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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒हमिद्धि पि॒तुष्परि॑ मे॒धामृ॒तस्य॑ ज॒ग्रभ॑ । अ॒हं सूर्य॑ इवाजनि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒हम् । इत् । हि । पि॒तुः । परि॑ । मे॒धाम् । ऋ॒तस्य॑ । ज॒ग्रभ॑ । अ॒हम् । सूर्यः॑ऽइव । अ॒ज॒नि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अहमिद्धि पितुष्परि मेधामृतस्य जग्रभ । अहं सूर्य इवाजनि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अहम् । इत् । हि । पितुः । परि । मेधाम् । ऋतस्य । जग्रभ । अहम् । सूर्यःऽइव । अजनि ॥ ८.६.१०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 10
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    अथोपासकस्योक्तिविशेषः कथ्यते।

    पदार्थः

    (पितुः) पालकस्य (ऋतस्य) सद्रूपस्य (मेधाम्) ज्ञानम् (अहम्, इत्, हि) अहमेव (परिजग्रभ) परितः लब्धवान् तेन (अहम्) अहमुपासकः (सूर्यः, इव, अजनि) सूर्य इव सम्पन्नः ॥१०॥

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    विषयः

    ईश्वरं प्रति कृतज्ञताऽनया प्रकाश्यते ।

    पदार्थः

    अहमुपासकः । पितुः=परिपालकपरमेश्वरात् । परि=पञ्चम्यर्थानुवादी । ऋतस्य=सत्यनियमस्य । मेधाम्=परमविद्याम् । इत्=निश्चयेन । परिजग्रभ=परितो गृहीतवानस्मि । तदर्थं परमात्मने सततं कृतज्ञतां प्रकाशयामि । यतोऽहं मेधावान् । अतोऽहम् । सूर्य इव=जगति प्रकाशमानः सन् । अजनि=अजनिषं जातोऽस्मि । स यः खलु परमात्माज्ञां पालयिष्यति सोऽहमिव सुमतिं सुविद्याञ्च तस्मात् प्राप्स्यति ॥१० ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब उपासक की उक्ति कथन करते हैं।

    पदार्थ

    (पितुः) पालक (ऋतस्य) सद्रूप परमात्मा के (मेधा) ज्ञान को (अहम्, इत्, हि) मैंने ही (परिजग्रभ) लब्ध किया, तिससे (अहम्) मैं उपासक (सूर्यः, इव, अजनि) सूर्य्य के समान हो गया ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपासक की ओर से यह कथन है कि मैं सत्यस्वरूप, सबके पालक परमात्मा के ज्ञान को उपलब्ध कर सूर्य्य के समान तेजस्वी हो गया। जो अन्य भी उसके ज्ञान की प्राप्ति तथा आज्ञा पालन करते हैं, वे भी तेजस्वी तथा ओजस्वी जीवनवाले होकर आनन्दोपभोग करते हैं ॥१०॥

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    विषय

    इससे ईश्वर के प्रति कृतज्ञता प्रकाशित करते हैं ।

    पदार्थ

    (अहम्) मैंने (पितुः+परि) सबके पालक पिता परमात्मा से (ऋतस्य) सत्य और सत्य नियम की (मेधाम्) परमविद्या का (इत्) निश्चितरूप से (परि+जग्रभ) ग्रहण किया है, तदर्थ परमात्मा को सतत कृतज्ञता प्रकाशित करता हूँ । जिस हेतु ईश्वरकृपा से मैं मेधावान् हूँ, अतः इस जगत् में (अहम्) मैं (सूर्यः+इव) सूर्य के समान (अजनि) प्रकाशमान हुआ हूँ ॥१० ॥

    भावार्थ

    सर्वकार्य में ईश्वर की कृपा प्रार्थनीय है । उसी के अनुग्रह से विद्वान् सत्य के नियमों को जानते हैं, सो जो कोई वैसी विद्या से और सुमति से भूषित होता है, वही सूर्यवत् अज्ञानान्धकार को विध्वस्त करके ज्ञानज्योति फैलाता है ॥१० ॥

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    विषय

    प्रभु से प्रार्थनाएं ।

    भावार्थ

    ( अहं ) मैं जिज्ञासु ( इत् ) ही ( हि ) अवश्य ( ऋतस्य ) चेदमय सत्य ज्ञान के ( पितुः मेधाम् ) पितावत् पालक प्रभु वा गुरु की ( मेधाम् ) ज्ञानवती बुद्धि को ( परि जग्रभ ) प्रेमपूर्वक ग्रहण करूं । और (अहं) मैं (सूर्य: इव) सूर्य के समान (अजनि) होऊं । इत्येकादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥

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    विषय

    सूर्य के समान

    पदार्थ

    [१] (अहम्) = मैं (इत् हि) = निश्चय से (पितुः) = अपने पिता प्रभु से (ऋतस्य) = सत्य ज्ञान की (मेधाम्) = बुद्धि को (परिजग्रभ) = ग्रहण करूँ। प्रभु की उपासना करता हुआ हृदयस्थ प्रभु से प्रकाश को प्राप्त करूँ। [२] इस प्रकाश को प्राप्त करके (अहम्) = मैं (सूर्य इव) = सूर्य की तरह (अजनि) = हो गया हूँ। प्रभु से दिया हुआ प्रकाश इस प्रकार मुझे चमका देता है जैसे सूर्य ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु का ध्यान करें। हृदयस्थ प्रभु से प्रकाश को प्राप्त करें। यह प्रकाश हमें सूर्यवत् दीप्त करनेवाला होगा।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    I have received from my father super intelligence of the universal mind and law, I have realise it too in the soul, and I feel reborn like the refulgent sun.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपासकाकडून हे कथन आहे, की मी सत्यस्वरूप सर्वांचा पालक असलेल्या परमेश्वराचे ज्ञान उपलब्ध करून सूर्याप्रमाणे तेजस्वी झालो आहे. जे इतरही त्याची ज्ञानप्राप्ती व आज्ञापालन करतात ते तेजस्वी व ओजस्वी जीवनयुक्त बनून आनन्दोपभोग करतात. ॥१०॥

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