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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 13
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यद॑स्य म॒न्युरध्व॑नी॒द्वि वृ॒त्रं प॑र्व॒शो रु॒जन् । अ॒पः स॑मु॒द्रमैर॑यत् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत् । अ॒स्य॒ । म॒न्युः । अध्व॑नीत् । वि । वृ॒त्रम् । प॒र्व॒ऽशः । रु॒जन् । अ॒पः । स॒मु॒द्रम् । ऐर॑यत् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यदस्य मन्युरध्वनीद्वि वृत्रं पर्वशो रुजन् । अपः समुद्रमैरयत् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यत् । अस्य । मन्युः । अध्वनीत् । वि । वृत्रम् । पर्वऽशः । रुजन् । अपः । समुद्रम् । ऐरयत् ॥ ८.६.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 13
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (यत्) यदा (अस्य, मन्युः) अस्य प्रभावः (अध्वनीत्) प्रादुर्भूत् तदा (पर्वशः) पर्वणि पर्वणि (वृत्रम्, विरुजन्) वारकमज्ञानं नाशयत् (अपः, समुद्रम्) जलं समुद्रं च (ऐरयत्) प्रादुरभावयत् ॥१३॥

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    विषयः

    ईश्वरः कल्याणकृदस्तीत्यनया शिक्षते ।

    पदार्थः

    समुद्रे कुतो जलमागतमित्यपेक्षायामीश्वर एवास्य कारणमित्यनया प्रदर्श्यते । यथा । यद्=यदा सृष्ट्यादौ । अस्येन्द्रस्य परमात्मनः । मन्युः=मननसाधनं विज्ञानम् । वृत्रम्=आवृत्य तिष्ठन्तं बाधकम् । पर्वशः=पर्वाणि पर्वणि । विरुजन्=विभञ्जन्=अपसारयन् । अध्वनीत्= शब्दायमानोऽभूत् । जलेन जीवनाय भाव्यमिति यदा परमेश्वरस्य संकल्पोऽभूदित्यर्थः । तदा । स हि परमात्मा । अपः=जलानि जलाधारं मेघमित्यर्थः । समुद्रमैरयत्=समुद्रमाकाशम् । ईरयति प्रेरयति विस्तारयति । तस्य संकल्पादेव जलं बभूवेत्यर्थः ॥१३ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (यत्) जब (अस्य, मन्युः) इसका प्रभाव (अध्वनीत्) प्रादुर्भूत हुआ तब (वृत्रम्) वारक अज्ञान को (पर्वशः) पर्व-पर्व में (विरुजन्) भग्न करता हुआ (अपः, समुद्रम्) जल तथा समुद्र को (ऐरयत्) प्रादुर्भूत करता है ॥१३॥

    भावार्थ

    जब उपासक उपासनाओं द्वारा शुद्ध हो जाता है अर्थात् उसके मल-विक्षेपादि निवृत्त हो जाते हैं, तब परमात्मा उसमें अज्ञान की निवृत्ति द्वारा ज्ञान का प्रादुर्भाव करते हैं अर्थात् उपासक तपश्चर्या के प्रभाव से ज्ञान प्राप्त कर सुखोपभोग करता है, अतएव सुख की कामनावाले पुरुषों को उचित है कि वे अज्ञान की निवृत्तिपूर्वक ज्ञान की वृद्धि करने में सदा तत्पर रहें ॥१३॥

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    विषय

    ईश्वर कल्याणकृत् है, यह इस ऋचा से सिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    समुद्र में जल कहाँ से आया, ऐसी अपेक्षा होने पर ईश्वर ही इसका भी कारण है, यह इस ऋचा से दिखलाया जाता है । यथा (यद्) जब सृष्टि की आदि में (अस्य) इस इन्द्राभिधायी परमात्मा का (मन्युः) मननसाधन विज्ञान (वृत्रम्) बाधक अन्तराय को (पर्वशः) खण्ड-२ करके (वि+रुजन्) दूर करता हुआ (अध्वनीत्) शब्दायमान होता है अर्थात् जीवन के लिये जल होना चाहिये, जब ऐसा संकल्प परमात्मा का होता है, तब वह ईश्वर (अपः) जल को=जलधारी मेघ को (समुद्रम्) आकाश में (ऐरयत्) फैलाता है । उसके संकल्पमात्र से जल हुआ है, यह इसका आशय है ॥१३ ॥

    भावार्थ

    यह जगत् महा महाऽद्भुत है । इसका तत्त्व सुस्पष्ट नहीं, तथापि सर्वदा इसकी जिज्ञासा करनी चाहिये । तत्त्ववित् पण्डितों को जल पृथिवी आदिकों के होने के कारण प्रतीत होते हैं, अतः हे मनुष्यों ! सृष्टि का अध्ययन करो ॥१३ ॥

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    विषय

    गुरुवत् प्रभु ।

    भावार्थ

    ( यत् ) जब ( अस्य मन्युः ) सूर्य या विद्युत् का प्रखर ताप वा कोप ( वृत्रं ) मेघ के ( पर्वशः ) पोरु २ ( वि रुजन् ) छिन्न भिन्न करता है तब ( अपः समुद्रम् ऐरयत् ) जलों को वह मेघ समुद्र की तरफ प्रेरित करता है उसी प्रकार ( यत् ) जब ( मन्युः ) ज्ञानमय प्रभु वा गुरु ( अस्य ) इस जीव शिष्य को ( वृत्रं ) विस्तृत ज्ञान का ( पर्वशः विरुजन् ) पोरु २, गांठ २ करके छिन्न भिन्न करता हुआ ( अध्वनीत् ) उपदेश करता है, तब वह ( अपः ) जीव अपने कर्म को —लिङ्ग शरीर को उस ( समुद्रम् ) आनन्दमय प्रभु के प्रति ( हेरयत् ) सञ्चालित करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥

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    विषय

    अपः समुद्र ऐरयत्

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जब (अस्य) = इस प्रभु का (मन्युः) = यह वेदज्ञान (अध्वनीत्) = हमारे जीवनों में शब्दायमान होता है तो यह ज्ञान (वृत्रम्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना को (पर्वशः) = पोरी पोरी करके रुजन् भग्न करनेवाला होता है। ज्ञान-वासना का खण्डन कर देता है। [२] यह ज्ञानी पुरुष (अपः) = सब कर्मों को (समुद्रम्) = उस आनन्दमय प्रभु की ओर (ऐरयत्) = प्रेरित करता है। जिस-जिस कर्म को यह ज्ञानी करता है, उसे प्रभु के अर्पण करता चलता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु से दिया गया ज्ञान यदि हमारे हृदयों में आता है तो सब वासनाओं का विनाश कर देता है। यह ज्ञानी सब कर्मों को प्रभु के अर्पण करता है।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    When the lord’s passion rises and roars, breaking the dark cloud stage by stage, showers rain and rivers flow to the sea.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा उपासक उपासनेद्वारे शुद्ध होतो अर्थात् त्याचे मलविक्षेप इत्यादी निवृत्त होतात, तेव्हा परमेश्वर त्याच्यामध्ये अज्ञानाची निवृत्ती करून ज्ञानाचा प्रादुर्भाव करतो अर्थात उपासक तपश्चर्येच्या प्रभावाने ज्ञान प्राप्त करून सुखोपभोग करतो. त्यासाठी सुखाची कामना करणाऱ्या पुरुषांनी अज्ञानाची निवृत्ती करून ज्ञानाची वृद्धी करण्यात सदैव तत्पर राहावे. ॥१३॥

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