाय की इच्छा करें, क्योंकि उसके सहाय के बिना धर्म का पूर्ण ज्ञान और उसका अनुष्ठान पूरा कभी नहीं हो सकता। 
    हे सत्यपते परमेश्वर! (व्रतम्) मैं जिस सत्य धर्म का अनुष्ठान किया चाहता हूँ उसकी सिद्धि आपकी कृपा से ही हो सकती है। इसी मन्त्र का अर्थ शतपथ ब्राह्मण में भी लिखा है कि--जो मनुष्य सत्य के आचरण रूप व्रत को करते हैं वे देव कहाते हैं और जो असत्य का आचरण करते हैं उनको मनुष्य कहते हैं। इससे मैं इस सत्य व्रत का आचरण किया चाहता हूँ। (तच्छकेयं) मुझ पर आप ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे मैं सत्य धर्म का अनुष्ठान पूरा कर सकूं, (तन्मे राध्यताम्) उस अनुष्ठान की सिद्धि करने वाले एक आप ही हो, सो कृपा से सत्य रूप धर्म के अनुष्ठान को सदा के लिए सिद्ध कीजिये। (इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि) सो यह व्रत है कि जिसको मैं निश्चय से चाहता हूँ उन सब असत्य कामों से छूट के सत्य के आचरण करने में सदा दृढ़ रहूँ। (ऋग्वेदादि, पृ॰९९, प्र,सं॰)॥
    महर्षि ने ‘आर्याभिविनय’में इस मन्त्र की व्याख्या इस प्रकार की हैः—
    २.    हे सच्चिदानन्द स्वप्रकाशस्वरूप ईश्वराग्ने! ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास आदि सत्यव्रतों का आचरण मैं करूंगा। इस व्रत को आप कृपा से सम्यक् सिद्ध करें तथा मैं अनृत=अनित्य देहादि पदार्थों से, इस यथार्थसत्य जिसका कभी व्यभिचार=विनाश नहीं होता, उसविद्यादिलक्षण धर्म को प्राप्त होता हूँ। इस मेरी इच्छा को आप पूरी करें जिससे मैं सभ्य, विद्वान्, सत्याचरण तथा आपकी भक्ति से युक्त धर्मात्मा होऊं॥ (आर्या॰ प्रकाश २, मं॰४७)॥
    महर्षि ने ‘व्यवहारभानु’में इस मन्त्र की आंशिक व्याख्या इस प्रकार की हैः—
     ३. ‘‘इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि’’। अर्थ--मनुष्य में मनुष्यपन यही है कि सर्वथा झूठ व्यवहारों को छोड़कर सत्यव्यवहारों को सदा ग्रहण करे॥

    विशेष


    परमेष्ठी प्रजापतिः।अग्निः =ईश्वरः।। आर्चीत्रिष्टुप्। धैवतः।। 

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    विषय

    व्रत धारण

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    अच्छा, मुनिवरों! आज हम को ऐसा व्रत धारण करना और अपने नियम इस प्रकार पूर्ण बनाएं कि जिससे हमारा जीवन उच्च तथा महान होहम विधाता से यही याचना किया करते हैं, कि जब तक हम इस संसार में जीवित रहेंगे हम कदापि मिथ्या उच्चारण नहीं करेंगेयही पूर्णिमा का कृत्य है, इन्ही का नाम व्रत हैऔर जैसे हमने पूर्व स्थान में कहा था, कि अन्न का त्याग, क्षुधा से पीड़ित होना, उपवास करना आदि से कोई महान लाभ नहीं होताजब हम पूर्ण, पूर्णमदः करेंगे जैसे कि पूर्णिमा के चांद में पूर्णता होती है, तभी हम अपने जीवन को पूर्ण बनाने में समर्थ हो सकते हैकिसी भी कार्य को अधूरा न छोड़कर जब उस महान व्रत को धारण करेंगे, तभी हमारा व्रत सफल, वास्तविक कल्याण दायक हो सकता है

    जब नारद जी नारायण महाराज के समक्ष थे तो, उन्होंने कहा कि देवर्षि! मृत मण्डल तो महान् दुःख का सागर हैइससे निस्तार के लिए यह महान योजना बनाई है कि जो आगे कर्म करने हैं वह शुभ करने हैं, तो इस प्रयत्न में ही मानव का कल्याण निहित हैदेखो, जैसे अजयमेध यज्ञ करें, गोमेध यज्ञ करें, तो यह तो भौतिक यज्ञ हो गएपरन्तु हमें आध्यात्मिक यज्ञ भी करना चाहिए

