ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 11
अ॒हं प्र॒त्नेन॒ मन्म॑ना॒ गिर॑: शुम्भामि कण्व॒वत् । येनेन्द्र॒: शुष्म॒मिद्द॒धे ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒हम् । प्र॒त्नेन॑ । मन्म॑ना । गिरः॑ । शु॒म्भा॒मि॒ । क॒ण्व॒ऽवत् । येन॑ । इन्द्रः॑ । शुष्म॑म् । इत् । द॒धे ॥
स्वर रहित मन्त्र
अहं प्रत्नेन मन्मना गिर: शुम्भामि कण्ववत् । येनेन्द्र: शुष्ममिद्दधे ॥
स्वर रहित पद पाठअहम् । प्रत्नेन । मन्मना । गिरः । शुम्भामि । कण्वऽवत् । येन । इन्द्रः । शुष्मम् । इत् । दधे ॥ ८.६.११
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 11
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (2)
पदार्थः
(अहम्) अहमुपासकः (प्रत्नेन, मन्मना) नित्येन ज्ञानेन (कण्ववत्) विद्वद्वत् (गिरः) वाणीः (शुम्भामि) अलङ्करोमि (येन) येन ज्ञानेन (इन्द्रः) परमात्मा (शुष्मम्, इत्, दधे) मयि बलं दधाति ॥११॥
विषयः
प्रथमं वाणी शोधयितव्येति शिक्षते ।
पदार्थः
उपासकः स्वकर्त्तव्यमाचष्टे । अहमुपासकः । प्रत्नेन=पुराणेन नित्येन । मन्मना=मननसाधनेन वेदवचसा । कण्ववत्=ग्रन्थकारवत् । गिरः=स्वकीया वाणीः । शुम्भामि=पवित्रीकरोमि । यथा ग्रन्थरचयिता ईश्वरस्तोत्ररचनया स्वीयां वाणीं पुनाति तथाऽहमपि वेदाध्ययनेन स्वगिरं पवित्रीकरोमीत्यर्थः । येन=व्यापारेण । इन्द्रः=भगवान् । शुष्ममित्=प्रसन्नतामेव । दधे=दधाति ॥११ ॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(अहम्) मैं (प्रत्नेन, मन्मना) नित्य परमात्मज्ञान से (कण्ववत्) विद्वान् के सदृश (गिरः) वाणियों को (शुम्भामि) अलंकृत करता हूँ, (येन) जिस ज्ञान से (इन्द्रः) परमात्मा (शुष्मम्, इत्, दधे) मेरे में बल को धारण करता है ॥११॥
भावार्थ
मैं परमात्मज्ञान से सत्याश्रित होकर महर्षिसदृश परमात्मवाणियों का अभ्यास करता हुआ उसकी कृपा से बल को धारण करता हूँ। जो अन्य भी वेदवाणियों से अंलकृत होते हैं, वे तेजस्वी जीवनवाले होकर आनन्दित होते हैं ॥११॥
विषय
प्रथम वाणी शोधनीय है, यह शिक्षा इससे देते हैं ।
पदार्थ
उपासक स्वकर्त्तव्य का वर्णन करता है । (अहम्) मैं उपासक (प्रत्नेन) पुराण=नित्य (मन्मना) मननसाधन वेदवचन से (कण्ववत्) ग्रन्थकारवत् (गिरः) वचनों को (शुम्भामि) पवित्र करता हूँ । जैसे ग्रन्थकार ईश्वरसम्बन्धी स्तोत्ररचना से निजवाणी को शुद्ध पवित्र बनाता है, वैसे ही मैं भी नित्य वेदाध्ययन से स्ववाणी को पवित्र करता हूँ । लोगों को भी ऐसा करना चाहिये, यह शिक्षा है । (येन) जिस मेरे व्यापार से (इन्द्रः) परमात्मा (शुष्मम्+इत्) प्रसन्नता को ही (दधे) दिखलाता है ॥११ ॥
भावार्थ
जैसे पुरातन ऋषि और विद्वान् ईश्वर की आज्ञा के अनुसरण से और लोकहित करने से वाणी, मन और शरीर पवित्र किया करते थे, वैसे ही आप आधुनिक जन भी उनके पथ पर चलिये । इसी से भगवान् प्रसन्न होगा ॥११ ॥
विषय
प्रभु से प्रार्थनाएं ।
भावार्थ
( येन ) जिस ज्ञान से ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् पुरुष या आत्मा ( शुष्मम् इत् दधे ) शत्रुशोषक बल को धारण करता है ( अहं ) मैं भी ( प्रत्नेन ) पुराने सनातन, नित्य ( मन्मना ) मनन योग्य वेदमय या आत्मज्ञान से ( कण्ववत् ) उत्तम मेधावी पुरुष के समान ( गिरः शुम्भामि ) अपनी वाणियों को सुशोभित करूं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥
विषय
सनातन ज्ञान से बल की प्राप्ति
पदार्थ
[१] गत मन्त्र के अनुसार मैं प्रभु से प्रकाश को प्राप्त करता हूँ। (अहम्) = मैं (प्रत्नेन मन्मना) = इस सनातन [पुराणे] सदा सृष्टि के प्रारम्भ में दिये जानेवाले ज्ञान से (गिरः शुम्भामि) = अपनी वाणियों को ऐसे अलंकृत करता हूँ (कण्ववत्) = जैसे एक मेधावी पुरुष किया करता है। वस्तुत: यह सनातन ज्ञान ही मुझे मेधावी बनाता है। [२] उस ज्ञान से मैं अपनी वाणियों को अलंकृत करता हूँ (येन) = जिससे (इन्द्रः) = एक जितेन्द्रिय पुरुष (इत्) = निश्चय से (शुष्पम्) = शत्रु-शोषक बल को (दधे) = धारण करता है। इस ज्ञानाग्नि से ही इन्द्र सब असुरों को दग्ध करनेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- सनातन वेदज्ञान मेरी वाणियों को अलंकृत करे। इस ज्ञान के द्वारा जितेन्द्रिय बनता हुआ मैं सब वासनारूप शत्रुओं के शोषक बल को धारण करूँ।
इंग्लिश (1)
Meaning
With the realisation of ancient and eternal knowledge I sanctify and adorn my words and voice in song like a wise sage, and by that, Indra, lord of light and power, vests me with strength and excellence.
मराठी (1)
भावार्थ
मी परमात्मज्ञानाने सत्याचा आश्रित होऊन महर्षीप्रमाणे परमात्मवाणीचा अभ्यास करत त्याच्या कृपेने बल धारण करतो. जे इतरही वेदवाणीने अलंकृत होतात ते तेजस्वी जीवनयुक्त बनून आनंदित होतात. ॥११॥
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