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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 20
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - स्वराडार्चीगायत्री स्वरः - षड्जः

    या इ॑न्द्र प्र॒स्व॑स्त्वा॒सा गर्भ॒मच॑क्रिरन् । परि॒ धर्मे॑व॒ सूर्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याः । इ॒न्द्र॒ । प्र॒ऽस्वः॑ । त्वा॒ । आ॒सा । गर्भ॑म् । अच॑क्रिरन् । परि॑ । धर्म॑ऽइव । सूर्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    या इन्द्र प्रस्वस्त्वासा गर्भमचक्रिरन् । परि धर्मेव सूर्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याः । इन्द्र । प्रऽस्वः । त्वा । आसा । गर्भम् । अचक्रिरन् । परि । धर्मऽइव । सूर्यम् ॥ ८.६.२०

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 20
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (याः, प्रस्वः) याः प्रसवित्र्यो रश्मयः (त्वा) त्वच्छक्तिमाश्रित्य (आसा) आस्येन जलं कृष्ट्वा (गर्भम्, अचक्रिरन्) गर्भं दधति (सूर्यम्, परि, धर्मेव) यथा सूर्यः परितो जगद्दधाति तद्वत् ॥२०॥

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    विषयः

    जगतः परमात्मैव जीवनमित्यनया दर्शयति ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! प्रस्वः=प्रसवकर्त्र्यः सर्वगतशक्तयः । याः=इमा विद्यन्ते । ताः । त्वा=त्वामेव । आसा=आस्येन मुखेन । गर्भम्=भक्ष्यं गृहीत्वा । अचक्रिरन्=स्वस्वजीवनं कुर्वन्ति । तथैव सर्वाः पदार्थगतशक्तयस्त्वामेव जीवनत्वेन धारयन्तीत्यर्थः । अत्र दृष्टान्तः−परि=परितः । धर्म=धारकम् । जगतो धारकम् सूर्य्यमिव । यथा सूर्य्यः परितः सर्वं जगद्धत्ते । सर्वं जगत्=सूर्य्यात् तापमौष्ण्यं च लब्ध्वा जीवनं प्राप्नुवन्ति । तथैवेश्वरविषये द्रष्टव्यम् ॥२० ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (याः, प्रस्वः) जो उत्पादक रश्मियें (त्वा) आपकी शक्ति के आश्रित होकर (आसा) अपने मुख से जलपरमाणुओं को खींचकर (गर्भम्, अचक्रिरन्) गर्भ का धारण करती हैं, जैसे (सूर्यम्, परि, धर्मेव) सूर्य चारों ओर से पदार्थों को धारण किये हुए है ॥२०॥

    भावार्थ

    हे परमेश्वर ! जलों की उत्पादक सूर्य्यरश्मि, जो आपकी शक्ति के अश्रित हैं, वे ग्रीष्मऋतु में जलपरमाणुओं को खींचकर मेघमण्डल में एकत्रित करतीं और फिर वे ही जलपरमाणु वर्षाऋतु में मेघ बनकर बरसते और पृथिवी को धनरूपा बनाते हैं ॥२०॥

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    विषय

    परमात्मा ही जगत् का जीवन है, यह इससे दिखलाते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे इन्द्र परमदेव ! (याः) जो ये (प्रस्वः) पैदा करनेवाली सर्वगत शक्तियाँ विद्यमान हैं, वे (त्वाम्) तुझको ही (आसा) मुख से (गर्भम्) जीवन (अचक्रिरन्) बनाती हैं । इसका भाव यह है कि जैसे सब पदार्थ मुख से भक्ष्य ग्रहणकर निज-२ जीवन करते हैं, वैसे ही तुझको सब पदार्थ ग्रहण करते हैं । यहाँ दृष्टान्त देते हैं । (इव) जैसे (परि) चारों तरफ से (धर्म) धारण करनेवाले (सूर्यम्) सूर्य को सब पदार्थ धारण करते हैं, इसका भी आशय यह है कि सूर्य तो अपने चारों तरफ के पदार्थों को धारण और पोषण करता हुआ विद्यमान है । ये समस्त पदार्थ सूर्य से ताप और गर्मी आदि वस्तु को पाकर अपनी सत्ता स्थित रखते हैं । तद्वत् सर्व पदार्थ ईश्वर को ही पाकर अपनी-२ सत्ता रखते हैं, ऐसा महान् ईश्वर है ॥२० ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! सकल जगत् का जीवन उसको जान उसी की उपासना से अपने आत्मा को पवित्र बनाओ ॥२० ॥

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    विषय

    सर्व-शक्तिप्रद प्रभु ।

    भावार्थ

    ( धर्मः इव सूर्यम् ) धारण करने वाला मेघमय जल वा वायु जिस प्रकार 'सूर्य' के ताप को (गर्भं करोति ) अपने भीतर ग्रहण करता है उसी प्रकार हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् प्रभो ! ( याः प्रस्वः ) जो जगत् में उत्पन्न करने वाली शक्तियें ( आसा ) अपने मुख से अर्थात् मुख्य बल से, वा स्तुति द्वारा ( त्वा ) तुझे ही ( गर्भम् अचक्रिरन् ) अपने भीतर शक्तिरूप में धारण करते हैं। इसी प्रकार मादाएं वा माताएं भी जो गर्भ में धारण करती हैं वे भी सूर्यवत् तेरे ही उत्पादक बल को अपने भीतर धारण करती हैं। अन्नादि रूप में भी तेरे ही उत्पन्न किये प्राणदायक जीवन को प्रजाएं मुख से शरीर धारक रूप में ग्रहण करती हैं । इति द्वादशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥

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    विषय

    प्रभु को स्तवन के द्वारा धारण करना

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो ! (या:) = जो (प्रस्वः) = प्रकृष्ट जन्मवाली प्रजायें हैं, वे (आसा) = स्तुति के द्वारा (त्वा) = आपको (गर्भं अचक्रिरन्) = गर्भ में धारण करती हैं। [२] उन आपको अपने अन्दर धारण करती हैं, जो आप (परिधर्म) = चारों ओर धारण करनेवाले (सूर्यं इव) = सूर्य के समान हैं। सूर्य अपने प्रकाश व प्राणशक्ति से सबका धारण करता है। सूर्य के भी सूर्य आप हैं। आप ही सूर्य में इस शक्ति को स्थापित करते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम स्तुति द्वारा प्रभु का अपने अन्दर धारण करें। प्रभु हमारा धारण करेंगे, सूर्य की तरह हमें प्राण शक्ति व प्रकाश को प्राप्त करायेंगे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    All these stars and planets are fertile and creative, and all round, like the nature and action of the sun, they suck up vitality in by the divine mouth and hold the seed of life for new birth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे परमेश्वरा, जल उत्पादक सूर्यरश्मी तुझ्या शक्तीच्या आश्रित आहेत. त्या ग्रीष्म ऋतूत जलपरमाणूंना ओढून मेघमंडलात एकत्रित करतात व पुन्हा तेच जलपरमाणू वर्षा ऋतूत मेघ बनून वर्षाव करतात व पृथ्वीला धनरूप बनवितात. ॥२०॥

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