    आध्यात्मिक यज्ञ का अर्थ जिसमें हमारी आत्मा का विकास हो, जैसे अग्नि ऊपर को उठती चली जाती है ऐसे आत्मा को ऊपर उठाने का यत्न करना चाहिएजिसका जैसा आचरण होगा, वैसा ही वह उससे सम्बन्धित रमण करता है, जब यह आत्मा ऊपर के लोकों में भ्रमण करता है और अच्छे कर्म में रत्त तो वह उन चन्द्रादि, महान उच्च लोकों में पहुंच जाता है।

    कर्मकाण्ड की पद्धति में यज्ञशाला में आ जाओ कहाँ ब्राह्मण होना चाहिए, कहाँ ब्राह्मण होना चाहिए, कहाँ ब्रह्मा का स्थान हो, कहाँ पुरोहित का हो, कहाँ अध्वर्यु का हो, कहाँ उद्गाता का हो, कहाँ यज्ञमान विराजमान हो, यह सब कर्मकाण्ड या की पद्धति में माना गया हैदेखो, शतपथ ब्राह्मण में महर्षि याज्ञवल्क्य मुनि महाराज ने बड़े विस्तार से इसका वर्णन किया हैआज मैं इसकी संक्षिप्त परिचय देने जा रहा हूं कि आज हम कर्मकाण्ड की पद्धति को अपनायेंयज्ञ का जो कर्मकाण्ड है, आहुति किस प्रकार दी जाएं, आहुति के साथ में कौन सा शब्द हो, और उस शब्द की रचना किस प्रकार की हो यह जब सब कुछ होता है तो होता रहता है स्वाहास्वाहा कहते ही उसकी वाणी में कितनी महानता, कितनी प्रबलता होनी चाहिए यह सब कुछ देखो, कर्मकाण्ड की पद्धति मानी गई हैआज कर्मकाण्ड की पद्धतियों में यज्ञशाला की परिक्रमा होती हैपरब्रह्म परमात्मा ने जब इस संसार रूपी यज्ञशाला को रचा तो कितना कर्मकाण्ड इसमें रचा, किस प्रकार की इसमें सुन्दर क्रिया दी हैकितना सुन्दर कर्म है, कितना सुन्दर प्रक्रिया हैआज वास्तव में हम उस कर्मकाण्ड की पद्धति को अपनाते चले जाएं जिस कर्मकाण्ड की पद्धति में जहाँ स्वाहा कहना चाहिए, उसके द्वारा कैसे विचार हो, सब कर्मकाण्ड में आता हैआज हम कर्मकाण्ड की पद्धति को अपनाते जाएं जिस पद्धति को अपनाने से हमारा जीवन महानता की प्रबल वेदी पर चला जाता है जिस वेदी को अपनाते हुए हम संसार में एक महान व्यक्तित्व को ले करके उस महानता की पवित्र वेदी पर चले जाते हैंयह सब कर्मकाण्ड मानव के जीवन से कटिबद्ध होता हैयदि इसका मानव जीवन से सम्बन्ध नहीं तो हम इसको कर्मकाण्ड कह ही नहीं सकेंगेराष्ट्र और समाज सभी इससे सुगठित रहता है।

    मेरे प्यारे! इसके पश्चात प्रभु की परिक्रमा है, क्या हे देव! हम याग के अग्नि के समीप जल को ले करके अग्नि के समीप साक्षी करके प्रतिज्ञा करते हैं, परिक्रमा करते हैं हे देव! मानो हमारा जो जीवन है वह ऊर्ध्वा में भी मानो प्रत्येक दिशाओं में प्रभु की चेतना कार्य कर रही है इसी की चेतना में हम सर्वत्र चेतनित हो रहे हैं तो ऐसे एक भाव के साथ में मानो देखो, और भौतिक जो स्वरूप है वह भौतिक स्वरूप एक और भी माना जाता है आध्यात्मिक स्वरूप भी है और भी भौतिक जब सृष्टि का प्रारम्भ हुआ तो मेरे प्यारे! सबसे प्रथम प्रभु ने मेखला का निर्माण किया और वह मेखला क्या है? वह समुद्र है जिसके आँगन में पृथ्वी रमण कर रही है, और पृथ्वी के दोषों के शोषण करने का कार्य समुद्र किया करता है, इसीलिए समुद्र को सोम कहते हैं, जैसे वह विष को शोषण करता है, इसी प्रकार हम आध्यात्मिक बल को प्रबल करते हुए हम ज्ञान मुनिवरों! देखो, जैसे यह हमारे द्वारा अज्ञान है अज्ञान को नष्ट करते हुए, हम काम, क्रोध, मद, लोभ को शान्त करते हुए इस संसार सागर से पार होते चले जाएं।

