ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 37
त्वामिद्वृ॑त्रहन्तम॒ जना॑सो वृ॒क्तब॑र्हिषः । हव॑न्ते॒ वाज॑सातये ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । इत् । वृ॒त्र॒ह॒न्ऽत॒म॒ । जना॑सः । वृ॒क्तऽब॑र्हिषः । हव॑न्ते । वाज॑ऽसातये ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामिद्वृत्रहन्तम जनासो वृक्तबर्हिषः । हवन्ते वाजसातये ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । इत् । वृत्रहन्ऽतम । जनासः । वृक्तऽबर्हिषः । हवन्ते । वाजऽसातये ॥ ८.६.३७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 37
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 16; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(वृत्रहन्तम) हे अज्ञाननिवारक ! (वृक्तबर्हिषः, जनासः) एकान्तासना उपासकाः (वाजसातये) ऐश्वर्यप्राप्तये (त्वाम्, इत्) त्वामेव (हवन्ते) उपासते ॥३७॥
विषयः
ईश्वर एव पूज्यो नान्योऽस्तीत्यनया दर्श्यते ।
पदार्थः
हे वृत्रहन्तम=वृत्राणामावृत्य तिष्ठतां सर्वेषामुपद्रवाणां विघ्नानाञ्च अतिशयेन हन्तः । विनाशयितः परमात्मन् ! वृक्तबर्हिषः=यज्ञानुष्ठानरताः । जनासः=जनाः । वाजसातये=वाजस्य=ज्ञानस्य, सातये=प्राप्तये । त्वामित्=त्वामेव । हवन्ते=आह्वयन्ति ॥३७ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(वृत्रहन्तम) हे अज्ञाननिवारक ! (वृक्तबर्हिषः, जनासः) विविक्तस्थल में आसीन उपासक लोग (वाजसातये) ऐश्वर्य्य की प्राप्ति के लिये (त्वाम्, इत्, हवन्ते) आपकी ही उपासना करते हैं ॥३७॥
भावार्थ
हे अज्ञानान्धतम के निवारक प्रभो ! भिन्न-भिन्न स्थानों में समाधिस्थ हुए उपासक लोग आपकी उपासना में प्रवृत्त हैं। कृपा करके आप उनको ऐश्वर्य्य प्रदान करें, ताकि वह आपका गुणगान करते हुए निरन्तर आप ही की उपासना में तत्पर रहें ॥३७॥
विषय
ईश्वर ही पूज्य है, अन्य नहीं, यह इससे दिखलाते हैं ।
पदार्थ
(वृत्रहन्तम) हे सर्वविघ्नविनाशक सर्वोपद्रवनिवारक महादेव (वृक्तबर्हिषः) यज्ञादि शुभकर्मों में आसक्त (जनासः) मनुष्य (वाजसातये) ज्ञानप्राप्त्यर्थ (त्वाम्+इत्) तुझको ही (हवन्ते) बुलाते हैं, अन्य देवों को नहीं । वृत्र शब्द के प्रयोग वेदों में बहुत हैं । वृत्र नाम अज्ञान, अन्धकार, विघ्न और उपद्रव आदि का है । उसका भी विनाशक परमात्मा ही है, अतः वह वृत्रहन्ता, वृत्रघ्न इत्यादि कहलाता है ॥३७ ॥
भावार्थ
विद्वान् सर्वकार्यसिद्ध्यर्थ परमात्मा को ही पूजते हैं, परन्तु मूढ़ उन उन विधियों से अन्य जड़ देवों की अर्चना करते हैं, किन्तु उनसे काम न पाकर सदा वे क्लेश में रहते हैं, यह जानकर सब उसी को पूजें और गावें ॥३७ ॥
विषय
पिता प्रभु । प्रभु और राजा से अनेक स्तुति-प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
हे ( वृत्रहन्तम ) आत्मा को घेर कर बैठे अज्ञान और नाना दुःखजनक वासना-पुञ्जों को नाश करने में सर्वोत्तम ! ( वृक्त-बर्हिषः ) कुशादि को छेदन कर यज्ञ करने वालों के समान वासनामूलों को उच्छेदः कर तेरी उपासना करने वाले जीवगण ( वाज-सातये ) बल, अन्न, और ज्ञानैश्वर्य को प्राप्त करने के लिये ( त्वाम् इत् हवन्ते ) तुझे ही बुलाते, तुझे उद्देश्य करके ही आहुति देते, यज्ञ करते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥
विषय
वाजसातये
पदार्थ
[१] हे (वृत्रहन्तम) = वासना को अधिक से अधिक विनष्ट करनेवाले प्रभो ! (वृक्तबर्हिषः) = जिन्होंने हृदयक्षेत्र से वासना के घास-फूस को उखाड़ फेंका है ऐसे (जनासः) = लोग (वाजसातये) = शक्ति की प्राप्ति के लिये (त्वां इत) = आपको ही हवन्ते पुकारते हैं। [२] प्रभु का आराधन ही हमारी वासनाओं को विनष्ट करता है और इस प्रकार हमें सबल बनाता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु को पुकारें, प्रभु हमारी वासना को विनष्ट करेंगे और हमें शक्ति सम्पन्न करेंगे।
इंग्लिश (1)
Meaning
People, dedicated celebrants, seated on the vedi with homage in hand, invoke and adore you, lord most potent destroyer of darkness and evil, and they pray for victory in their struggle of life for advancement.
मराठी (1)
भावार्थ
हे अज्ञानान्धकार निवारक प्रभो, भिन्न भिन्न स्थानी समाधिस्थ असलेले उपासक तुझ्या उपासनेत प्रवृत्त होतात, कृपा करून तू त्यांना ऐश्वर्य प्रदान कर. त्यामुळे ते तुझे गुणगान करत निरंतर तुझ्याच उपासनेत तत्पर राहतील. ॥३७॥
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