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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    इ॒मा अ॒भि प्र णो॑नुमो वि॒पामग्रे॑षु धी॒तय॑: । अ॒ग्नेः शो॒चिर्न दि॒द्युत॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒माः । अ॒भि । प्र । नो॒नु॒मः॒ । वि॒पाम् । अग्रे॑षु । धी॒तयः॑ । अ॒ग्नेः । शो॒चिः । न । दि॒द्युतः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमा अभि प्र णोनुमो विपामग्रेषु धीतय: । अग्नेः शोचिर्न दिद्युत: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमाः । अभि । प्र । नोनुमः । विपाम् । अग्रेषु । धीतयः । अग्नेः । शोचिः । न । दिद्युतः ॥ ८.६.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 7
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 2
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (अग्नेः, शोचिः, न) अग्नेर्ज्वालामिव (दिद्युतः) दीप्यमानाः (इमाः, धीतयः) इमाः स्तुतीः (विपाम्) विदुषाम् (अग्रेषु) अग्रतः (अभि, प्रणोनुमः) पुनः पुनर्ब्रूमः ॥७॥

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    विषयः

    ईशाय प्रात्यहिकं कर्म निवेदयेदित्यनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! वयमल्पज्ञा जीवाः स्वसाक्ष्याय । विपाम्=विशेषद्रष्टॄणां विदुषां निकटे । इमाः=अहरहः क्रियमाणा एताः । धीतयः=धीतीः=कर्माणि । अभि=सर्वतो भावेन । प्रणोनुमः=प्रकर्षेण वदामो निवेदयामः । हे विद्वांसो ! यदि अस्माकं कर्मसु कापि न्यूनता स्यात् तर्हि यूयं तां प्रदर्श्यास्मान् बोधयत इत्थं निवेद्य स्वस्वकर्माणि संशोधयामः । तथापि यदि कश्चिच्छिद्रोऽवशिष्यत तर्हि तं त्वमेव प्रबोधय । कीदृशीर्धीतयः । अस्माकं दृष्ट्या । अग्नेः । शोचिर्न=दीप्तिरिव । दिद्युतः=दीप्यमानाः शुद्धा इत्यर्थः ॥७ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (अग्नेः, शोचिः, न) अग्नि की ज्वाला के सदृश (दिद्युतः) दीप्तिवाली (इमाः, धीतयः) ये स्तुतियें (विपाम्) विद्वानों के (अग्रेषु) समक्ष हम लोग (अभि, प्रणोनुमः) पुनः-पुनः उच्चारण करते हैं ॥७॥

    भावार्थ

    हम लोग दीप्तिवाली=तेजस्वी गुणोंवाली अर्थात् तेजस्वी बनानेवाली ऋचाओं को विद्वानों के सन्मुख पुनः-पुनः उच्चारण करते हैं, जिस से कि वह हमारी न्यूनता को पूर्ण करें, ताकि हम लोग तेजस्वीभाव को भले प्रकार धारण करनेवाले हों ॥७॥

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    विषय

    ईश्वर को प्रात्यहिक कर्म निवेदन करे, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    हे इन्द्र ! हम अल्पज्ञ जीव निज-२ साक्षी के लिये (विपाम्) विशेषद्रष्टा विद्वानों के निकट (इमाः) प्रतिदिन क्रियमाण इन (धीतयः) कर्मों को (अभि) सब तरह से (प्रणोनुमः) विनयपूर्वक निवेदन करते रहते हैं । हे विद्वानो ! यदि हमारे कर्मों में कोई न्यूनता हो, तो उसे दिखलाकर हमको बोधित कीजिये । इस प्रकार निवेदन करके हम अज्ञानी जीव निज-२ कर्मों का संशोधन करते ही रहते हैं, तथापि मनुष्यत्व के कारण उनमें कोई त्रुटि रह जाय, तो आपके अतिरिक्त उसको कौन समझा सकता है । आगे दिखलाते हैं कि अपनी बुद्धि के अनुसार हम उत्तम कर्म करते हैं, किन्तु वे ऐसे हैं या नहीं, उसे आप ही जानें । यथा−वे कर्म (अग्नेः) अग्नि की (शोचिः+न) दीप्ति के समान (दिद्युतः) दीप्यमान अर्थात् शुद्ध पवित्र हैं, क्योंकि वे एक तो वेद के अनुकूल हैं और वेदविद् विद्वानों से संशोधित हैं । तथापि यदि भ्रम हो तो आप ही दूर करें । यह आशय इस ऋचा का है ॥७ ॥

    भावार्थ

    जो कुछ लौकिक वा वैदिक कर्म हम करें, वह सब प्रथम विद्वानों के निकट निवेदनीय है, क्योंकि यदि उसमें कोई न्यूनता हो, तो विद्वानों के द्वारा शोधित होकर फल देने में समर्थ होती है । इससे अभिमान त्यागना चाहिये, यह भी शिक्षा होती है ॥७ ॥

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    विषय

    विद्वानों के और कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हम ( अग्रेषु ) अग्रगण्य विद्वानों के अधीन रहकर ( विपाम् ) वेदवाणियों में से ( इमाः ) इन ( धीतयः ) नाना स्तुतियों और धारण करने योग्य वाणी या कर्मों को ( अभि प्र नोनुमः ) साक्षात् कर अच्छी प्रकार अभ्यास करें, पढ़े और अन्यों के प्रति कहें। वे (अग्नेः शोचिः न ) अग्नि की ज्वाला के समान ( दिद्युतः ) प्रकाश करने वाली हैं। ‘विपा’ इति वाङ्-नाम ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥

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    विषय

    उपासना से दीप्त जीवन की प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] (विपाम्) = मेधावी पुरुषों में (अग्रेषु) = प्रमुख स्थान में स्थित व्यक्तियों में जो (इमाः) = ये (धीतयः) = [devotion] उपासनायें हैं उनके प्रति (अभि प्रणोनुमः) = हम बारम्बार नतमस्तक होते हैं। इन उपासनाओं का हम आदर करते हैं। वस्तुतः ये उपासनायें ही उन्हें 'विप्' [मेधावी] बनाती हैं, मेधावियों में भी अग्र स्थान में स्थित करती हैं। [२] ये उपासनायें (अग्नेः शोचिः न) = अग्नि की दीप्ति के समान (दिद्युतः) = चमकती हैं। उपासनाओं से इन मेधावी पुरुषों का जीवन चमक उठता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- मेधावी पुरुषों से की जानेवाली उपासनाओं का हम आदर करते हैं। ये उपासनायें ही उनके जीवनों को अग्नि की दीप्ति के समान दीप्त करती हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    These hymns of ardent adoration like rising flames of radiant fire, we among the front ranks of vibrant sages offer are homage and surrender to the lord omnipotent, Indra.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    आम्ही दीप्तिवान = तेजस्वी गुण असलेल्या अर्थात् तेजस्वी बनविणाऱ्या ऋचांचे विद्वानांसमोर पुन्हा पुन्हा उच्चारण करतो. त्यांनी आमची कमी भरून काढावी. त्यामुळे आम्ही तेजस्वी स्वभाव चांगल्या प्रकारे धारण करावा. ॥७॥

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