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    विषय

    अनृत से सत्य की ओर

    पदार्थ

    १. गत मन्त्र में वेदवाणी का वर्णन करते हुए कहा था कि वह हमारे सभी कर्त्तव्यों का प्रतिपादन करती है। प्रस्तुत मन्त्र में उन सब कर्त्तव्यों के अन्दर ओत-प्रोत एक सूत्र का वर्णन करते हैं कि हमारे सब कर्म ‘सत्य’ पर आश्रित हों, इसलिए प्रार्थना करते हैं — ( अग्ने )  = हे संसार के सञ्चालक प्रभो! ( व्रतपते ) = सब व्रतों के रक्षक प्रभो! ( व्रतम् चरिष्यामि ) = मैं भी व्रत धारण करूँगा। ( तत् शकेयम् ) = उस व्रत का मैं पालन कर सकूँ, ( तत् मे राध्यताम् ) = मेरा वह व्रत सिद्ध हो। ( अहम् ) = मैं ( अनृतात् ) = अनृत को छोड़कर ( इदम् ) = इस ( सत्यम् ) [ सत्सु तायते ] = सज्जनों में विस्तृत होनेवाले सत्य को ( उपैमि ) = समीपता से प्राप्त होता हूँ।

    २. व्रत का स्वरूप संक्षेप में यह है कि —‘अनृत को छोड़कर सत्य को प्राप्त होना’।

    ३. प्रभु व्रतपति हैं। हमें इस सत्य-व्रत का पालन करना है। प्रभु का उपासन हमें शक्ति देगा और हम अपने व्रत का पालन कर सकेंगे। सत्य से उत्तरोत्तर तेज बढ़ता है तो अनृत से उत्तरोत्तर तेज क्षीण होता जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ — प्रत्येक मनुष्य को सत्य का व्रत लेना चाहिए। उसका पालन करने से ही वह देवत्व को प्राप्त करता है और प्रभु-प्राप्ति का अधिकारी होता है।

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    विषय

    व्रतपत्ति की आराधना ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानोत्पादक ! अग्रणी ! सब के नेता , परमेश्वर ! हे   ( व्रतपते ) सब व्रतों के , शुभकर्मों के स्वामिन् ! मैं ( व्रतम् ) व्रत , पवित्र कर्म का ( चरिष्यामि ) आचरण करूंगा ।  (तत् ) उसको पालन करने में मैं ( शकेयम् ) समर्थ होऊं । (मे) मेरा ( तत् ) वह सब व्रताचरण ( राध्यताम् ) पूर्ण हो , सफल हो । मैं (इदम्) यह व्रत धारण करता हूं कि ( अहम् ) मैं ( अनृतात् ) असत्य , मिथ्याभाषण , मिथ्याज्ञान और मिथ्या आचरण से और ऋत अर्थात् सत्यमय वेद के विपरीत अमृत से दूर रह कर (सत्यम् ) सत्य को ( उपैमि ) प्राप्त होऊं ।। शत० १ । १ । १ । ११ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । आर्ची त्रिष्टुप् । धैवतः स्वरः ॥

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    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    हे (अग्ने) सच्चिदानन्द, स्वप्रकाशरूप ईश्वराग्ने! (व्रतम्) ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास आदि सत्यव्रतों का (चरिष्यामि)  आचरण मैं करूँगा, सो इस व्रत को आप स्वकृपा से सम्यक् (राध्यताम्) सिद्ध करें तथा मैं (अनृतात्) अनृत=अनित्य देहादि पदार्थों से पृथक् होके इस यथार्थ सत्य जिसका कभी व्यभिचार-विनाश नहीं होता, (सत्यम् उप एमि) उस सत्याचरण, विद्यादि लक्षण धर्म को प्राप्त होता हूँ, (तत् शकयेम्) इस मेरी इच्छा को आप पूरी करें, जिससे मैं सभ्य, विद्वान्, सत्याचरणी, आपकी भक्तियुक्त धर्मात्मा होऊँ ॥ ४७ ॥ 

