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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 6 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 6/ मन्त्र 16
    ऋषिः - वत्सः काण्वः देवता - इन्द्र: छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यस्त॑ इन्द्र म॒हीर॒पः स्त॑भू॒यमा॑न॒ आश॑यत् । नि तं पद्या॑सु शिश्नथः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । म॒हीः । अ॒पः । स्त॒भु॒ऽयमा॑नः । आ । अश॑यत् । नि । तम् । पद्या॑सु । शि॒श्न॒थः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्त इन्द्र महीरपः स्तभूयमान आशयत् । नि तं पद्यासु शिश्नथः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । ते । इन्द्र । महीः । अपः । स्तभुऽयमानः । आ । अशयत् । नि । तम् । पद्यासु । शिश्नथः ॥ ८.६.१६

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 6; मन्त्र » 16
    अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (2)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यः) यो जनः (ते) तव (महीः, अपः) पूज्यं कर्म (स्तभूयमानः) स्तम्भयन् (आशयत्) तिष्ठति (तम्) तं जनम् (पद्यासु) गमनार्हासु सत्सु (नि शिश्नथः) निहिनस्ति ॥१६॥

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    विषयः

    विघ्नविनाशाय परमात्मा प्रार्थ्यते ।

    पदार्थः

    हे इन्द्र ! ते=तव सम्बन्धिनीः । महीः=महत्यः । अपः=जलानि । स्तभूयमानः=स्तम्भयन् अवरुन्धानः सन् । यो विघ्नः । आशयत्=शेते=वर्तते । तं विघ्नम् । पद्यासु=गमनशीलासु अप्सु मध्ये । नि शिश्नथः=न्यर्हिंसीः=नितरां जहि । श्नथिर्हिंसार्थः ॥१६ ॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे परमात्मन् ! (यः) जो मनुष्य (ते) आपके (महीः, अपः) न्याययुक्त पूज्य कर्म को (स्तभूयमानः) अवरुद्ध करके (आशयत्) स्थित होता है (तम्) उसको (पद्यासु) आचरणयोग्य क्रियाओं की रक्षा करते हुए (नि शिश्नथः) निश्चय हिंसन करते हो ॥१६॥

    भावार्थ

    जो पुरुष परमात्मा के न्याययुक्त मार्ग का अतिक्रमण करके चलता है, वह अवश्य दुःख को प्राप्त होता है, इसलिये सुख की कामनावाले पुरुषों का कर्तव्य है कि उसके वेदविहित न्याययुक्तमार्ग से कभी विचलित न हों ॥१६॥

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    विषय

    विघ्नविनाशार्थ परमात्मा की प्रार्थना करते हैं ।

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे महेन्द्र परमदेव (ते) तेरा (महीः) महान् उपकारी (अपः) जल को (स्तभूयमानः) रोककर (यः) जो विघ्न (आशयत्) सोता हुआ है अर्थात् जगत् में विद्यमान है (तम्) उस जल विद्या तक विघ्न को (पद्यासु) प्रवहणशील जलों में ही (नि+शिश्नथः) अच्छी तरह से सड़ा गला दो ॥१६ ॥

    भावार्थ

    जल सर्व प्राणियों का जीवन है, उसके अभाव से सब स्थावर और जङ्गम सूख जाते हैं, अतः उसके लिये वारंवार प्रार्थना की जाती है ॥१६ ॥

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    विषय

    प्रसुप्त प्रकृति का ईश्वर से सम्बन्ध ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( यः ) जो ( ते ) तेरी ( महीः अपः ) बड़ी विस्तृत व्यापक जगत् की प्रारम्भक प्रकृति की सूक्ष्म मात्राओं को ( स्तभूयमानः ) स्तब्ध, निष्क्रिय करता हुआ ( आशयत् ) सर्वत्र प्रसुप्त सा किये हुए था (तं) उसको तू (पद्यासु) अपनी गतियों वा शक्तिरूप क्रियाओं के बीच में ( नि शिश्नथः ) सर्वथा नष्ट कर देता है। इस प्रकार जड़ प्रकृति की जड़ता ही वृत्र है जो सृष्टि के पूर्व प्रकृति को शिथिल प्रसुप्त सा बनाये रखता है । इसी प्रकार जो मेघ जलों को थामे रहता है विद्युत् वा सूर्य उसको आहत करके गतियुक्त धाराओं में परिवर्तित करता है। इसी प्रकार जो शत्रु राजा की भूमियों और प्रजाओं को रोककर स्वयं सुख में सोवे उसको राजा ( पद्यासु ) पदाति सेनाओं के बल पर विनाश करें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सः काण्व ऋषिः ॥ १—४५ इन्द्रः। ४६—४८ तिरिन्दिरस्य पारशव्यस्य दानस्तुतिर्देवताः॥ छन्दः—१—१३, १५—१७, १९, २५—२७, २९, ३०, ३२, ३५, ३८, ४२ गायत्री। १४, १८, २३, ३३, ३४, ३६, ३७, ३९—४१, ४३, ४५, ४८ निचृद् गायत्री। २० आर्ची स्वराड् गायत्री। २४, ४७ पादनिचृद् गायत्री। २१, २२, २८, ३१, ४४, ४६ आर्षी विराड् गायत्री ॥

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    विषय

    सोमरक्षण- सन्मार्ग पर गमन मुक्ति

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यः) = जो (ते) = तेरे (महीः अपः) = इन महत्त्वपूर्ण रेतः कण रूप जलों को (स्तभूयमानः) = शरीर में ही थामता हुआ (आशयत्) = निवास करता है अथवा उन रेतःकणों को शरीर में ही निवास कराता है, (तम्) = उस पुरुष को आप (पद्यासु) = मार्गों में ही स्थापित करते हुए (निशिश्वथ:) = [Liberate] निश्चय से मुक्त करते हो। [२] प्रभु ने शरीर में रेतःकणों को जन्म दिया है। जो भी व्यक्ति इन्हें शरीर में सुरक्षित करता है, वह मार्ग भ्रष्ट नहीं होता और अन्ततः मुक्ति को प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से सन्मार्ग पर चलते हुए हम मोक्ष का लाभ करते हैं।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Whoever chooses to hold up and stand in the way of the mighty flow of your waters, will and action, you pierce and break open like the dark cloud and make him flow with the flow into the channels of nature, the universal flow.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो पुरुष परमेश्वराच्या न्याययुक्त मार्गाचे अतिक्रमण करून वागतो त्याला अवश्य दु:ख प्राप्त होते, त्यासाठी सुखाची कामना करणाऱ्या पुरुषांचे कर्तव्य आहे, की वेदविहित न्याययुक्त मार्गापासून कधी विचलित होता कामा नये.॥१६॥

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