ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 30
आदित्प्र॒त्नस्य॒ रेत॑सो॒ ज्योति॑ष्पश्यन्ति वास॒रम् । प॒रो यदि॒ध्यते॑ दि॒वा ॥
स्वर सहित पद पाठआत् । इत् । प्र॒त्नस्य॑ । रेत॑सः । ज्योतिः॑ । प॒श्य॒न्ति॒ । वा॒स॒रम् । प॒रः । यत् । इ॒ध्यते॑ । दि॒वा ॥
स्वर रहित मन्त्र
आदित्प्रत्नस्य रेतसो ज्योतिष्पश्यन्ति वासरम् । परो यदिध्यते दिवा ॥
स्वर रहित पद पाठआत् । इत् । प्रत्नस्य । रेतसः । ज्योतिः । पश्यन्ति । वासरम् । परः । यत् । इध्यते । दिवा ॥ ८.६.३०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 30
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(यत्, दिवा, परः, इध्यते) यतः सोन्तरिक्षात्परो दीप्यते (आत्, इत्) अत एव (प्रत्नस्य, रेतसः) पुरातनस्य गतिशीलस्य तस्य (ज्योतिः) ज्योतिष्मद्रूपम् (वासरम्) सर्वत्र वासकं (पश्यन्ति) पश्यन्ति विद्वांसः ॥३०॥
विषयः
परमदेवस्यास्तित्वं द्रढयति ।
पदार्थः
आद्+इत्=ज्ञानानन्तरमेव विद्वांसः । प्रत्नस्य=पुराणस्य= शाश्वतस्य । रेतसः=बीजस्य=सर्वेषां बीजभूतस्य परमात्मनः । वासरम्=वासयितृ । यदाश्रित्य सर्वे प्राणिनः प्राणन्ति । तादृशं ज्योतिः=प्रकाशम् । पश्यन्ति । यज्ज्योतिः । दिवापर इध्यते=पृथिवीमारभ्य द्युलोकादप्यूर्ध्वं विततमस्ति । तज्ज्योतिः सूरयः पश्यन्तीत्यर्थः ॥३० ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(यत्, दिवा, परः, इध्यते) जो यह परमात्मा अन्तरिक्ष से भी परे दीप्त हो रहा है (आत्, इत्) इसी से विद्वान् लोग (प्रत्नस्य, रेतसः) सबसे प्राचीन गतिशील परमात्मा के (ज्योतिः) ज्योतिर्मय रूप को (वासरम्, पश्यन्ति) सर्वत्र वासक देखते हैं ॥३०॥
भावार्थ
जो परमात्मा अन्तरिक्ष से भी ऊर्ध्व देश में अपनी व्यापकता से देदीप्यमान हो रहा है, उसको विद्वान् लोग प्राचीन, गतिशील, ज्योतिर्मय तथा सर्वत्र वासक=व्यापक देखते हुए उसी की उपासना में तत्पर रहते हैं ॥३०॥
विषय
परमदेव के अस्तित्व को इससे दृढ करते हैं ।
पदार्थ
(आद्+इत्) ज्ञान होने के पश्चात् विद्वान् (प्रत्नस्य) पुरातन=शाश्वत (रेतसः) सबका बीजभूत परमात्मा के (वासरम्) वसानेवाले प्राणप्रद (ज्योतिः) ज्योति को (पश्यन्ति) देखते हैं । (यद्) जो ज्योति (दिवा+परः) द्युलोक से भी पर (इध्यते) प्रकाशित हो रहा है, जो परमात्मज्योति पृथिवी से लेकर सम्पूर्ण जगत् में विस्तीर्ण है, उसको विद्वान् देखते हैं । उसी से परमात्मा का अस्तित्व प्रतीत होता है ॥३० ॥
भावार्थ
जगत् का स्रष्टा परमात्मा कोई है, इसमें सन्देह नहीं । विद्वद्गण उसकी ज्योति को देखते हैं और हम लोगों से उसका उपदेश देते हैं ॥३० ॥
विषय
पिता प्रभु । प्रभु और राजा से अनेक स्तुति -प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
( यत् ) जो ( ज्योतिः ) तेज वा प्रकाश ( दिवा ) दिन के समय सूर्य के समान स्वाभाविक रूप ( परः ) काल और देश की सब मर्यादाओं के परे, दूर भी ( इध्यते ) प्रकाशित होता है ( प्रत्नस्य ) सनातन, नित्य ( रेतसः ) सब के सञ्चालक, जल वा वीर्यवत् सब के उत्पादक प्रभु की उस ( वासरम् ) सब को बसाने वाली ज्योति को ( आत् इत् ) योग साधनादि के पश्चात् योगीजन ( पश्यन्ति ) देखा करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥
विषय
वासरं ज्योतिः
पदार्थ
[१] (यत्) = जब (दिवा) = ज्ञान के प्रकाश के द्वारा (परः) = वह परम प्रभु (इध्यते) = अपने हृदयदेशों में समिद्ध किया जाता है (आत इत्) = तब ही (प्रत्नस्य रेतसः) = उस सनातन शक्ति की (वासरं ज्योतिः) = सबको बसानेवाली व अन्धकार को विनष्ट करनेवाली ज्योति को (पश्यन्ति) = देखते हैं। [२] हृदय में प्रभु का प्रकाश होने पर वह प्रभु एक सनातन शक्ति व अन्धकार विनाशक ज्योति के रूप में दिखता है। यह उपासक भी अपने जीवन में शक्ति व ज्योति के सम्पादन का यत्न करता है। यह यत्न ही प्रभु की सच्ची उपासना होती है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का ध्यान करनेवाले प्रभु को एक सनातन शक्ति के रूप में व वासर ज्योति के रूप में देखते हैं। स्वयं भी शक्ति व ज्ञान से सम्पन्न होने का यत्न करते हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
And then the devotees see like day light the self refulgence of the eternal lord and source of life who shines above and beyond the day through the night of annihilation too.
मराठी (1)
भावार्थ
जो परमेश्वर अन्तरिक्षापेक्षाही वरच्या स्थानी आपल्या व्यापकतेने देदीप्यमान होत आहे त्याला विद्वान लोक प्राचीन, गतिशील, ज्योतिर्मय व सर्वत्र वास करणारा - व्यापक जाणून त्याचीच उपासना करण्यात तत्पर असतात. ॥३०॥
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