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    विषय

    व्रतपति की आराधना।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) ज्ञानोत्पादक ! अग्रणी ! सब के नेता , परमेश्वर ! हे ( व्रतपते ) सब व्रतों के , शुभकर्मों के स्वामिन् ! मैं (व्रतम् ) व्रत , पवित्र कर्म का ( चरिष्यामि ) आचरण करूंगा ।  (तत् ) उसको पालन करने में मैं ( शकेयम् ) समर्थ होऊं । ( मे ) मेरा ( तत् ) वह सब व्रताचरण ( राध्यताम् ) पूर्ण हो , सफल हो । मैं ( इदम् ) यह व्रत धारण करता हूं कि ( अहम् ) मैं ( अनृतात् ) असत्य , मिथ्याभाषण , मिथ्याज्ञान और मिथ्या आचरण से और ऋत अर्थात् सत्यमय वेद के विपरीत अनृत से दूर रह कर (सत्यम् ) सत्य को ( उपैमि ) प्राप्त होऊं ।। शत० १ । १ । १ । ११ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अग्निर्देवता । आर्ची त्रिष्टुप् । धैवतः स्वरः ॥

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    मराठी (3)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी आचरणात आणावा अशा वेद धर्माचा उपदेश परमेश्वराने केलेला आहे. तो सत्य लक्षणांनी युक्त व न्यायपूर्ण असा आहे. तो सर्वांचे हित करणारा असून, इहलोक व परलोकाच्या सुखाचा हेतू आहे. सर्वांनी आचरणात आणावा असा तो योग्य धर्म आहे. या विरुद्ध जे आचरण असेल तो अधर्म होय. कारण तो स्वीकारण्यायोग्य नसतो त्यासाठी अधर्माचा सर्वकाळी, सर्वस्थळी त्याग केला पाहिजे व ही शपथ घेतली पाहिजे की, हे परमेश्वरा, आमच्यावर अशी कृपा कर की तू प्रकट केलेल्या (वेदातील) सत्यधर्माचा स्वीकार करून आम्ही त्याच सत्यधर्माचे पालन करावे. त्यामुळे आम्हाला अर्थ, काम, मोक्षरूपी फळ सहज प्राप्त व्हावे. जसा तू सत्यव्रती आहेस प्राप्त व्हावे. जसा तू सत्यव्रती आहेस त्याप्रमाणेच आमच्या सामर्थ्यानुसार आम्हीही सत्यव्रती बनावे व धर्मपालनाच्या इच्छेने सत्कर्म करून सुख प्राप्त करावे. सर्व प्राण्यांना सुखी करावे, अशी इच्छा सर्व माणसांनी बाळगावी.

    टिप्पणी

    शतपथ ब्राह्मणामध्ये या मंत्राची व्याख्या केलेली आहे. मनुष्याचे आचरण दोन प्रकारचे असते. एक सत्य व दुसरे असत्य. जे पुरुष मन, वाणी व शरीर यांनी सत्याचे आचरण करतात, त्यांना देव म्हणतात आणि जे असत्याचे आचरण करतात ते राक्षस समजले जातात.

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    विषय

    वर वर्णिलेल्या वाणीचे व्रत कोणते, याविषयी पुढील मंत्रात उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हे (व्रतपते) सत्य सत्यभाषण आदी धर्मांचे स्वामिन् (अग्ने) सत्याचा उपदेश करणार्‍या हे परमेश्‍वरा, मी असत्याहून जे वेगले, त्या (सत्यम्) अनूष्ठान करण्याची इच्छा करतो. सत्य म्हणजे वेदविद्या, प्रत्यक्षादी प्रमाण, सृष्टिक्रम, विद्वज्जनांची संगती, श्रेष्ठ विचार आणि आत्म्याची शुद्धता या सर्व प्रकारानें जे निर्भ्रम, सर्व हितकारी तत्त्व प्राप्त होते, म्हणजे सत्य-सिद्धान्ताचे प्रकटन करणार्‍या विद्वानांकडून जे प्रमाणित केले गेले आहे, असे ते (व्रतम्) सत्यभाषण, सत्यग्रहण आणि सत्याचरण आहे, मी (उपैमि) त्या सत्याचा अनुष्ठानाची इच्छा करीत आहे, म्हणजे जे नियमाने ग्रहणीय आणि ज्ञातव्य आहे, त्याच्या प्राप्तीची इच्छा बाळगतो आहे. (मे) माझ्या (तत्) त्या सत्यव्रताला तू (राध्यताम्) चांगल्या प्रकारे पुर्ण कर. असे कर की ज्यायोगे (अहम्) मी त्या सत्यव्रताला जीवनाचा नित्य नियम बनवण्यात (शकेयम्) यशस्वी होऊ शकेन. मी सदैव (इदम्) या प्रत्यक्ष सत्यव्रताप्रमाणेच (चरिष्यामि) आचरण करीन. ॥5॥

    भावार्थ

    भावार्थ - या मंत्रात परमेश्‍वराने सर्व मनुष्यांना नित्य नियमाने सेवन व पालन करण्यास योग्य असा जो धर्म, त्या धर्माचा उपदेश केला आहे. न्यायोचित केलेले, सर्वांचे हित करणारे तसेच लोकात व परलोकात म्हणजेच मोक्ष अवस्थेत जे सुखदायक आहे, त्याच धर्माचे सर्वांनी आचरण व पालन केले पाहिजे. त्याच्या जे विपरीत आहे, त्यास अधर्म म्हणतात. हा अधर्म कोणासाठी कधीही ग्राह्य किंवा स्वीकारणीय नाहीं. त्याचा तर सर्वत्र सदैव त्याग करायला हवा. आम्ही देखील अशी प्रतिज्ञा केली पाहिजे की हे परमेश्‍वरा, वेदांमधे तू ज्या सत्यधर्माचा प्रकाश केला आहेस, त्याचाच आम्ही स्वीकार करावा. हे परमात्मन् आम्हांवर अशी कृपा कर की आम्ही त्या सत्यधर्माचे पालन करून अर्थ, काम आणि मोक्ष या फळांची प्राप्ती सहजपणे करू शकू. ज्याप्रमाणे तू सत्य व्रतांचा पालना विषयीचा व्रतपति आहेस, त्याप्रमाणे आम्ही देखील तुझ्या कृपेने आणि स्वपुरुषार्थाने यथाशक्ती सत्यव्रताचे पालन करणारे होऊ. धर्माचे पालन करीत सत्कर्मांद्वारे सर्व सुखांची प्राप्ती करीत सर्व जण सर्वांना सुख देणारे असोत, अशी इच्छा सर्व मनुष्यांनी ठेवावी. शतपथब्राह्मणात या मंत्राची विशेष व्याख्या सांगितली आहे. तिथे असे म्हटले आहे की माणसांचे आचरण दोन प्रकारचे असते. एक-सत्याचे, दुसरे-असत्याचे. जे लोक वाणी, मन आणि शरीराने सत्याचरण करतात, त्यांना ‘देव’ म्हणतात आणि जे लोक असत्याचे आचरण करतात, त्यांना ‘असुर’ (राक्षस) आदी नांवाने संबोधले जाते. ॥5॥

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    विषय

    प्रार्थना

    व्याखान

    हे (अग्ने) सच्चिदानंद, स्वप्रकाशस्वरूप, ईश्वराग्ने ! मी ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास इत्यादी सत्यव्रतांचे पालन करीन. तुझ्या कृपेने हे व्रत मी पूर्णपणे परर पाडावे. देहादि असत्य व अनित्य पदार्थापासून मी पृथक होऊन यथार्थ असे अविनाशी सत्य जाणावे. मला विद्यादी धर्माची प्राप्ती व्हावी ही माझी इच्छा तू पूर्ण कर. तुझ्या भक्तिमुळे मी सभ्य, विद्वान, सत्याचरणी धर्मात्मा बनावे.॥४७॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    O God, the Lord of Vows, I will observe the vow. May I have strength for that. Pray grant me success in the fulfilment of my vow. I take the vow of renouncing untruth and embracing truth.

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    Meaning

    Lord of the fire of yajna, Lord of Law and vows of faith, I take to the vow of commitment to truth and I give up the untruth. Bless me that I may be able to keep the vow. Bless me that I may realize it.

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    Purport

    O Be, Being and Bliss ! Self-Effulgent Lord I The leader of all, I shall take a true vow to abide by and accomplish the four-fold stages of life i.e. Brahmcaryaa celibate life, Grhastha-life of a householder, Vänprastha Vedic hermit and Sannyasa-a Vedic monk. Grant me power and courage to thoroughly accomplish these vows. I abandoning untruth-remaining aloof from the perishable body etc., shall stick to real truth which is imperishable i.e. I will follow truth and righteousness which comprises knowledge. Kindly grant me this desire, so that I may become gentle, cultured, learned, follower of truth, devoted to Your worship and a righteous person.

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    Translation

    О adorable Lord, upholder of vows, I have determined to observe a vow. May I be able to accomplish it with success. (1) Renouncing falsehood, I hereby embrace truth. (2)

    Notes

    According to the traditionalists the sacrificer recites this mantra while taking the vow of abstinence during the performance of sacrifice. But to us, this is a commendable resolve of a devotee to forsake the falsehood and embrace the truth. Vmtapate, О upholder of vows! Agni, the adorable Lord, is considered to be the upholder of vows. Tacchakeyam, may I be able to accomplish that. Anrta, false, unreal, untruth. मिथ्याभाषण, मिथ्याकरण मिथ्या आत्ममान - Daya. Satya, truth, in its widest sense.

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    बंगाली (1)

    विषय

    কিংচ তদ্বাচো ব্রতমিত্যুপদিশ্যতে ॥
    উক্ত বাণীর ব্রত কী এই বিষয়ের উপদেশ পরবর্ত্তী মন্ত্রে করা হইয়াছে —

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে (ব্রতপতে) সত্যভাষণাদি ধর্ম পালনকারী এবং (অগ্নে) সত্য উপদেশকারী পরমেশ্বর! আমি (অনৃতাৎ) যাহা মিথ্যা হইতে পৃথক (সত্যম্) বেদবিদ্যা, প্রত্যক্ষাদি প্রমাণ, সৃষ্টিক্রম, বিদ্বান্দিগের সঙ্গ, শ্রেষ্ঠ বিচার তথা আত্মার শুদ্ধি ইত্যাদি প্রকারে যাহা নির্ভ্রম, সর্বহিত, তত্ত্ব অর্থাৎ সিদ্ধান্তের প্রকাশক হইতে সিদ্ধ হইয়াছে, সম্যক্ প্রকার পরীক্ষা কৃত (ব্রতম্) সত্য বলা, সত্য মানা এবং সত্য করা, তাহার অনুষ্ঠান অর্থাৎ নিয়ম দ্বারা গ্রহণ করার অথবা জানার এবং তাহার প্রাপ্তির ইচ্ছা করি, (মে) আমার (তৎ) সেই সত্য ব্রত কে আপনি (রাধ্যতাম্) সম্যক্ প্রকারে সিদ্ধ করুন যাহাতে আমি উক্ত সত্য ব্রতের নিয়ম পালন করিতে (শকেয়ম) সক্ষম হই এবং আমি (ইদম্) এই প্রত্যক্ষ সত্য ব্রতের আচরণের নিয়ম (চরিষ্যামি) পালন করিব ॥ ৫ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- পরমেশ্বর সব মনুষ্যদিগকে নিয়ম পূর্বক সেবনীয় ধর্মের উপদেশ করিয়াছেন যাহা ন্যায়যুক্ত পরীক্ষা কৃত সত্য লক্ষণগুলি দ্বারা প্রসিদ্ধ এবং সকলের হিতকারী তথা ইহলোক অর্থাৎ সাংসারিক এবং পরলোক অর্থাৎ মোক্ষসুখের হেতু । এই সব আচরণ করিবার যোগ্য এবং তাহার বিরুদ্ধ যাকে অধর্ম বলা হয় তাহা কাহারও পক্ষে গ্রহণীয় কখনও হইতে পারে না কেননা সর্বত্র তাহার ত্যাগ করিতে হইবে । এই প্রকার আমাদিগেরও প্রতিজ্ঞা করা উচিত যে, হে পরমেশ্বর । আমরা বেদে আপনার দ্বারা প্রকাশিত সত্য ধর্মের গ্রহণ করি তথা হে পরমাত্মন্ । আপনি আমাদের উপর এমন কৃপা করুন যাহাতে আমরা উক্ত সত্য ধর্মের পালন করিয়া অর্থ, কামও মোক্ষরূপ ফলকে সুগমতা পূর্বক প্রাপ্ত হইতে পারি । যেমন সত্যব্রত পালন করায় আপনি ব্রতপতি, সেইরূপেই আমরাও আপনার কৃপা ও নিজস্ব পুরুষকার দ্বারা যথাশক্তি সত্যব্রতের পালক হই তথা ধর্ম করিবার ইচ্ছায় নিজের সৎকর্ম দ্বারা সব সুখ প্রাপ্ত হইয়া সর্ব প্রাণিসকলকে সুখ প্রদান করি – এমন ইচ্ছা সব মনুষ্যদিগকে করা উচিত ॥ শতপথ ব্রাহ্মণের মধ্যে মন্ত্রের ব্যাখ্যায় বলা হইয়াছে যে, মনুষ্যের আচরণ দুই প্রকারের হইয়া থাকে – এক সত্য, দ্বিতীয় মিথ্যা । অর্থাৎ যে পুরুষ বাণী, মন ও শরীর দ্বারা সত্য আচরণ করে তাহাকে দেব বলা হয় এবং যে মিথ্যার আচরণ করে তাহাকে অসুর, রাক্ষসাদি নামে অভিহিত করা হইয়া থাকে ॥ ৫ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অগ্নে॑ ব্রতপতে ব্র॒তং চ॑রিষ্যামি॒ তচ্ছ॑কেয়ং॒ তন্মে॑ রাধ্যতাম্ ।
    ই॒দম॒হমনৃ॑তাৎস॒ত্যমুপৈ॑মি ॥ ৫ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অগ্নে ব্রতপত ইত্যস্য ঋষিঃ স এব । অগ্নির্দেবতা । আর্চীত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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    नेपाली (1)

    विषय

    प्रार्थनाविषयः

    व्याखान

    हे अग्ने= सच्चिदानन्द, स्वप्रकाशस्वरूप ईश्वराग्ने ! व्रतम्= ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ र संन्यास आदि सत्यव्रत हरु को मँ चरिष्यामि= आचरण गर्ने छु, अतः प्रभु ले एस व्रत लाई स्वकृपा ले उपयुक्त राध्यताम् = सिद्ध गरि दिनुहोस्, तथा मँ अनृतात् = अनृत् = अनित्य देहादि पदार्थ हरु बाट अलग्ग भएर यो यथार्थ सत्य जसको कहिल्यै व्यभिचार अर्थात् विनाश हुँदैन । सत्यम् उप एमि= तेस सत्याचरण विद्यादि लक्षणरूप धर्म मा स्थित हुन्छु, तत् शकेयम्= यो मेरो इच्छा लाई तपाईं को कृपा ले पूर्ण गर्न सकूँ जसले मँ सभ्य, विद्वान्, सत्याचरणी र तपाईंको भक्ति ले युक्त धर्मात्मा बनूँ ॥४७॥

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    उर्दू (1)

    Vishay

    - ستیہ بولنا ستیہ ماننا اور ستیہ کرنا شریشٹھتم کرم کی اور پہلا قدم

    Padarth

    ہے برت پتے۔ ستیہ بھاشن آدی دھرموں کے پالن کرنے اور اگنے۔ ستیہ اُپدیش کرنے والے پرمیشور! میں اِنرتات-جو جُھوٹ سے الگ ستیم وید وِدّیا پرتیکش آدی پرمان -سرشٹی کرم- ودوانوں کا سنگ شریشٹھ وچار تتھا آتما کی شدھی آدی پرکاروں سے جو نربھرم[شک و شبہ سے الگ] سروہت- تتو ارتھات سدھانت کے پرکاشن کرنے والوں سے سدھ ہوا۔ اچھی پرکار پریکھشا کیا گیا برہم۔ستیہ بولنا ستیہ ماننا اور ستیہ کرنا ہے۔ اس کا اُپمی۔ انوشٹھان ارتھات نیم سے گرہن کرنے یا جاننے اور اس کی پراپتی کی اِچھیا کرتا ہوں مے میرے تت۔ اس ستیہ برت کو آپ رادھتیام اّچھی پرکار سِدھ کیجیئے جس سے کہ اہم میں اس ستیہ برت کے نیم کرنے کے لئے سکشم سمرتھ ہوؤں-اور میں اِدم اسی پرتیکھش ستیہ برت کے آچرن کا نیم چری شیامی- کروں گا۔

    Bhavarth

    پرمیشور نے سب منشیوں کو نیم سے سیون کرنے یوگیہ دھرم کا اُپدیش کیا ہے۔ جوکہ نیائے یکت پریکھشا کیا ہوا ستیہ لکھشنوں سے پرسدھ اور سب کا ہت کاری تتھا اس لوک ارتھات سنساری اور پرلوک ارتھات موکھش سُکھ کا ہیتو ہے۔ یہی سب کو آچرن یوگیہ ہے اور اس سے وردھ جو کہ ادھرم کہتا ہے۔ وہ کسی کو گرہن کرنے یوگیہ کبھی نہیں ہو سکتا۔ کیونکہ سروت[جہاں تہاں] اُسی کا تیاگ کرنا ہے۔ اسی پرکار ہم کو بھی پرتگیا کرنی چاہیئے کہ ہے پرمیشور! ہم لوگ ویدوں میں آپ کے پرکاشت کئے ستیہ دھرم کو ہی گرہن کریں۔ تتھا ہے پرماتمن! آپ ہم پر ایسی کرپا کیجیئے کہ جس سے ہم لوگ اس ستیہ دھرم کا پالن کرکے ارتھ کام اور موکش روپ پھلوں کو سُگمتا [آسانی] سے پراپت ہو سکیں جیسے ستیہ برت کے پالن سے آپ برت پتی ہیں۔ ویسے ہی ہم لوگ بھی آپ کی کرپا اور اپنے پُرشارتھ سے تتھا شکتی ستیہ برت کے پالنے والے ہوں۔ تتھا دھرم کرنے کی اِچّھا سے اپنے ستیہ کرموں دوارہ سب سُکھوں کو پراپت ہوکر سب پرانیوں کو سُکھ پہنچانے والے بنیں ایسی اِچّھا سب پرانیوں کو کرنی چاہیئے۔ شت پرتھ براہمن میں اس منتر کی ویاکھیا میں کہا ہے کہ منشیوں کا آچرن دو پرکار کا ہوتا ہے- ایک ستیہ اور دوسرا جھوٹ کا- ارتھات جو پُرش من بانی اور شریر سے ستیہ کا آچرن کرتے ہیں وہ دیو کہلاتے ہیں-اور جو جُھوٹ کا آچرن کرنے والے ہوتے ہیں وہ اسُر راکشس آدی ناموں کے ادھیکاری ہوتے ہیں۔ شریشٹھتم کرم کی سِدّھی: مہریشی دیانند کو سوئم ستیہ سے اننیہ پیار تھا۔ اس لئے جہاں لاکوں کی گدیوں کو ٹھکرایا ہزاروں مصائب کے طوفانوں کے ہنستے ہنستے جھیلا۔ وہاں استیہ کے ساتھ سمجھوتہ کبھی نہیں کیا۔ چاہے جان اکیلی تھی-نہ چیلا تھا نہ چیلی تھی- پھر اپنی پرارتھنا پسک آریہ ابھی ونے میں اس منتر کی پرارتھنا میں لکھا کہ ہے سچدانند سوپرکاش سوروپ ایشور اگنے! برہمچریہ، گرہستھ، بان پرستھ آدی ستیہ برتوں کا آچرن میں کروں گا۔ سو اس برت کو آپ بھلی پرکار سے سِدھ کریں۔ تتھا میں انِرت ارتھات انتیہ دیہہ آدی پدارتھوں سے پرتھک ہوکے اس یتھارتھ ستیہ جس کا کبھی ناش نہیں ہوتا۔ اس ستیہ آچرن وِدّیا آدی لکھشن دھرم کو پراپت ہوتا ہوں۔ مانو جیون کو یگیّہ کے مارگ پر چلانا ہی شریشٹھتم کرم ہے۔ جس سے یحُروید کا آرمبھ ہوا ہے۔ اس کی سِدھی کے لئے سب سے پہلے انرت ارتھات جھوٹے جیون سے اُوپر اُٹھنا ہوگا۔ آگے منزل ملے گی رِت کی۔ جہاں انرت(استیہ) کی حالت میں منُش اپنے کو کیوں شریر مان کر بھوگوں کے لئے آتم ستا کو بھول جاتا ہے وہاں رِت کی حالت میں اندریوں کے چنگل سے چھوٹ کر بھی من اور بُدھی سے پرکرتی کے زیر اثر کچھ پھنسا رہتا ہے۔ کیونکہ من بُدھی چِت پرکرتی کے گُنوں میں جکڑا ہوا رہتا ہے کچھ لیکن آتما جب من بُدھی چِت سے بھی اُوپر اُٹھ کر کیول بھگوان کے ارپت ہوکر کرم کرتا ہے۔ تب وہ ستیہ مئے ہو جاتا ہے۔ اس سے شت پرتھ براہمن نے کہا کہ منُش جُھوٹ بولنے اور کرنے سے پوتر ہوتا ہے اس لئے (ستیم) اس برت سے ہاتھ میں لے کر آچمن کرتے ہوتے پرتگیا کرتا ہے کہ جل کی طرح پوتر ہوکر ستیہ کو دھارن کروں گا۔ تب برہمانڈ میں پھیلے ہوئے کی یگیّہ کے ایک چھوٹے سے لیکن مہان کرم اگنی یگیّہ کو کرنے کا ہوتا ہے۔ تب ہوتا ہے شریشٹھتم کرم کی اور مانوَ کا پہلا قدم۔

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